महिला हॉकी टीम इतिहास रचने के बाद भी आख़िर उपेक्षित क्यों ?

खरी – अखरी *जो जीता वही सिकन्दर*

महिला हॉकी टीम इतिहास रचने के बाद भी आख़िर उपेक्षित क्यों ?

ऊगते को सभी नमस्कार करते हैं । यह एक बार फिर तब साबित हुआ जब ओलंपिक हॉकी टीम का हिस्सा रहे मध्यप्रदेश के खिलाड़ी विवेक सागर का प्रदेश आगमन हुआ । कहते हैं खेल मंत्री तो इतनी भावुक हो गईं कि उनके आंसू ही निकल आये । अब ये आंसू कितने वास्तविक थे और कितने घड़ियाली ये तो वही जानें ।

लगे हाथों मुख्यमंत्री शिवराज ने भी विवेक सागर को पुलिस में डीएसपी बनाने के साथ ही एक करोड़ रुपये देने की घोषणा कर दी । इतना ही नहीं विवेक सागर के माता पिता को मकान देने का भी ऐलान कर तालियां बटोरने का प्रयास किया गया ।

अच्छा है विवेक को उसकी मेहनत का पुरस्कार उसे मिलना ही चाहिए । मग़र यहीं से सवाल उठना लाजिमी है कि यदि भारतीय टीम ओलंपिक में रजत पदक नहीं जीतती तो भी क्या मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज विवेक सागर को ये सब चीजें देते ? कभी नहीं देते । आज भी विवेक जैसे कई होनहार खिलाड़ी प्रदेश की धरा में मौजूद हैं । जरूरत है उन्हें तलाशने और तराशने की ।

विवेक सागर का जब ओलंपिक में भाग लेने वाली भारतीय हॉकी टीम में सलेक्शन हुआ था तब क्या मध्यप्रदेश गौरवान्वित नहीं हुआ था ? जरूर हुआ था मगर तब तो मध्यप्रदेश सरकार ने विवेक के लिए किसी भी प्रकार की कोई प्रोत्साहित घोषणा नहीं की थी ।

होशंगाबाद के चांदौन गांव में रहने वाले विवेक के माता – पिता के सिर पर पक्की छत तक नहीं है । क्या विवेक के भारतीय हॉकी टीम का हिस्सा बनते ही मकान देने की पहल नहीं की जानी चाहिए थी ? सूत्र बताते हैं कि चांदौन गांव में विवेक जहां रहता उस गली में पचासों गढ्ढ़े हैं । उसे प्रैक्टिस के लिए उसी गढ्डों वाली गली से गुजरना पड़ता था । फिर वही सवाल कि क्या स्थानीय निकाय समतल सड़क का निर्माण नहीं करा सकता था ?

अब जब विवेक सागर खिलाड़ियों का रोड मॉडल बनकर सामने आया तो सफेदपोश ज़बरन का श्रेय लेने, फोटोज खिंचाने आगे आने लगे हैं । प्रदेश भर में भारतीय जनता पार्टी हॉकी खिलाड़ियों का सम्मान करने वाली नौटंकी करने से नहीं चूकी । कार्यक्रम स्थल पर लगाये गए बैनर पोस्टर पर पार्टी नेताओं की बड़ी – बड़ी फ़ोटो लगाई गई । खिलाड़ियों की फोटोज तो इतनी बड़ी थीं कि उन्हें माइक्रोस्कोप से ही देखा जा सकता था । सोशल मीडिया में शेयर की गई फोटोज में खिलाडी तो कहीं नेपथ्य में थे । थे तो केवल पार्टी के सफेदपोश भगवाधारी ।

ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का स्वर्णिम इतिहास रहा है । 1928 के एस्टर्डम ओलम्पिक से शुरू हुआ सोना जीतने का सफ़र 1932 लास एंजलिस, 1936 बर्लिन, 1948 लंदन, 1952 हिलेन्स, 1956 मेलबोर्न ओलम्पिक तक लगातार जारी रहा । इसके बाद 1964 टोक्यो ओलम्पिक और 1980 मास्को ओलम्पिक में गोल्ड मैडल मिला । इस बीच भारत ने 1960 रोम ओलम्पिक में रजत तथा 1968 और 1972 में हुए ओलम्पिक गेम्स में कांस्य पदक भी प्राप्त किये । 1980 मॉस्को ओलम्पिक में एक फिर भारत स्वर्ण पदक जीतने में सफल रहा । खास बात यह थी कि इस ओलम्पिक में सेमीफाइनल मुकाबले नहीं हुए थे ।

भारत के नाम ओलम्पिक में कई रिकॉर्ड दर्ज हैं । भारत ने 21 बार ओलम्पिक गेम्स में भागीदारी की है । 1932 के लास एंजलिस ओलम्पिक में अमेरिका के खिलाफ खेले गए हॉकी मैच में भारतीय टीम ने 24 गोल करने का रिकॉर्ड बनाया था जिसमें रूपसिंह ने अकेले 10 गोल दागे थे । इसी तरह 1952 ओलम्पिक में हॉकी के फाइनल मैच में बलवीर सिंह सीनियर ने 5 गोल किये थे । इस रिकॉर्ड को अभी तक कोई तोड़ नहीं पाया है । 1980 में मॉस्को ओलम्पिक में सुरेंदर सिंह सोढ़ी ने 15 गोल किये थे । ओलम्पिक में सबसे ज्यादा गोल करने का रिकॉर्ड भी हॉकी जादूगर मेजर ध्यानचंद के नाम दर्ज है । ध्यानचंद ने 3 ओलम्पिक्स ने 37 गोल किये थे ।

ऐसा नहीं है कि भारत ने ओलम्पिक के हॉकी गेम्स में दुर्दिनों का साक्षात्कार नहीं किया । 1984 में 5वें, 1988 में 6वें, 1992 में 7वें, 1998 में 8 वें, 2000 में 7वें, 2004 में 7वें 2012 में 12वें और 2016 में 8वें स्थान रही भारतीय हॉकी टीम । सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो रहा 2008 का ओलम्पिक जिसमें भारतीय हॉकी टीम ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई ही नहीं कर पाई थी ।

इस लिहाज से भारतीय टीम द्वारा कांस्य पदक प्राप्त कर तीसरा स्थान हासिल करने पर गर्व किया जा सकता है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ओलम्पिक में लगभग आधी सदी पर कांस्य पदक लाने वाली पुरूष हॉकी टीम ने कोई स्वर्णिम इतिहास रचा है और न ही इसमें कोई बहुत अधिक गौरवान्वित होने जैसा कुछ है ।

अगर किसी ने इतिहास रचा है तो वह है भारतीय महिला हॉकी टीम । जिसने ओलंपिक इतिहास में पहली बार सेमीफाइनल से आगे तक का सफ़र तय किया और चौथा स्थान हासिल किया । मगर महिला हॉकी टीम के खिलाडिय़ों को जो मान – सम्मान दिया जाना चाहिए था नहीं दिया गया ।

खेल के प्रति सरकार की उदासीनता तो तभी उजागर हो गई थी जब उसने खेल बजट में सैकड़ों करोड़ रुपये की कटौती कर दी थी क्योंकि सरकार मानकर चल रही थी कि ओलंपिक से कुछ आने वाला नहीं है । सहारा इंडिया द्वारा भारतीय हॉकी टीम की स्पॉन्सरशिप बंद करने के बाद भारतीय हॉकी टीम को सहारा देने वाला कोई माई – बाप नहीं था । वो तो भला हो उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का जिसने आगे आकर भारतीय हॉकी टीम को सहारा दिया ।

आज भी भारत में सिंथेटिक एस्ट्रोटर्फ मैदानों का अकाल पड़ा हुआ है जबकि जर्मनी, नीदरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, ग्रेट ब्रिटेन की सरकारों ने सिंथेटिक एस्ट्रोटर्फ मैदानों की कोई कमी नहीं होने दी कहा तो यहां तक जाता है कि इन देशों के हॉकी क्लबों तक के पास अपने सिंथेटिक एस्ट्रोटर्फ मैदान हैं ।

135 करोड़ जनसंख्या वाले देश में एक सोना, दो चांदी और पांच कांस्य पदक आये तो कौन सी दुनिया फ़तह कर ली गई ! हां कड़वी सच्चाई तो यही है कि जो भी पदक हासिल किए गए वे केवल खिलाड़ियों और उनके कोच की व्यक्तिगत मेहनत का नतीजा है । इसमें सरकार का कोई योगदान नहीं है ।

अपनी कुत्सित मानसिकता के वशीभूत नेताओं द्वारा अपने राजनीतिक फायदे के लिए विजेता खिलाड़ियों को बधाई, उपहार आदि देकर फोटोज खिंचवाए जा रहे हैं । इस दौड़ में अब्बल नम्बर पर तो खुद पंतप्रधान ही हैं । भारतीय हॉकी टीम को सहारा देने वाला तो आज भी चमकते कैमरों की चकाचौंध से दूर नींव का पत्थर बना हुआ है ।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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