संत गाडगे : जीवन और मिशन

  • 20 दिसम्बर, 1956 (निर्वाण विशेष)

गाडगे बाबा लोकसेवा और स्वच्छता के प्रतीक थे, जिन्होंने झाड़ू, श्रमदान और पुरूषार्थ को अपना हथियार बनाया। उनके कार्यों को लोगों ने सराहा और उनका अनुसरण किया

संत गाडगे (23 फरवरी, 1876 – 20 दिसम्बर, 1956) पर विशेष

बीसवीं सदी के प्रारम्भ में बहुजन समाज में जागृति फैलाने में संत गाडगे की उल्लेखनीय भूमिका थी। गाडगे उस परम्परा के संत थे, जो कबीर से लेकर रविदास, दादू, तुकाराम और चोखामेला तक आती है। उन्होंने गांव-मोहल्ले की साफ-सफाई से लेकर धर्मशाला, तालाब, चिकित्सालय, अनाथालय, वृद्धाश्रम, कुष्ठ आश्रम, छात्रावास, विद्यालय आदि का निर्माण, श्रमदान व लोगों से प्राप्त आर्थिक सहयोग से किया। वे श्रमजीवी साधू थे। गाडगे बाबा, डॉ. आंबेडकर के समकालीन थे और उम्र में अम्बेडकर से 15 वर्ष बड़े थे। यह वह समय था जब -अछूत- युवक, सामाजिक विषमता के भयावह अंधकार में जीने पर मजबूर थे। गाडगे बाबा, अपने कार्यों से, उन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी, इतिहास का एक चमकदार अध्याय बन गये।

संत गाडगे का जन्म 23 फरवरी, 1876 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले की तहसील अंजनगाँव सुरजी के शेंगांव नामक ग्राम में एक गरीब अतिशूद्र (धोबी) परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम सखूबाई और पिता का नाम झिंगराजी था। उनके घर का नाम देवीदास डेबूजी झिंगराजी जाणोकर था। डेबूजी हमेशा अपने साथ मिट्टी के मटके जैसा एक पात्र रखते थे। इसी में वे खाना खाते और पानी भी पीते थे। महाराष्ट्र में मटके के टुकडे को गाडगा कहते हैं। इसी कारण लोग उन्हें गाडगे महाराज तो कुछ लोग गाडगे बाबा कहने लगे और बाद में वे संत गाडगे के नाम से प्रसिद्ध हो गये।

यद्यपि गाडगे बाबा का कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था तथापि वे डॉ. आंबेडकर के सभी कार्यक्रमों की सराहना करते थे, उन्हें प्रोत्साहित करते थे। गाडगे बाबा के सामाजिक-शैक्षणिक उन्नति के कार्य, बाबासाहब आम्बेडकर से अनुप्राणित थे तो धर्म के क्षेत्र में अज्ञान, अन्धविश्वास और पाखण्ड के खिलाफ उनका आन्दोलन, कबीर और चोखामेला से प्रेरित था।

गाडगे बाबा लोकसेवा और स्वच्छता के प्रतीक थे, जिन्होंने झाड़ू, श्रमदान और पुरूषार्थ को अपना हथियार बनाया। उनके कार्यों को लोगों ने सराहा और उनका अनुसरण किया। उन्होंने सामाजिक कार्य और जनसेवा को अपना धर्म बनाया। वे व्यर्थ के कर्मकांडों, मूर्तिपूजा व खोखली परम्पराओं से दूर रहे। उनके अनुसार, कर्म का सिद्धांत मनुवादियों द्वारा रचा गया षडयंत्र था, जो लोगों को अकर्मण्य बनाता है व उन्हें आगे बढऩे से रोकता है। जातिप्रथा और अस्पृश्यता को बाबा सबसे घृणित और अधर्म कहते थे। उन्होंने कहा कि ऐसी धारणाएं, धर्म में ब्राह्मणवादियों ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये जोड़ीं हैं। ब्राह्मणवादी इन्हीं मिथ्या धारणाओं के बल पर आम जनता का शोषण करके अपना पेट भरते हैं। संत गाडगे, ब्राह्मणवादियों के विरोधी थे, ब्राह्मणों के नहीं। उनके श्रमदान एवं सामाजिक कार्यों में ब्राह्मणों ने भी हिस्सा लिया था। अनेक उदारवादी ब्राह्मण बाबा के कार्यों की प्रशंसा करते थे। उनके अनुयायियों में सभी जातियों के लोग थे। उन्होंने लोगों से आह्वान किया कि वे अंधभक्ति व धार्मिक कुप्रथाओं से बचें।

उनके भजन और उपदेश सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और व्यवहारिक जीवन के विशद और विविध अनुभवों से ओतप्रोत होते थे तथा वे जो भी कहते थे, वह सहज बोधगम्य होता था। एक सामान्य-सी सूचना पर हजारों लोग उन्हें सुनने के लिए उमड़ पड़ते थे।

गाडगे बाबा जब डॉ. आंबेडकर के सम्पर्क में आये, तो उनके विचारों में बहुत बड़ा परिवर्तन आया। वे इस बात से सहमत हुए कि शिक्षा के द्वारा ही शूद्र समाज गुलामी से मुक्त हो सकता है और अपना स्वतन्त्र विकास कर सकता है। उन्होंने शिक्षा के महत्व को इस हद तक प्रतिपादित किया कि यदि खाने की थाली भी बेचनी पड़े तो उसे बेचकर भी शिक्षा ग्रहण करो। हाथ पर रोटी लेकर खाना खा सकते हो पर विद्या के बिना जीवन अधूरा है। उन्होंने 31 शिक्षा संस्थाओं तथा एक सौ से अधिक अन्य संस्थाएं स्थापित कीं, जिनके रख-रखाव और बेहतर संचालन के लिये सरकार ने एक ट्रस्ट बनाया।

उन्होंनें प्रेम, सद्भाव और गरीब व दुखी लोगों के प्रति कर्तव्य की त्रिमूर्ति के आधार पर 51 वर्षों तक समाज की सेवा की। सनातनियों के जाति-वर्ण की श्रेष्ठता और तुलसीदास के पूजिए विप्र शील गुणहीना, शूद्र न गुण गण ज्ञान प्रवीणा के दम्भ को ध्वस्त किया और पूजहीं चरन चण्डाल के, जउ होवे गुन प्रवीन को चरितार्थ किया। उन्होंने जाति व वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह की मशाल को प्रज्वलित किया। उनका लक्ष्य एक ऐसे समाज की रचना था, जिसमें किसी व्यक्ति के गुण, ना कि उसकी जाति या वर्ण, समाज में उसके स्थान का निर्धारण करे। एक अर्थ में यह कहा जा सकता है कि संत गाडगे का जीवन और मिशन, सनातनी शंकराचार्य से भी महान था।

उन्होनें हिंदू धार्मिक ग्रंथों की अमानवीय मान्यताओं और संहिताओं का प्राण-पण से विरोध किया और कबीर के इन शब्दों के सच्चे प्रशंसक बने कि जन जागे की ऐसी नाड, विष सा लगे वेद पुराण। उनका विचारधारात्मक संघर्ष उनके पूरे जीवनकाल में जारी रहा। उन्होंने लोगों के दिमागों में घर कर चुकी मनुवादियों द्वारा स्थापित कुप्रथाओं और अंधविश्वासों से उन्हें मुक्ति दिलाई। वे धोबी समाज में जन्मे थे, जो कपडे धोने का काम करते थे परन्तु उन्होंने लोगों के प्रदूषित मनो-मस्तिष्क को धो कर साफ़ करने का बीड़ा उठाया।

उन्हें औपचारिक शिक्षा का अवसर नहीं मिला था। स्वाध्याय के बल पर कुछ पढऩा-लिखना जान गए थे। लेकिन उन्होंने अपने जीवन में त्याग, समर्पण और कर्तव्य से यश के अनेक शिखर जीते। वे शिक्षा, समाज सेवा और साफ़-सफाई पर हमेशा जोर देते रहे।

गाडगे बाबा के लाखों अनुयायी थे, जिनमें श्रमिक वर्ग से लेकर मंत्री स्तर तक के लोग शामिल थे। बाबासाहब डाक्टर भीमराव आम्बेडकर भी गाडगे बाबा के प्रशंसकों में से एक थे। बाबासाहब आम्बेडकर कभी भी साधू और सन्यासियों में रूचि नहीं लिया करते थे पर गाडगे बाबा के सामाजिक कार्यों जैसे अछूतोद्धार, धर्मशाला निर्माण, जातिभेद एवं अन्धविश्वासों के विरुद्ध आवाज उठाने के कारण वे उनका आदर करते थे, सम्मान करते थे। उन्होंने गाडगे बाबा को ज्योतिबा फूले के बाद सबसे बड़ा त्यागी जनसेवक कहा था।

गाडगे बाबा की मृत्यु 20 दिसम्बर, 1956 को हुई। आकाशवाणी से उनके निधन की घोषणा से पूरे देश में शोक की लहर दौड गयी। उनकी मृत देह को बाडनेर के राठौर गार्डन में अंतिम दर्शनार्थ रखा गया। केंद्र व राज्य के मंत्रियों सहित बड़ी संख्या में आम लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।

सन 1983 में 1 मई को, महाराष्ट्र सरकार ने नागपुर विश्वविद्यालय को विभाजित कर संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय की स्थापना की। उनकी 42वीं पुण्यतिथि के अवसर पर, 20 दिसंबर, 1998 को भारत सरकार ने उनपर डाक टिकट जारी किया। सन 2001 में, महाराष्ट्र सरकार ने उनकी स्मृति में संत गाडगे बाबा ग्राम स्वच्छता अभियान शुरू किया। संत गाडगे सचमुच एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक संस्था थे।

(फारवर्ड प्रेस के अगस्त 2013 अंक में प्रकाशित)

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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