पंचशील सूत्र से पूरा होगा विकसित भारत का सपना: प्रो. डी. पी. सिंह

पंचशील सूत्र से पूरा होगा विकसित भारत का सपना: प्रो. डी. पी. सिंह

एस०एम०एस०, वाराणसी में ग्यारहवें दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में दिग्गज फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री, पूर्व डी.जी.पी. विक्रम सिंह सहित देश के ख्यातिलब्ध विद्वानों की हुई जुटान

सतत विकास लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारतीय ज्ञान व्यवस्था’ पर विद्वानों ने व्यक्त किये भारतीय ज्ञान केंद्रित विचार

अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस के पहले दिन देश-विदेश से आये लगभग 100 से अधिक प्रतिभागियों ने प्रस्तुत किये शोध-पत्र

वाराणसी, 2 मार्च: एस०एम०एस० वाराणसी में ग्यारहवें दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस का शुभारम्भ हुआ । इस दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस का मुख्य विषय ’सतत विकास लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारतीय ज्ञान व्यवस्था’ है। अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस के उदघाटन सत्र में बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित शिक्षा सलाहकार, उत्तर प्रदेश सरकार व यू. जी. सी. के पूर्व चेयरमैन प्रो. डी. पी. सिंह ने कहा कि कोविड के समय में नई शिक्षा पॉलिसी को बनाने में तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा कि आत्मचेतना ही नई शिक्षा नीति के मूल में है। आज यह दौर निःसंदेह विकसित भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण है। उन्होंने आह्वान करते हुए कहा कि हमसभी को ऐसी व्यवथा का निर्माण करने की जरूरत है जिसमें शिक्षण और शिक्षा के प्रति लगाव विकसित हो तभी सही मायनों में विकसित भारत के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। सतत विकास के लिए पंचशील सूत्र को महत्वपूर्ण बताते हुए प्रो. डी. पी. सिंह ने कहा कि आध्यात्म केंद्रित जीवन शैली, विद्यार्थी केंद्रित शिक्षा, महिला विकास केंद्रित परिवार, मानव केन्द्रित समाज, भारत केंद्रित विश्व ही समकालीन दौर की मांग है। उन्होंने कहा कि सतत विकास के लिए हमें पुरातन में झाँकने की जरूरत है। स्वामी विवेकानद को उद्धृत करते हुए प्रो सिंह ने कहा कि लव फॉर लर्निंग और लव फॉर लर्नर की अवधारणा को हमें नई शिक्षा का मूल बनाना होगा।

कॉन्फ्रेंस में विशिष्ट अतिथि के रूप में कश्मीर फाइल्स फिल्म फेम दिग्गज फिल्मकार विवेक रंजन अग्निहोत्री उपस्थित रहे। विद्यार्थियों से सीधा संवाद स्थापित करते हुए उन्होंने कहा कि सनातन वास्तव में धर्म नहीं बल्कि क्वालिफिकेशन है, यह एक शाश्वत नियम की तरह है। “तत्वमसि” को मूल मन्त्र बताते हुए उन्होंने कहा कि युवा शक्ति को आज खुद की काबीलियत पहचानने की जरूरत है, जिससे सफलता निश्चित है। दकियानूसी विचारों से युवाओं को दूर रहने के प्रति आगाह करते हुए श्री अग्निहोत्री ने कहा कि जरूरी है कि विचारों में वैज्ञामिक दृष्टिकोण को सम्मिलित किया जाय। भारतीय ज्ञान व्यवस्था को उद्धृत करते हुए उन्होंने बताया कि अज्ञान से स्व की प्राप्ति की यात्रा ही जीवन सार है। भारत के डी०एन०ए० में सेक्युलर की अवधारणा को अभिन्न हिस्सा बताते हुए उन्होंने कहा कि समाजवाद, धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्दों का सिर्फ लिखा होना या बार बार उद्धरण देना इन अवधारणाओं और भारत के साथ न्याय नहीं है। काशी को महज आध्यात्मिक नगरी नहीं बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में इसकी भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा कि राष्ट्रवाद की उपज महाराष्ट्र से हुई लेकिन इसका विकास वाराणसी और प्रयागराज में हुआ।

उत्तर प्रदेश के पूर्व डी. जी. पी. व नोएडा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के चांसलर प्रो. विक्रम सिंह ने कहा कि भारत की प्राचीन ज्ञान परम्परा संगीत, नृत्य, साहित्य, कला, आयुर्वेद, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान सहित सभी क्षेत्रों में समृद्ध है । पाश्चात्य सभ्यता में विकसित साहित्य, कविताओं का उदाहरण देते हुए कहा कि एक तरफ जहाँ इनकी रचनाओं में धोखा, दुःख, मृत्यु जैसी चीज़ें स्पष्ट दिखती हैं तो वहीं दूसरी तरफ भारतीय ज्ञान व्यवस्था में मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव जैसे सकारात्मक विचारों को स्थान दिया गया है। वैदिक मन्त्र द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः का उद्धरण देते हुए प्रो. विक्रम सिंह ने कहा कि आज ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में समय की माँग है कि न सिर्फ वैदिक ग्रंथमाला में सन्निहित तत्वों का समकालीन परिप्रेक्ष्य में खोज की जाय बल्कि इनको पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित करने पर भी जोर दिया जाय। विद्यार्थियों से अपील करते हुए उन्होंने कहा कि समय प्रबंधन ही जीवन प्रबंधन है।

दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में बैंगलुरू स्थित चाणक्य विश्वविद्यालय के भारतीय ज्ञान परंपरा केंद्र के निदेशक प्रो. सुदीप बानावती ने कहा कि सत्रह सतत विकास के लक्ष्य जिन्हे 191 देशों ने स्वीकृत किया है लेकिन सतत विकास की अनदेखी करने के चलते प्रक्रिया में ग्रोथ महज तीस फीसदी है। सस्टेनबल बिज़नेस के तीन महत्वपूर्ण स्तम्भों प्रॉफिट, पीपल और प्लेनेट की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि इनके जरिये ही आज के वैश्विक दौर में गिरते हुए बाजार की व्यवस्था को सम्भाला जा सकता है। प्रो. बानावती ने कहा कि भारतीय ज्ञान व्यवस्था विकल्प नहीं बल्कि आज के समय की मांग है।

विशिष्ट अतिथि आई. आई. एम. (शिलांग) के प्रो. संजय मुखर्जी ने कहा कि आधुनिक विज्ञान को वैदिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य से देखना जरूरी है । दरअसल वेदों के अनुवाद को सिर्फ धार्मिक क्रिया-कलापों के संबंध में ही देखा गया है । कहा कि संस्कृति के बिना मानवता के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती । प्राचीन भारतीय ज्ञान धारा को विश्व के हित में बताते हुए प्रोफेसर सिंह ने बताया कि ’वसुधैव कुटुंबकम और सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया’ की धारणा भारतीय ज्ञान को वैश्विक बनाते हैं । उन्होंने कहा कि ज्ञान का वैश्विक दृष्टिकोण ही इस प्राचीनतम सभ्यता के आज भी जीवित रहने का कारण रहा है । उन्होंने बताया कि जैविक समस्या का जैविक समाधान ही हमें समस्त समस्या से बचा सकता है. प्रश्न पूछना ही भारतीय ज्ञान परम्परा का आधार है।

दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस के उद्घाटन सत्र में अतिथियों का स्वागत करते हुए एस. एम. एस. वाराणसी के निदेशक प्रो. पी. एन. झा ने कहा कि एस.एम.एस. वाराणसी न केवल अकादमिक बल्कि समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को लेकर भी सजग है. उन्होंने महाभारत, गीता और रामायण को आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिक बताते हुए कहा कि ज्ञान प्रमुख रूप से पवित्रीकरण करने का साधन है. उन्होंने मास्लो सिद्धांत की भी चर्चा करते हुए कहा कि आज फ़ूड, शेल्टर जैसी चीजें वैश्विक स्तर पर मांग में हैं और इस मांग और विसंगति का हल प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा में निहित है.

इस अवसर पर सतत विकास लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारतीय ज्ञान व्यवस्था पर आधारित स्मारिका का भी विमोचन किया गया । उदघाटन सत्र का संचालन डॉ० भावना सिंह ने व धन्यवाद ज्ञापन प्रो० अविनाश चंद्र सुपकर ने दिया। दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस के पहले दिन तीन अलग अलग तकनीकी सत्रों का आयोजन भी हुआ जिसमें देश-विदेश से आये लगभग 200 प्रतिभागियों ने शोध-पत्र प्रस्तुत किया। इस अवसर एस०एम०एस०, वाराणसी के अधिशासी सचिव डॉ० एम० पी० सिंह, निदेशक प्रो. पी. एन. झा, कुलसचिव श्री संजय गुप्ता, कॉन्फ्रेंस के समन्वयक प्रो० अविनाश चंद्र सुपकर, प्रो० संदीप सिंह, प्रो० राजकुमार सिंह सहित समस्त अध्यापक और कर्मचारी गण उपस्थित रहे ।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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