उम्मीदों की मिट्टी होगी इज्जतें तोहफों में उगेंगी–मीलों पसरे इंतजार को चल स्त्री अब तू समेट–

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस  पर सभी बहनों और देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं बधाई–
उम्मीदों की मिट्टी होगी इज्जतें तोहफों में उगेंगी–
मीलों पसरे इंतजार को चल स्त्री अब तू समेट–
आप अगर स्त्री है तो यह बात आप हमेशा ध्यान में रखते हुए अपने जीवन को आगे लेकर चलिएगा कि पहले आप को घर को घर बनाना है अगर आप अपनी प्रतिभाऔ और योग्यता टेलेंट को एक मुकाम तक ले जाने की कोशिश में है,संतान उत्पत्ति स्त्री का पहला कर्तव्य है और यह प्रकृति का नियम भी है उसे संपूर्ण करने के साथ साथ स्त्री खुद संपूर्ण होती है और फिर संतान की परिवरिश से योग्य बनाने तक स्त्री की मुख्य भूमिका को हर हाल में निभाना ही है अब उसी व्यस्तम समय में से खुद के लिए समय निकालना आपके टेलेंट पर निर्भर करता है कि आप कितनी शारिरिक मानसिक और मेहनत कस घर से निकलने के बाद सबसे पहले अपने दिल और दिमागी विल पावर का आंकलन करना जरूरी है कि आप घर के बाद बाहर संभालने में सक्षम है या नहीं यह बहुत जरूरी है क्योंकि कि आप स्त्री हैं और समाज पुरुष यह अड़ियल सोच से हमें इतनी जल्दी स्वतंत्रता मिलने बाली नहीं है फिर चाहे स्त्री ने अब तक कितने ही बलिदान क्यों न दिए हो-इस समाज का डंस जब स्वयं राम और सीता जैसे पवित्र स्त्री-पुरुष को नहीं छोड़ा तो मानव समाज बहुत छोटी सोच है और हमें रहना और जीना भी इसी के साथ है बिना इसके किसी का जीना संभव नहीं जो जी रहे हैं या जी लिए बो लोग बहुत कमजोर और अधूरे हैं इनके अंदर मानव फीलिंग और भावनाओं का जन्म होना पर पीणा का एहसास होना ना मुमकिन है अपने मानवता की पहचान के लिए समाज में रहना उतना ही जरूरी है जितना कि आपका जन्म– खैर स्त्री अगर घर और कैरियर बखूबी संभाल सकती है तो सहयोग शक्ति और सराहना ताकत उन पुरूषों को भी बनना और देना चाहिए जो अब तक स्त्री-पुरुष को देती रही और आगे बढ़ाती रही घर से बाहर खाना से लंचबॉक्स तक स्त्री के हाथ का ही होता है तब जाकर अपनी पगार महीने में एक बार पुरुष घर में– और स्त्री घर बच्चे परिवार संभालने में 24,घंटे की ड्यूटी करती है के बाद भी आपके हम कदम साथ चल रही है तो उसे मानसिक तौर पर कमजोर करने की साजिशें नहीं साथ और सहयोग की आवश्यकता है उंगलियां उठाकर उसे तोड़ने की नहीं तब उसके अंदर इतनी पावर भी मौजूद है कि आपने अभी देखी भी नही और कोशिश भी नहीं की-नये समाज के निर्माण में उसे अब घर समाज और रिश्ते कोई आगे जाने से नहीं रोक सकता है पर इसके टूटने और इसे तोड़ने से घर समाज और मानवता जरूर टूट सकती है और वह धन मानव समाज कम मशीनरी का ज्यादा होगा जिसमें मानव फीलिंग नहीं स्त्री-स्त्री नहीं रह जाएगी एसे समाज की कल्पना मात्र करने की सोच से बचना जरूरी होगा जबकि हम स्त्री की शक्ति और सोच कामयाबी से बखूबी परिचित हो चुके हैं अब इसे जितने प्यार से सजाओगे उतना ही और अंकुरित हो उठेगी क्यों कि स्त्री प्रकृति मय सामिल है इसे बंजर बनाने की भूमिका मत बनाओ संसार क्या है नजर घुमाकर देखने की आवश्यकता है और हम अब शिक्षित हैं स्त्री-पुरुष का घर और समाज बनाए क्यों मानव समाज में अमानुषों और दुर्योधन जैसों को पनाह दी जा रही है क्यों मजहब का कत्ल धर्मों के हथियारों से काटने के लिए नहीं इसे जोड़कर भारत की भूमि पर हर रंग का गुलदस्ता सजाने की बेहद आवश्यकता है,गड़े मुर्दों में गंध के शिवाय सुगंध की कल्पना के ख्वाब छोड़कर मानव परिचय का बीज बोना जरूरी है इस धरा को बंजर करने की नहीं स्त्री हो या प्रकृति परवरिश दोनों की करनी पड़ती है–
न जमीन की कमी है न मानव की–
कमी तो चैन और अमन के बीज की है–
सुकून का पलायन एसा हुआ कि पतझड़–
के बाद पत्तों का झड़ना दोबारा जन्म हुआ ही नहीं नंगी शाखाएं हो या समाज सुकून और संस्कारों के बिना नग्नता की ओर बढ़ता ही जा रहा है फिर चाहे स्त्री हो या पुरुष स्वार्थ का हथियार मानवता का कत्ल होने से कहां रूक रहा है हम मशीन की तरह प्रोग्रेस करते जा रहे हैं लेकिन इसका भोग हमें कितनी शांति की ओर ले जा रहा है सिक्कों के ढेर पर बैठा इंसान अपनी सुरक्षा कब कर सकता है जीवन तो इसी की चाकरी में निकल रहा है रिश्तों से दूर सफर पर लेकिन हमे मात्र एहसास नहीं कि हम मानव जीवन नहीं ठीक उस कोल्हू के बैल जैसे सफर पर चलते जा रहे हैं जिसकी कोई मंजिल ही नहीं मेहनत की फसल सामने है पर आंखों पर पट्टियां है ठीक उसी मौत की कड़वी सच्चाई के परिणाम में-हम सब जानते हैं यह सब यहीं छूटना है क्योंकि कफन में जेब कहां होती है–
लेकिन कर्मा कभी पीछा नहीं छोड़ता अगर कर्म करने बाला नहीं तो उसके रिश्तों को भोगना ही है फिर चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो कभी-कभी हम कोई अपराध नहीं करते और सजा अपराधी से ज्यादा भोगनी पड़ती है आखिर एसा क्यों है कल ही हम ईश्वर से एसे पूंछ बैठे जैसे कि बो भी हमारी तरह है कि जिस सजा को हम भोग रहे हैं बो सजा है किस अपराध की जो हमने किया ही नहीं और याद भी नहीं और भोगे जा रहे हैं क्यों नहीं अपने नियम बदलता है तू इस गुमनामी की सजा देने के– हां भक्त और भगवान लड़ सकते हैं अगर आप भगवान को मानते हैं तो बो भी भक्त को मानने के लिए जरूर सुनेगा भी और समझेगा भी अपने कर्मों का लेखा जोखा आप ईश्वर की शरण में रखकर अपने स्वाभिमान की रक्षा अवश्य कर सकते हैं क्योंकि इंसान हमें चोट भी देता है और रोने भी नहीं देता है– और एसा क्या है जो खास के लिए बना है सबके लिए नहीं तो उसके लिए खास सोच होनी जरूरी है कि आप क्या चाहते हैं उसे अवश्य पाने में शक्षम होंगे लेकिन किसी की थोपी हुई पसंद नहीं बो स्वयं की होनी जरूरी है–
चिराग जलेगा तो हवाओं में फड़फड़ाता तो है–
दुआओं में जलता रहे यही काफी है–
क्योंकि अंधेरा जीवन और भविष्य को डस जाता है–
मंजिलें गर अंधेरों में गुम हैं-
तो रौशनी के लिए जलना खुद को ही पड़ेगा–
उशूलों की मंजिलें बड़ी बेरहम होती है–
शोलों की आग खजूरों की छांव नमक मे सनी उंगलियां नजरियों के तरकशी तीर नुकीले शूल और पत्थरों से गुजरना और मासूम पांवों में कफन की पट्टियां पहननी ही पड़ती हैं—

स्त्री है तो स्त्री की कहानी लिख रोना छोड़–
आंचल का दूध आंखों का पानी छोड़–
बक्त जागने का है झूठें ख्वाबों की–
नींद की कहानी छोड़–
मुद्दतें हो गई जीते जीते तुझे–
जीती तो है मगर एक बार मरने के लिए जी–
सखी मौत संग रोज रोज खेलना अब छोड़–
उम्मीदों की मिट्टी होगी इज्जतें तोहफों में उगेंगी–
मीलों पसरे इंतजार को चल स्त्री अब तू समेट–
खुद की मिट्टी खुद का बीज–
जिद्दी मेहनत पर उगने दे किरदारों के हंसते फूल-
चल स्त्री अब आगे चल आंखों के दरिया समेट–
लेखिका-पत्रकार-दीप्ति चौहान।

About The Author

निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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