न रहूं किसी का दस्तनिगर : स्वतंत्रता संग्राम के नायक कैप्टन अब्बास अली और उनका प्रेरक समाजवादी व्यक्तित्व(आलेख : कुर्बान अली)

न रहूं किसी का दस्तनिगर : स्वतंत्रता संग्राम के नायक कैप्टन अब्बास अली और उनका प्रेरक समाजवादी व्यक्तित्व
(आलेख : कुर्बान अली)

कैप्टन अब्बास अली, स्वतंत्रता संग्राम के नायक, समाजवादी नेता और आज़ाद हिंद फौज के सिपाही थे, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी बहादुरी की मिसाल कायम की। उनकी आत्मकथा “न रहूँ किसी का दस्तनिगर” उनके अदम्य साहस और समाजवादी विचारधारा को दर्शाती है। उनकी 105वीं जयंती पर उन्हें शिद्दत से याद किया जा रहा है।

उत्तर प्रदेश में सोशलिस्ट पार्टी के एक प्रमुख नेता रहे और 3 जनवरी 1920 को कलंदर गढ़ी, खुर्जा, जिला बुलंदशहर में जन्मे कप्तान अब्बास अली की प्रारम्भिक शिक्षा खुर्जा और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुई थी। 1857 में उनके ख़ानदान के एक बुज़ुर्ग आज़म अली खां को अंग्रेज़ों द्वारा बग़ावत के इल्ज़ाम में फाँसी दी गयी थी, इसलिए कैप्टन साहब बचपन से ही क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित रहे। 2009 में प्रकाशित अपनी आत्मकथा “न रहूं किसी का दस्तनिगर — मेरा सफ़रनामा” में वह लिखते हैं:

“बचपन से ही मेरा क्रांतिकारी विचारधारा के साथ संबंध रहा। 1931 में जब मैं पांचवीं जमात का छात्र था, 23 मार्च 1931 को अँगरेज़ हुकूमत ने शहीदे आज़म भगत सिंह को लाहौर में सज़ा-ए-मौत दे दी। सरदार की फांसी के तीसरे दिन इसके विरोध में मेरे शहर ख़ुरजा में एक जुलूस निकाला गया, जिसमें मैं भी शामिल हुआ। हम लोग बा-आवाज़े बुलंद गा रहे थे :

भगत सिंह तुम्हें फिर से आना पड़ेगा/ हुकूमत को जलवा दिखाना पड़ेगा/ ऐ दरिया-ए-गंगा तू खामोश हो जा/ ऐ दरिया-ए-सतलज तू स्याहपोश हो जा/ भगत सिंह तुम्हें फिर भी आना पड़ेगा/ हुकूमत को जलवा दिखाना पड़ेगा।

इस घटना के बाद मैं नौजवान भारत सभा के साथ जुड़ गया और 1936-37 में हाई स्कूल का इम्तिहान पास करने के बाद जब मैं अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिल हुआ, तो वहां मेरा सम्पर्क उस वक़्त के मशहूर कम्युनिस्ट लीडर कुंवर मुहम्मद अशरफ़ से हुआ, जो उस वक़्त ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी के सदस्य होने के साथ-साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के भी मेम्बर थे, लेकिन डॉक्टर अशरफ़, गाँधी जी की विचारधारा से सहमत नहीं थे और अक्सर कहते थे कि “ये मुल्क गाँधी के रास्ते से आज़ाद नहीं हो सकता।” उनका मानना था कि जब तक फ़ौज बग़ावत नहीं करेगी, मुल्क आज़ाद नहीं हो सकता।

डॉक्टर अशरफ़ अलीगढ़ में ‘स्टडी सर्कल’ चलाते थे और आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के भी सरपरस्त थे। उन्हीं के कहने पर मैं स्टूडेंट फेडरेशन का मेंबर बना और वामपंथी विचारधारा से जुड़ा। उसी समय हमारे ज़िले बुलंदशहर में सूबाई असेम्बली का एक उपचुनाव हुआ। उस चुनाव के दौरान मैं डॉक्टर अशरफ़ के साथ रहा और कई जगह चुनाव सभाओं को सम्बोधित किया। उसी मौक़े पर कांग्रेस के आल इंडिया सद्र जवाहरलाल नेहरु भी ख़ुरजा तशरीफ़ लाए और उन्हें पहली बार नज़दीक से देखने और सुनने का मौक़ा मिला। इसके एक साल पहले ही यानी 1936 में लखनऊ में ‘स्टूडेंट फेडरेशन’ क़ायम हुआ था और पंडित नेहरु ने इसका उदघाटन किया था, जबकि मुस्लिम लीग के नेता क़ायदे-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना ने स्टूडेंट फेडरेशन के स्थापना सम्मेलन की सदारत की थी। 1940 में स्टूडेंट फेडरेशन में पहली बार विभाजन हुआ और नागपुर में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद गांधीवादी समाजवादियों ने ‘आल इंडिया स्टूडेंट कांग्रेस’ के नाम से एक अलग संगठन बना लिया, जो बाद में कई धड़ों में विभाजित हुआ।”

अपने गुरु डॉक्टर अशरफ़ की सलाह और तरबियत पर कैप्टन साहब 1939 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट करने के बाद दूसरे द्वितीय विश्व युद्ध (1939-45) के दौरान जूनियर कमीशन अधिकारी (जेसीओ) के रूप में 1939 में ब्रिटिश सेना (आरआईएएससी) में शामिल हो गए। उनके गुरु प्रो. के.एम. अशरफ़ का मानना था कि गांधीवादी अहिंसा के माध्यम से इस देश को अंग्रेज़ी हुकूमत से मुक्त नहीं कराया जा सकता। इसके लिए उनका सुझाव था कि बड़ी संख्या में भारतीय युवाओं को ब्रिटिश सेना में भर्ती हो जाना चाहिए तथा अंदर से विद्रोह कर देना चाहिए।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कैप्टन अब्बास अली रॉयल इंडियन आर्मी सप्लाई कॉर्प्स (आरआईएएससी) से जुड़े और ऑफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल (बैंगलोर), आरआईएएससी डिपो, फिरोजपुर (पंजाब), वजीरिस्तान एनडब्ल्यूएफपी, नौशेरा एनडब्ल्यूएफपी (अब पाकिस्तान), खानपुर कैंप (दिल्ली), बरेली कैंट (संयुक्त प्रांत), भिवंडी आर्मी ट्रेनिंग कैंप (महाराष्ट्र), सिंगापुर, इपोह, पेनांग, कुआलालंपुर (मलाया अब मलेशिया) और अराकान, रंगून (अब यांगून-बर्मा-म्यांमार) में तैनात रहे।

1943 में जब जापानी सेना ने दक्षिण-पूर्व एशिया में ब्रिटिश सेना पर हमला किया, तो ब्रिटिश सेना का हिस्सा होने के नाते, कैप्टन अब्बास अली ने जापानी सेना के साथ लड़ाई लड़ी, लेकिन जब जापानियों द्वारा दो प्रमुख ब्रिटिश युद्ध जहाजों “प्रिंस ऑफ़ वेल्स” और “रिप्पल्स” को नेस्त-नाबूद कर दिया गया, तो एक लाख से ज़्यादा बर्तानवी फ़ौज ने जनरल पर्सिवल के नेतृत्व में जापानी फ़ौज के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।

कैप्टिन अब्बास अली भी बर्तानवी फ़ौज के साथ जापानियों द्वारा युद्ध बंदी बना लिए गए। इस कैद के दौरान ही वे जनरल मोहन सिंह द्वारा स्थापित आज़ाद हिन्द फ़ौज (आईएनए) में शामिल हो गए। 1945 में, जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर पहुंचे और उन्होंने आज़ाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया, तो कैप्टन अब्बास अली ने उनके मिशन “दिल्ली चलो” में सक्रिय रूप से भाग लिया।

जब नेताजी ने रंगून में अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फर की क़ब्र पर अपनी आज़ाद हिंद फ़ौज को संबोधित किया और ‘आर्डर ऑफ़ द डे’ दिया, तो कैप्टिन अब्बास अली वहां मौजूद थे। बाद में उन्होंने अराकान में अपनी भारतीय सेना के साथ लड़ाई लड़ी, लेकिन जब जापानियों ने ‘अलाइज़’ यानि मित्र देशों की सेनाओं के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, तो कैप्टिन साहब भी अपनी आज़ाद हिन्द फ़ौज(आईएनए) के 43 हज़ार सेनानियों के साथ क़ैद कर लिए गए।

आईएनए के तीन नायकों यानि कर्नल ढिल्लों, सहगल और शाहनवाज को लाल किले में रखा गया और वहां उन पर मुक़दमा चलाया गया, जबकि कैप्टिन अब्बास अली को उनके तीन सहयोगियों के साथ मुल्तान के किले में रखा गया। उन पर मुक़दमा चलाया गया, अपनी फ़ौज से बग़ावत करने के इलज़ाम में कोर्ट मार्शल किया गया और 1946 में उन्हें मौत की सजा सुना दी गई। चूंकि 3 सितंबर 1946 को पंडित जवाहर लाल नेहरू अंतरिम प्रधान मंत्री बन गए थे और भारत को आज़ादी मिलने का ऐलान हो गया था, इसलिए उन्हें भारत सरकार द्वारा रिहा कर दिया गया।

अपनी रिहाई के बाद, कैप्टन अब्बास अली खुश नहीं थे। हालांकि उनकी ज़िंदगी का मिशन उनके जीवनकाल में पूरा हो गया था और 1947 में देश को अंग्रेजों से आज़ादी मिल गई थी, लेकिन वे बहुत दुखी थे, क्योंकि आज़ाद भारत की नई सरकार ने उनके साथ अच्छा सुलूक नहीं किया था।

कैप्टन अब्बास अली आज़ादी मिलने के बाद आज़ाद भारत की सेना में शामिल होने की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल करिअप्पा, जो खुद अपने ब्रिटिश आकाओं के प्रति वफादार रहे थे, ने घोषणा की कि वे ब्रिटिश भारतीय सेना के पूर्व सैनिकों को, जो आज़ाद हिन्द फ़ौज के सिपाही थे और अपने देश को आज़ादी दिलाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाकर लड़े, उन्हें भारत की नई सेना में नहीं ले सकते, क्योंकि वे ‘अनुशासित सैनिक’ नहीं रहे थे और फ़ौज से बग़ावत कर चुके थे। अफ़सोसनाक बात तो यह है कि उनके इस आदेश को तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भी मंजूरी दे दी।

आईएनए के तबाह हुए सैनिकों को कोई मुआवज़ा भी नहीं दिया गया और सत्तर के दशक के आखिर तक केंद्र सरकार द्वारा उन्हें स्वतंत्रता सेनानी के रूप में मान्यता भी नहीं दी गई। यही कारण था कि सच्चे राष्ट्रवादी कैप्टन अब्बास अली ने केंद्र सरकार से कभी भी कोई सम्मान, कोई भत्ता या पुरस्कार नहीं लिया। उन्होंने कभी भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को मिलने वाली पेंशन के लिए आवेदन भी नहीं किया, क्योंकि उनका मानना था कि स्वतंत्र भारत की सरकार का यह कर्तव्य था कि वह उन स्वतंत्रता सेनानियों की सेवाओं को मान्यता दे और उन्हें उचित पुरस्कार दे, जो अपने देश की आज़ादी के लिए लड़े, लेकिन इसके विपरीत उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया।

विभाजन और पाकिस्तान बनने के बाद कैप्टन साहब के परिवार के ज़्यादातर सदस्य पाकिस्तान चले गए, लेकिन उन्होंने और उनके पिता ने यहीं रहने और अपनी मातृभूमि की सेवा करने का फ़ैसला किया, क्यूंकि उनका मानना कि हिंदुस्तानी होने के अलावा उनकी कोई दूसरी नागरिकता नहीं हो सकती। वह यहीं पैदा हुए और यहीं मरेंगे।

1948 में कैप्टन अब्बास अली आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए और 1977 में जनता पार्टी में विलय होने तक उसकी सभी समाजवादी धाराओं अर्थात् सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े रहे। वे 1956 में सोशलिस्ट पार्टी बुलंदशहर के जिला सचिव, 1960-66 तक सोशलिस्ट पार्टी की राज्य कार्यकारिणी के सदस्य और 1966-67 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) की उत्तर प्रदेश इकाई के महासचिव बनाये गए।1973-74 में जब प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का विलय कर दोबारा सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया गया, तो वह राज्य इकाई के महासचिव चुने गए और 1974-77 के दौरान सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और इसके संसदीय बोर्ड के सदस्य रहे।

कैप्टन अब्बास अली 1966-1967 में, जब संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) के राज्य सचिव थे, तो उन्होंने उत्तर प्रदेश में पहली ग़ैर-कांग्रेसी संयुक्त विधायक दल (एसवीडी) सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसका नेतृत्व दिवंगत चौधरी चरण सिंह ने किया और जो 1979 में भारत के प्रधानमंत्री बने। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि 1966 के विधान सभा चुनावों के दौरान उन्होंने 26 वर्षीय युवा मुलायम सिंह यादव को अपनी क़लम से जसवंतनगर विधान सभा से संसोपा का उम्मीदवार बनाया और वह पहली बार विधायक बने। बाद में वह तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।

वे स्वयं 1960 में पहली बार सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर विधान परिषद् का चुनाव लड़े और मात्र चौथाई वोट से चुनाव हार गए। 1967 में जब उन्होंने उत्तर प्रदेश में पहली ग़ैर-कांग्रेसी संयुक्त विधायक दल (एसवीडी) सरकार का निर्माण किया, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी उस समय राज्य सभा की सदस्य थीं और उसी आम चुनाव में रायबरेली से लोक सभा के लिए चुनी गई थीं। उनकी ख़ाली हुई राज्य सभा की सीट पर हुए उपचुनाव के लिए संयुक्त विधायक दल द्वारा कैप्टन साहब को अपना संयुक्त उम्मीदवार बनाया गया, लेकिन सत्ता पक्ष के प्रत्याशी होने के बावजूद वह भीतरघात के कारण मात्र 12 वोटों से राज्य सभा का चुनाव हार गए।

कैप्टन अब्बास अली ने समाजवादी आंदोलन (1948-74) के दौरान विभिन्न सिविल नाफ़रमानी आंदोलनों में 50 से अधिक बार भाग लिया और उन्हें गिरफ्तार किया गया। (1975-77) के कुख्यात आपातकाल के दौरान उन्हें बुलंदशहर, बरेली, आगरा और नैनी (इलाहाबाद) की विभिन्न जेलों में डीआईआर और मीसा के तहत 19 महीने तक कैद रखा गया।1977 में जब आपातकाल हटा लिया गया और जनता पार्टी सत्ता में आई, तो वे जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के पहले अध्यक्ष बनाये गए। 1978 में वे छह साल के लिए यूपी विधान परिषद के लिए चुने गए।

समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता, पूर्व केंद्रीय मंत्री और राज्य सभा सदस्य रामजीलाल सुमन का कहना है कि “जब 1978 में जनता पार्टी के तत्कालीन मुख्यमंत्री रामनरेश यादव को अविश्वास मत के ज़रिये हटाया गया, तो तत्कालीन प्रतिरक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम ने जनता संसदीय बोर्ड में कैप्टन अब्बास अली को मुख्यमंत्री बनाये जाने की पैरवी की थी, लेकिन कैप्टन साहब ने विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया।”

अपने निधन से कुछ दिन पूर्व कैप्टन साहब ने देशवासियों के नाम अपने आख़िरी संदेश में कहा :

प्यारे दोस्तों!

बचपन से ही अपने इस अज़ीम मुल्क को आज़ाद और खुशहाल देखने की तमन्ना थी, जिसमें ज़ात-बिरादरी, मज़हब और ज़बान या रंग के नाम पर किसी तरह का शोषण न हो, जहाँ हर हिन्दुस्तानी सर ऊंचा करके चल सके, जहाँ अमीर-गरीब के नाम पर कोई भेदभाव न हो। हमारा पांच हज़ार साला इतिहास ज़ात और मज़हब के नाम पर शोषण का इतिहास रहा है। अपनी जिंदगी में अपनी आँखों के सामने अपने इस अज़ीम मुल्क को आज़ाद होते हुए देखने की ख्वाहिश तो पूरी हो गई, लेकिन अब भी समाज में ग़ैरबराबरी, भ्रष्टाचार, ज़ुल्म, ज़्यादती और फ़िरक़ापरस्ती का जो नासूर फैला हुआ है, उसे देख कर बेहद तकलीफ़ होती है। दोस्तो, उम्र के इस पड़ाव पर हम तो चिराग-सहरी (सुबह का दिया) हैं, न जाने कब बुझ जाएँ! लेकिन आप से और आने वाली नस्लों से यही गुज़ारिश और उम्मीद है कि सच्चाई और ईमानदारी का जो रास्ता हमने अपने बुज़ुर्गों से सीखा, उसकी मशाल अब तुम्हारे हाथों में है, इस मशाल को कभी बुझने मत देना। इन्क़िलाब ज़िंदाबाद! (कैप्टन अब्बास अली की आत्मकथा)।

कैप्टन साहब छह साल तक यूपी सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड के सदस्य रहे। 2009 में उनकी आत्मकथा “न रहूं किसी का दस्तनिगर” राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गयी। 94 वर्ष की उम्र तक वह अलीगढ़, बुलंदशहर और दिल्ली में होने वाले जन-आन्दोलनोँ में शिरकत करते रहे और अपनी पुरजोर आवाज़ से युवा पीढ़ी को प्रेरणा देने का काम किया। 11 अक्टूबर 2014 को अलीगढ़ में संक्षिप्त बीमारी के बाद 94 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया।

कैप्टन अब्बास अली ने इमरजेंसी के दौरान वर्ष 1976 में हल्दीघाटी युद्ध की 400 वीं वर्षगांठ और आज़ाद हिंद फ़ौज की 30 वीं वर्षगांठ पर लंबे लेख लिखे।पी

(क़ुरबान अली, पिछले 44 वर्षों से पत्रकारिता कर रहे हैं। वे साप्ताहिक ‘रविवार’ ‘सन्डे ऑब्ज़र्वर’ बीबीसी, दूरदर्शन न्यूज़, राज्य सभा टीवी से संबद्ध रह चुके हैं और इन दिनों समाजवादी आंदोलन का इतिहास (1934-1977) लिखने में व्यस्त हैं।)

About The Author

निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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