गतांत से भी पीछे भोले
बटेश्वर के भरकों में इतिहास छिपा है
शंकर देव तिवारी
बटेश्वर।कहते हैं आगरा में ताज बढ़ते प्रदूषण के कारण सुरक्षित नहीं है। आदमी तक गिन कर मून लाइट वाले दिन प्रवेश कराए जाते हैं सुप्रीम आदेश पर। एक सीमा तक ही वाहन आ जा सजते हैं। फिर ताज महोत्सव के नाम पर इस सीमा को लाँघ कैसे आयोजित कराया जाता है का कोई उत्तर इस सरकारमें मस्ती काटने वाले आला अधिकारोयॉं के पास है।
कहने को तो ताज महोत्सव जिले का कार्य क्रम है मगर इसमें शहर के लोगों के अलावा कोई आकृषण नहीं दिखता। बताते हैं आगरा जिले का आदि काल से वार्षिक महोत्सवों का केंद्र मुगल कालों से ही बटेश्वर रहा था। मगर जिसे धीरे धीरे समाप्त कर ताज महोत्सव के नाम पर खत्म कर राम भरोसे छोड़ दिया गया। उत्तर भारत का प्रसिद्ध लक्खी मेला अब केवल आयोजक जिला पंचायत और उसके कर्म चारियों के लिए कामधेनु बन कर रह गया है।
उत्तर भारत का ये प्रसिद्ध लक्खी मैला सोनपुर के मेले से कम्पेय्यर किया जाता था। बटेश्वर की रौनक सौं नपुर में व्योपारी तलासते थे। तब मेले में जिले के शैक्षणिक, कृषि, और अन्य विभागों की प्रदर्शनी आदि विभिन्न आयोजनों के साथ लगती और होती थी। जिलाधिकारी आयोजन सचिव होते थे। जिला परिषद अद्धयक्ष आद्धयक्षहोते थे। मेला वाय लाज होता था जिस पर अमल होता था। किसान को भले ही 19,88तक मैला क्षेत्र के खेतों की खड़ी फसल का मुआवजा उचित नहीं मिला मगर यहाँ मुंसिफ तक मेला काल में लगती थी। तहसील बाह की नजारत भी यहीं से संचालित होती थी।
मेला से आयोजक को सालाना आय थी। जिसमे पशु विक्री की लिखाई से सबसे बड़ी आय थी और आज भी है। इसके अलावा मेला में आने वाले व्योपारी दुकानदार व अन्य से भी किराया भी बसूला जाता था जो आज भी लिया जाता है ।
रोडवेज तक से ये मैला टैक्स बसूलते आए ;हैं। ट्रांस पोर्ट से भी अच्छे पैसे मिलते हैं।
सीबी गुप्ता और अखिलेसग यादव तक। मुख्य मंत्री तक ने अपना समय यहाँ जाया किया है मगर आज के हालात ये हैं कि एक परफॉर्मा के तहत ही लगातार अथित बनते आ रहे है। मेले की आय से मुख्य मन्दिर ट्रस्ट को दिया जाने वाला प्रतिशत का कोई आता पता नहीं है। जिसे पहले विवादित बताके टालते रहे और अब ट्रस्ट को दिए जाने की बात की जाती हैजो गले नहीं उतरती। मेला बजट सार्वजनिक किया जाता था वो भी नहीं पता नही कब से बंद हुआ । उल्टे अब तो राज्य सरकार से बजट आ रहा है इस बार भी सवा करोड़ आ:या बताया गया है। इस बार अभी तक कोई आय व्यय का विवरण नहीं आया है।
101मन्दिर में से अब केवल44ही रह गए हैं। और मेला का रूप क्षेत्रीय रह गया है भोले ही अब अदभुत कुछ करें तभी बटेश्वर को अपना पुराना रूप मिल पाए। परा सम्पदा से यहाँ लगातार छेद छाड़ ही रही है। जो अधिकारी तेनात् है वह आता ही नहीं कागजों पर बटेश्वर का संरक्षण हो रहा है। नंदी बाहर भक्त द्वार बंद होने की व्यवस्था से आहत पुजारियों की जगह वेतन भोगी ट्रस्ट के लोग इस वाराणसी के दूसरे रूप को कितना बचा सकने में सफल है ये यहाँ के लोग तो नहीं स्वयम भोले भी नहीं बता पा रहे हैं।
अगर सरकार और विरासत देने वाले वास्तव में बटेश्वर का उत्थान चाहते हैं तो शोरी पुर बटेश्वर को लेकर पुरातत्व विभाग के साथ मिलकर प्लान करना होगा। भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी के1975में धर्म युग के छपे उस लेख को साकार उतारा जा सकेगाजिसमें उन्होंने बटेश्वर महिमा का उल्केख् किया था । जिसका शीर्षक था बटेश्वर के भरकों में इतिहास छिपा है।
वर्तमान आयोजक की मुखिया से यही अपेक्षा वो भदोरियों के इस पुण्य स्थल को उसको अपना पुराना आयाम दिवायेंगी। जय भोले की।