ठंडे वदन को ढकने आते हैं–अपने पंखों की चादर से–देश विदेशों से परिंदों के झुंड–

यूपी-एटा-
जलेसर-पटना विहार पक्षी में–
जहां ठहरी है झीलों की एक रानी झील–
जिसकी अद्भुत अपनी पहचान है–
सर्द श्रितु में लगता है बारिश कुंभ सा मेला–
इसके ठंडे वदन को ढकने आते हैं–
अपने पंखों की चादर से–
देश विदेशों से परिंदों के झुंड–
भिन्न भिन्न प्रजाति के रंगीन पंखों से–
पर गुमनाम है,क्यों कि जब हम खुदकी आवाज सुनने में अक्षम है फिर परिंदों की मूंक बोली कौन सुनेगा–
एटा-कहने को तो बहुत छोटा जिला शहर एटा है,पर इसकी कोख से जन्मा इतिहास बहुत बड़ा है–
जिस पर स्वार्थ की धूल मुद्दतों से पटती आ रही है जिन पीढ़ियों में यह जन्मा शायद बो भी इसकी धूल को नहीं पौंछ पाईं और अब तो कई पीढ़ियों ने जन्म और ले लिया जो इसे जानती तक नहीं,
विडंबना है कि जग जाहिर हुआ भी तो अपराध के नाम पर- आश्चर्यजनक है कि यहां के कई ऐतिहासिक चीजें और स्थलों पर कभी किसी की नजर नहीं गई साहित्य के नाम पर प्रसिद्ध तुलसी स्थल हो या अमीर खुसरो, रंग,जो पुरानी किताबों में सिमट कर रह गये जिनकी पहचान विश्व पटल की तस्वीर में दिखनी चाहिए थी जो बताने से जानी जाती है–

क्या पौछेगे बो हाथ अलमारियों में रखी–
किताबों की धूल को–
जिन हाथों ने पन्ने फाड़कर खुद को–
इतिहास समझ लिया हो–

उद्योग, और श्रद्धा,का संगम,पक्षियों की बो प्रेमिका झील जिसमें हर साल कुंभ की तरह सर्दियों के साथ साथ देश और विदेशों से भिन्न भिन्न प्रजातियों के पक्षी जो सर्द श्रितु में अपने-अपने पंखों से झील को रंगीन चादर की तरह ढक लेते हैं आकर परिंदों का यह बार्शिक पर्व इंसानों के कुंभ मेले से कम नहीं होता है अद्भुत प्रेम है इस झील में जो सदियों से शुरू हुआ तो बढ़ता ही गया पर आजतक खत्म नहीं हुआ झुंडों में आते परिंदों का मिलन इस झील का बारिश पर्व वाकई बे मिसाल है–
पीतल की कलाकृतियां घुंघरू घंटे और मूर्तियां इत्यादि यहां की एतिहासिक रूप में जानी जाती है पर प्रोग्रेस के पंख बिना कभी शहर से बाहर की उड़ान ही नहीं भर सका–
श्रद्धा और यहां की बो मनोकामना के लिए जानी जाने बाली शिवलिंग जो बाहों में भर कर खुद की उंगलियों को टच करके शिव जी से मनोकामना की मन्नतें मांगी जाती है–
तीन-तीन राजाओं का इतिहास आज अपनी पहचान खोने लगा–
और भी बहुत कुछ है जो गुमनामी में सिमट कर रह गया-आगे बढ़ा तो बस यहां का अपराध,जालसाजी, नशाखोरी,बालश्रम,महिला चीरहरण,पर जिम्मेदार कौन है इन हालातों का कलम,पब्लिक,सिस्टम,अरे सीधी-सादी बात है कि जब तक बच्चा भूंख से मां को रोकर आवाज नहीं देता तब-तक मां भी मासूम की भूंख से अनभिज्ञ रहती है,और हम धेर्य से स्वार्थ को रामराज्य बनाते जा रहे हैं इसके परिणाम आज खुल कर हमारे सामने है बजती कुर्सियां भाषा का चीर हरण भाईचारे की हत्या बहन बेटियों की आबरू और जिंदगी और सबसे बड़ी दुखद उपज है कि देख कर कुछ नहीं देखा अंधा नजरिया है और बदनाम नजर हो रही है, परिणाम पहले घर टूटा,फिर समाज,अब देश, पर हासिल क्या हो रहा है या होगा,आदमी खुद मैं सिमट कर पत्थर की मूर्ति के समान रह गया न भाव,न भावना,न मानवता,न संस्कार, न सभ्यता,यह सब तब कर रहे हैं हम जबकि जानते हैं जिसके लिए हम वह सब गंवाते जा रहे हैं बो है तो पर यही तक अंत में सफर दोनों हाथ खाली और बड़ा हल्का ही होना है, सवालों की डायरी ईश्वर के हाथों में होगी और जबाव हमारे कर्म होंगे तब–
बस यहां छोड़ने बाला सबसे बड़ा धन हमारा व्यवहार है जो अमर हो जाता है, खैर हम बात पुनः फिर दोहराते हैं विकास और प्रोग्रेस की जहां पब्लिक से ज्यादा तो बो हाथ है जो इतिहास को जिंदा रखकर अपने इलाके और पूर्वजों,श्रद्धा को अपने कर्म की पहचान से खुद को इतिहास में सामिल कर सकते थे,और जनहित उसके अधिकारों को सुरक्षित रखकर राजनीति को राजनीति–नाकि बदनाम-राजनीति महज एक कुर्सी ही नहीं है देश समाज और जनहित सुरक्षा सुविधा से लेकर हमारी माई बाप होती है यह जहां भी रहे पर इसके रिस्ते का नामकरण स्वार्थ नहीं होना चाहिए।
पर आज हमने इतनी दीवारें बो दी हैं–
कि हमें अपने ही घर का दरवाजा,और रास्ता, नजर नहीं आता है।
लेखिका-पत्रकार-दीप्ति चौहान।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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