महिलाएं और लड़कियां इस कला में पारंगत होती राष्ट्रीय फलक पर जब इस कला को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलते देखा

हमारे भोजपुरिया इलाके में बेरुआ और खर से दऊरी, मऊनी, सिनोहरा, सिकौती बनाया जाता है घर की महिलाएं और लड़कियां इस कला में पारंगत होती राष्ट्रीय फलक पर जब इस कला को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलते देखा तब समझ में आया कि भोजपुरिया इलाके में यह कलाकारों के भीतर ही कैद होकर रह गई जबकि दूसरे क्षेत्र के लोगों ने इसे बड़े मंचों पर भजाने में कोई कसर नहीं छोड़ा। उत्तर बिहार में एक विशेष प्रकार का जंगली घास होता है जिसे मुज कहते हैं। गर्मी के दिनों में इसी मूज के बीच से निकलता है बेरुआ। जो सिक्की कला में इस्तेमाल होता है रंग-बिरंगे रंगों से रंग कर इसे सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है बाद में इसका इस्तेमाल विभिन्न प्रकार के वस्तुओं के निर्माण में होता है। इससे रस्सी भी तैयार की जाती है किसी भी शुभ कार्य में जो रस्सी इस्तेमाल होती है वह मूंज की ही होती है। बेटी के विवाह में मड़वा का निर्माण भी इसी के रस्सी से होता है।एक समय था जब बेटी की विदाई के समय एक विशेष प्रकार के खर (घास) से बनी मौनी, पौती, सजी, पंखा सहित अन्य उपहार को दिए जाने की परंपरा थी। नदियों और तालाबों के किनारे उगने वाली इस सुनहरी घास से बिहार – विशेषकर उतर बिहार व मिथिलांचल – की महिलाएं अपने कुशल हाथों से रंग बिरंगी मौनी, पौती, झप्पा, गुलमा, सजी, टोकरी, आभूषण, खिलौना, पंखा, चटाई सहित घर में सजावट वाली कई प्रकार की वस्तुओं बुन लेती थीं। बिहार की यह लोक कला सिक्की कला के नाम से जानी जाती है। भोजपुरिया इलाके में भी यह कला काफी विकसित और समृद्ध रही तभी तो यहां के लोक गीतों में इसकी चर्चा मिलती हैं हम त खेलत रहनी सुपली मौनिया इसकी बानगी है। मिथिलांचल में सिक्की कला को पेटेंट करा लिया गया भोजपुरी के इलाके को छोड़ दिया गया जबकि जितनी लोकप्रिय और समृद्ध यह मिथिलांचल के इलाके में रही उससे थोड़ा भी कम भोजपुरिया इलाके खासकर छपरा सीवान गोपालगंज मोतिहारी बेतिया में नही थी।बस इसको उचित मान सम्मान नहीं मिल पाया।

अनूप

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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