
नई दिल्ली।
भारतीय मीडिया फाउंडेशन की ओर से जारी बयान में पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं के उत्पीड़न के मामले को गंभीरता से लेते हुए यह अत्यंत खेद का विषय है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बदनाम करने का कुचक्र प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा चलाया जा रहा है। यह कृत्य न केवल निंदनीय है, अपितु लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के भी विपरीत है। ऐसी गतिविधियों पर तत्काल रोक लगाई जाए।
उत्पीड़न पर सरकारों की चुप्पी: एक गंभीर प्रश्न
यह प्रश्न विचारणीय है कि उत्तर प्रदेश सहित देश के सभी राज्यों की सरकारें और केंद्र सरकार पत्रकारों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं के उत्पीड़न पर मौन क्यों हैं?
इस निष्क्रियता का क्या कारण है? क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक परोक्ष हमला नहीं है? लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ पर हो रहे प्रहारों पर सरकारों की उदासीनता अत्यंत चिंताजनक है।
मीडिया से घृणा क्यों?
इंटरनेशनल मीडिया आर्मी के प्रमुख एवं भारतीय मीडिया फाउंडेशन के संस्थापक एके बिंदुसार द्वारा लगाए गए आरोप अत्यंत गंभीर हैं। उनका यह कथन कि “लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया से इतना नफरत क्यों है,” हमें आत्मचिंतन के लिए विवश करता है। क्या सत्ता के गलियारों में बैठे कुछ लोगों को सच का सामना करने से भय लगता है?
यह समय है कि सभी संबंधित प्राधिकारी इस गंभीर विषय पर संज्ञान लें। लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को स्वतंत्र रूप से कार्य करने का वातावरण प्रदान किया जाए। उनके उत्पीड़न पर सरकारों की चुप्पी न केवल अलोकतांत्रिक है, अपितु संवैधानिक मूल्यों का भी अपमान है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि एक मजबूत मीडिया और सक्रिय नागरिक समाज ही एक स्वस्थ लोकतंत्र की नींव होते हैं। इस दमनकारी प्रवृत्ति को समाप्त करना अनिवार्य है ताकि संवैधानिक मूल्यों की रक्षा हो सके और लोकतंत्र का सम्मान बना रहे।