
ये जूते परंपरा और शिल्प का बेजोड़ नमूना हैं। इन जूतों को स्थानीय बोली में ‘जुट्टे’ बोलते हैं। ऐसे जूते स्थानीय कारिगरों द्वारा बनाए जाते थे जो स्थानीय चमड़े का उपयोग करके बनाए जाते थे। इन जूतों के तलवे पर लोहे के नाल लगाए जाते थे जो इन्हें टिकाऊ और फिसलने से बचाते थे। इनका तला (sole) भी चमड़े की कई सतहों को लोहे की स्थानीय निर्मित कीलों के द्वारा जोड़कर बनाया जाता था। चमड़े की सिलाई भी चमड़े से ही बनाई गई पतली पट्टियों (strips) से की जाती थी। बाहर की तरफ भी लोहे की सपाट टोपी वाली कीलें लगाई जाती थीं ताकि ठोकर व रगड़न से जूतों को नुक्सान न हो। कहने का अर्थ है कि ऐसे जूते दशकों तक चलने के लिए बनाए जाते थे। इन्हें मुख्यतः पुहाल (गड़रिए) पहनते थे जिन्हें बहुत अधिक चलना होता था। इन जूतों को पॉलिश नहीं होता था अपितु इन्हें स्थानीय कोल्हू से प्राप्त सरसों के तेल की पिराई के बाद छानने उपरांत जो अवशेष बचता था (स्थानीय भाषा में थिड्डी) उसमें डुबाकर रखा जाता था जिससे ये नर्म रहते थे तथा खराब नहीं होते थे। औद्योगीकरण ने इस कला को लुप्त कर दिया है तथा स्थानीय लोगों को बेरोजगार तथा कुछ चन्द लोगों को बहुत अमीर कर दिया है।