
प्राचीन समय के कांपिल्य नगर में यज्ञदत्त नाम का एक धर्मात्मा रहता था। वह वेद-शास्त्रों का ज्ञाता और भगवान शिव का अनन्य भक्त था। नियमित रूप से संध्या-वंदन, यज्ञ, जप और शिव पूजन करना उसके जीवन के अंग थे। उसका कोई दिन बिना शिवलिंग पूजा किए पूर्ण नहीं होता था। यज्ञदत्त के पुत्र का नाम गुणनिधि था, लेकिन वह अपने नाम के विपरीत स्वभाव का था। जैसे-जैसे वह बड़ा हुआ, उसमें दुर्गुण बढ़ते चले गए। वह पापकर्मों में लिप्त रहने लगा। पिता के समझाने पर भी उसने वह मार्ग नहीं छोड़ा। एक दिन यज्ञदत्त ने दुखी होकर कहा, ‘गुणनिधि ! तू मेरे कुल का नाश करेगा। अब से तू मेरा पुत्र नहीं।’ गुणनिधि घर छोड़कर चला गया। वह भूखा-प्यासा भटकता रहा। एक रात वह एक शिव मंदिर पहुंचा। मंदिर में नैवेद्य रखा था। भूख से व्याकुल गुणनिधि ने उसे चुराने का निश्चय किया, किंतु अंधेरे में उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। उसने अपनी धोती का एक कोना फाड़कर उसे जलाकर दीपक बना लिया। प्रकाश में शिवलिंग चमक उठा। फिर गुणनिधि नैवेद्य चुराकर भागने लगा, पर पुजारी ने उसे पकड़कर राजा के सामने प्रस्तुत कर दिया। गुणनिधि को मृत्युदंड दिया गया। यमदूत उसकी आत्मा को लेने के लिए आए, तो भगवान शिव के गण प्रकट हुए और बोले, ‘यह व्यक्ति, यद्यपि पापी था, परंतु इसने शिवलिंग के सामने दीप जलाया है। यह अब शिवलोक का अधिकारी है।’ है।’ शिवगणों के सामने परास्त होकर यमदूत लौट गए। गुणनिधि की आत्मा को शिवलोक ले जाया गया। दम युवा हुआ, तो उसके पिता स्वर्ग सिधार गए और वह राज्य का अधिपति बना.. राजा बनकर भी उसने शिवभक्ति को ही अपना धर्म बना लिया। राजा दम ने एक आदेश जारी किया, ‘मेरे राज्य में जितने भी गांव हैं, वहां के प्रत्येक शिवालय में प्रतिदिन दीप जलाया जाए। यह सभी ग्रामवासियों के लिए अनिवार्य होगा।’ प्रजा भी राजा की भक्ति से प्रेरित हुई और सभी शिवालय दीपों से जगमगाने लगे। राजा दम ने इसी कार्य को अपने जीवन का परम धर्म माना। दम की धर्मनिष्ठा इतनी प्रबल थी कि अगले जन्म में उसे अलकापुरी का स्वामी और धन का देवता कुबेर बनने का सौभाग्य मिला। धनेश्वर कुबेर ने पूर्वजन्म की स्मृति के कारण भगवान शिव की तपस्या का संकल्प लिया। वह काशी गए और उन्होंने दस हजार वर्षों तक भगवान शिव की कठोर तपस्या की। उनका शरीर सूखकर हड्डियों का ढांचा रह गया। तब भगवान शिव, माता पार्वती के साथ कुबेर के समक्ष प्रकट हुए। शिव ने प्रेमपूर्वक कुबेर से कहा, ‘वत्स! तुमने कठोर तप किया है। जो चाहो, वर मांगो।’ कुबेर ने नेत्र खोले, लेकिन शिव के तेज से उसकी दृष्टि धुंधली हो गई। उसने कहा, ‘प्रभो! मुझे दृष्टि दें, जिससे मैं आपके चरणों के दर्शन कर सकूं।’ शिव ने करुणा करके कुबेर को दृष्टि प्रदान कर दी। शिव से दिव्य दृष्टि मिलने पर कुबेर ने जैसे ही देवी पार्वती को देखा, तो उनका अनुपम सौंदर्य देखकर वह एकटक देखता रह गया। पार्वती जी के तेज पर निरंतर दृष्टि डालने से कुबेर की एक आंख पीली पड़ गई और वह बड़बड़ाने लगा। पार्वती ने शिव जी से कहा, ‘स्वामी! यह कुबेर क्या बड़बड़ा रहा है?’ शिव मुस्कराकर बोले, ‘उमे! यह तुम्हारा पुत्र है। यह तुम्हारा गुणगान कर रहा है।’ फिर शिव ने कुबेर से कहा, ‘वत्स ! तुम यक्षों, किन्नरों और निधियों के स्वामी बनो। मेरी मैत्री तुम्हारे साथ रहेगी। देवी पार्वती को प्रणाम करो। ये तुम्हारी माता हैं।’ पार्वती ने भी कहा, ‘मेरी रूप-संपदा को निरंतर देखने के कारण तुम्हारी एक आंख पीली हो गई है, इसलिए तुम्हारा एक नाम ‘पिंगलाक्ष’ होगा।