कहानी घाटे की बड़ा बाबूओ की असफलताओं का ठीकरा फूटा जनता के सिर

वाह रे उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन


लखनऊ —- उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड में अवैध रूप से विराजमान महाज्ञानी भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की अनुभवहीनता के कारण पावर कॉरपोरेशन आज एक लाख दस हजार करोड़ के घाटे में पहुंचा दिया गया है राज्य विद्युत परिषद के विघटन के समय जो घाटा 77.47 करोड़ था आज इन महाज्ञानी अनुभवहीन भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के अनुभवहीन कुप्रबंधन व अकुशल मार्गदर्शन ,तानाशाही ,निरंकुशता और भ्रष्टाचार के कारण आज उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन इस बडे घाटे में पहुंच गया है और अब इस मौके का फायदा उठाने के लिए बड़का बाबुओं ने निजीकरण का खेल खेलना शुरू किया क्योंकि जिस कुर्सी पर किसी अनुभवी अभियंता को बैठना चाहिए था उस पर यह बड़का बाबू सरकार में अपने प्रभाव का प्रयोग कर राजनेताओं को गुमराह कर इन उच्च पदों पर बैठ जाते हैं फिर अपने भ्रष्टाचार को मनमाने तरीकों से कर अपना मुंह चांदी के जूते से सुजवाते हैं और पेट भर जाने पर उस विभाग को घाटे में पहुंचा कर फिर उसे बेच कर निकल जाते हैं ऐसे बहुत से उदाहरण पूरे देश में मिल जाएंगे अब प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है
इसका उदाहरण निजीकरण के लिए कन्सलटेंट की नियुक्ति इनका ताजा तरीन मामला हैएक कम्पनी जिसके ऊपर जानकारी छिपाने और जालसाजी का आरोप साबित हो चुका है उसको विभाग की सारी जानकारी प्रदान की जा रही है
अब पाठकों को इनके पहले किये गये अनुभवहीन बड़का बाबुओं के काले कारनामे पाठकों के समक्ष रखते है कि किस तरह से यह महाज्ञानी उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन को घाटे में ढकेलते जा रहे हैं पाठकों आपको तो पता ही है कि बिजली कम्पनियां हजारों करोड़ रुपए खर्च कर के पूरे प्रदेश में स्मार्ट मीटर लगवा रही है और पूरे प्रदेश की बिजली गुल कर के तार व खम्बे भी बदलाव कर रही हैं निविदा में उल्लेखित शर्तो के अनुसार यह दोनों काम को एक निश्चित अवधि में पूरा करने थे क्योंकि यह कार्य करने के लिए केन्द्र सरकार ने सशर्त धनराशि प्रदान की थी जिसमें यह स्पष्ट उल्लेख था कि समयानुसार कार्य पूरा होना है अथवा यह धनराशि अनुदान की जगह ऋण में परिवर्तित हो जाएगी परन्तु वह अवधि बीते हुए एक लम्बा समय हो चुका है लेकिन काम पूरा ही नहीं हो रहा है जो हजारों करोड़ केन्द्र सरकार द्वारा अनुदान मिलना था तो ऋण में बदल गया क्योंकि काम समय से पूरा ही नहीं हुआ क्योंकि जो निविदाओं में शर्तें लिखी जानी थी वो इन बड़का बाबूओ की चहेतों के अनुरूप नहीं थी बार बार बदलाव होने के कारण निविदा देर से प्रकाशित हुई।‌
अब इसकी गहराई में जाकर कर और विष्लेषण करते हैं तो सर्वप्रथम कोई भी कार्य करने व निविदा निकालने से पूर्व विभाग द्वारा एक सर्वेक्षण कराया जाता है जिसमें सभी परिस्थितियों का आकलन किया जाता है उसके बाद एक रपट तैयार कर के भेजी जाती है इस सर्वेक्षण को कराने के लिए भी एक एजेंसी की निविदा निकाली जाती है और वह सर्वेक्षण कर अपनी रपट विभाग को देती है वैसे हकीकत यह है कि यह सर्वेक्षण का काम यही विभागीय कर्मचारी कर के रपट बना कर उस एजेंसी को भेज देते हैं और वह एजेंसी उस रिपोर्ट के आधार पर एक रिपोर्ट बना कर विभाग को भेज कर अपना पैसा ले कर चली जाती है इस एजेंसी को थर्ड पार्टी कहते हैं फिर यही थर्ड पार्टी निविदा में किए गए कामों की गुणवत्ता जांचती है और फिर से अपनी जेब भरती है जब कि यह काम विभागीय कर्मचारियों द्वारा बिना किसी खर्च के किया जा सकता था और गलत रपट जमा करने पर कार्यवाही भी की जा सकती थी ऐसा नहीं है कि विभाग में ऐसे कामों के लिए अधिकारी नहीं है बल्कि हर वितरण निगम में क्वालिटी सेल नामक एक विशेष अनुभाग इसी काम के लिए बनाया गया है अब हम फिर से निविदाओं की बात करते हैं पाठकों की जानकारी को बता दें कि निविदाएं भी कई तरह की होती है परन्तु बड़का बाबुओं को तो टर्नकी वाली निविदाओं में ही फायदा है टर्नकी वाली में सारा समान व सारी जिम्मेदारी निविदा पाने वाली संस्था की होती है यानि कि जांच करने वाले भी इनके इनके चाटुकार यानी फिर वही कहानी बड़का बाबुओं के इशारे पर दोहराई जाती हैं।
इस तरह इनके चाटुकारों द्वारा अपने साथ साथ बड़का बाबू की जेब भी गर्म की जाती है और मलाईदार पदों की बोली लगा कर बडका बाबू अपनी मुंह चांदी के जूते से सूजवाते हैं इसका एक ताजा तरीन उदाहरण है कि सिविल यानि कि जानपद में चार मुख्य अभियंता है और चारों शक्ति भवन में अलग-अलग जगहों पर संबद्ध है और उनकी मूल कुर्सी मुख्य अभियंता जानपद की डिस्कामो में खाली पड़ी है उनको अधीक्षण अभियंता संभाल रहे हैं और तो और एक अभियंता शक्ति भवन में ऐसे हैं जिनके पास एक अधिशासी अभियंता दो अधीक्षण अभियंता व एक मुख्य अभियंता का कार्यभार एक विशेष प्रयोजन के अन्तर्गत प्रदान किया गया है इस जिम्मेदारी के कारण उनके सर के बाल भी गायब हो गये है तो पाठक अब खुद ही समझ सकते हैं कि दाल में कुछ काला नहीं बल्कि पूरी दाल ही काली है
अब पाठक को समझाने की जरूरत नहीं है कि किस तरह से अनुदान को ऋण में कैसे बदला गया और कैसे विभाग को घाटे में पहुंचाया गया और क्या है उसकी कहानी । खैर *युद्ध अभी शेष है*

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

यह खबर /लेख मेरे ( निशाकांत शर्मा ) द्वारा प्रकाशित किया गया है इस खबर के सम्बंधित किसी भी वाद - विवाद के लिए में खुद जिम्मेदार होंगा

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