यह कैसा चौथा स्तंभ है ? जो ख़ुद अपने पैरो पर नहीं सरकारी विज्ञापन की बैशाखी पर खड़ा है……

राघवेंद्र के साथ जो हुआ बेहद दुःखद है……
न्याय मिले दोषियों को इसी सजा मिले की कोई दूसरा साहस न कर सके…..
कुछ सवाल है जिनपर सरकार विपक्ष और समाज को विचार करना चाहिए :
एक पत्रकार की जिंदगी इसी तरह होती है……
विपक्ष गोदी मीडिया कहता है…..
सूचना विभाग उनकी मदद करता है जो मान्यता प्राप्त होते हैं…..
दूसरे अखबार पत्रकार के सुख दुःख की खबर छापते ही नहीं….
अपना अखबार भी नहीं छापता की यह पर्सनल है…..
राघवेंद्र के साथ जो हुआ उसमें कम से कम दैनिक जागरण साथ आया है…..
बहुत सारे ऐसे पत्रकार हैं जो रोज़ जोखिम से गुज़रते हैं……
सरकार मान्यता प्राप्त परकारों तक ही सीमित है सूचना विभाग की सारी योजनाएं उनके लिए है
बाकी पत्रकारो की सुध लेने वाला कोई नहीं
पत्रकारों में एकता नहीं है जिससे वो अपनी लड़ाई नहीं लड़ पाते……कुछ बड़े पत्रकार ही छोटे को फर्जी बताने लगते हैं…… सरकार मीडिया संस्थानों को विज्ञापन देती है जिससे वो दबाव में रहते हैं और अपने लोगो की पीड़ा को नहीं बता पाते…..
एकता से सरकार डरती है इसलिए उसने पत्रकारो को गुटों में बाट दिया…..आज एक वकील के पीछे पूरी बिरादरी खड़ी हो जाती हैं और पत्रकार अकेले ही अपनी लड़ाई लड़ता है……