बापू का यह फैसला आपको चौंका देगा-बापू ने क्‍यों लिए स‍िंंध‍ि‍या से 25 लाख रुपये?

गोरखपुर: चौरी चौरा विद्रोह की बरसी पर महुआ डाबर संग्रहालय द्वारा सेंट एंड्रयूज पीजी कॉलेज, गोरखपुर में एक दुर्लभ दस्तावेजों की प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इस ऐतिहासिक प्रदर्शनी में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े अनेक प्रमाणिक दस्तावेज, ऐतिहासिक तस्वीरें और अदालती रिपोर्टें प्रस्तुत की गईं। महुआ डाबर संग्रहालय के महानिदेशक डॉ. शाह आलम राना जो भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के गहरे शोधकर्ता हैं और इस क्षेत्र में दो दशक से अधिक समय से उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं।

डॉ. शाह आलम राना ने इस अवसर पर एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज प्रस्तुत किया, जिसने असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी से जुड़े एक महत्वपूर्ण और अज्ञात पहलू को उजागर किया। उन्होंने बताया कि महुआ डाबर संग्रहालय में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े दुर्लभ दस्तावेज संरक्षित हैं। इसी दौरान मध्य प्रदेश के भिंड जनपद के सरकारी गजेटियर (1996) के पृष्ठ संख्या 29 के दूसरे और तीसरे अनुच्छेद में एक ऐसा उल्लेख मिला, जिसने उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया।

डॉ. राना ने बताया कि 8 फरवरी 1921 को गोरखपुर में महात्मा गांधी ने एक विशाल सभा को संबोधित किया था। यह असहयोग आंदोलन की चरम अवस्था थी और नेशनल वॉलंटियर्स का मजबूत नेटवर्क पूरे देश में बन चुका था। यह संगठन न केवल जनता को स्वतंत्रता संग्राम में जोड़ रहा था, बल्कि कांग्रेस फंड के लिए अनाज और धनराशि भी एकत्र कर रहा था। इस दौरान महात्मा गांधी की लोकप्रियता चरम पर थी और देशभर में उनके समर्थन में नारे गूंज रहे थे।

1922 में महात्मा गांधी ने ग्वालियर जाने का निर्णय लिया, लेकिन इस यात्रा के पीछे राजनीतिक उथल-पुथल बढ़ गई। ग्वालियर के महाराजा माधवराव सिंधिया, जो ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठावान थे, ने इस संभावित विद्रोह से बचने के लिए अपने गृहमंत्री देवास महाराजा सदाशिवराव पवार के माध्यम से महात्मा गांधी को पच्चीस लाख रुपये की एक पेटी कांग्रेस फंड के लिए भेजी। साथ ही, उन्होंने महात्मा गांधी को यह भी स्पष्ट कर दिया कि अगर उन्होंने ग्वालियर का दौरा किया, तो ब्रिटिश सरकार के कोप का सामना करना पड़ेगा। इस पर विचार करते हुए महात्मा गांधी ने अपना ग्वालियर दौरा स्थगित कर दिया।

इस ऐतिहासिक घटना का उल्लेख डी. आर. मानकेकर की पुस्तक “एक्सेशन टू एक्सटिंक्शन – द स्टोरी ऑफ इंडियन प्रिंसेज़” के पृष्ठ संख्या 37 पर भी मिलता है। जब महुआ डाबर संग्रहालय में इस दस्तावेज की खोज की गई, तो यह पूरी कहानी उसमें दर्ज मिली। डॉ. शाह आलम राना के अनुसार, यह दस्तावेज स्वतंत्रता संग्राम के राजनीतिक परिदृश्य में गहरे निहित प्रभावों को दर्शाता है और यह स्पष्ट करता है कि कैसे भारतीय शासकों को ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखने के लिए कठोर फैसले लेने पड़ते थे।

डॉ. राना ने इस तथ्य की तुलना 1925 के काकोरी ट्रेन एक्शन से की, जब पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश खजाने से मात्र चार हजार छह सौ उन्यासी रुपये दो आने दो पैसे लूटे थे, जिसके कारण चार क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गई। वहीं, इसके तीन साल पहले ग्वालियर के महाराजा द्वारा महात्मा गांधी को कांग्रेस फंड के लिए पच्चीस लाख रुपये की भारी-भरकम राशि दी गई थी, जो आज भी इतिहास के पन्नों में कम चर्चित है।

प्रदर्शनी में चौरी चौरा विद्रोह से जुड़े अनेक अन्य दुर्लभ दस्तावेज भी प्रदर्शित किए गए, जिनमें चौरी चौरा विद्रोह से जुड़े सरकारी टेलीग्राम, ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा खींची गई दुर्लभ तस्वीरें, गोरखपुर सत्र न्यायालय के फैसले, फांसी पाए स्वतंत्रता सेनानियों की दया याचिकाएं, और अखबारों में प्रकाशित रिपोर्टें शामिल थीं। इन दस्तावेजों ने न केवल चौरी चौरा घटना की ऐतिहासिकता को प्रमाणित किया, बल्कि इस घटना के सामाजिक और राजनीतिक प्रभावों को भी स्पष्ट किया।

डॉ. शाह आलम राना के अनुसार, महुआ डाबर संग्रहालय का उद्देश्य इन ऐतिहासिक दस्तावेजों को संरक्षित करना और नई पीढ़ी को उनके क्रांतिकारी इतिहास से परिचित कराना है। उन्होंने बताया कि उनका परिवार 1857 के महुआ डाबर क्रांतिकारी आंदोलन के महानायक जफर अली के वंशजों में से है, जिन्होंने कंपनी राज के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया था। महुआ डाबर की पांच हजार की आबादी को अंग्रेजों ने जमींदोज कर दिया था, लेकिन जफर अली और उनके क्रांतिकारी साथियों ने बारह वर्षों तक देश-विदेश में सूफी फकीर के रूप में रहकर आजादी के आंदोलन को संगठित कर अपना सर्वोच्च बलिदान दिया।

डॉ. शाह आलम राना ने चंबल के बीहड़ों को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और वहां क्रांतिकारी धरोहरों की खोज और संरक्षण का कार्य कर रहे हैं। उनकी यह प्रदर्शनी केवल चौरी चौरा विद्रोह ही नहीं, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के गहरे और अनछुए पहलुओं को उजागर करने का माध्यम बनी। इस प्रदर्शनी में शोधकर्ताओं, इतिहास प्रेमियों और विद्यार्थियों की बड़ी संख्या में भागीदारी देखी गई, जिन्होंने इन ऐतिहासिक दस्तावेजों से महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त कीं।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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