
*भोजन के समय जल कब और कैसे पीना चाहिए ?-२* *जलपात्र बाएं हाथ से पकडकर उठाना तथा उसे दाएं हाथ की उलटी हथेली का नीचे से आधार देकर जल पीने से होनेवाले लाभ* भोजन के मध्य जल पीते समय बाएं हाथ से जलपात्र उठाकर उस पात्र को, दाएं हाथ की उलटी हथेली से (हथेली नीचे की दिशा में कर) नीचे से आधार दिया जाता है । इस मुद्रा में दाएं हाथ की उंगलियां अधोदिशा से भूमि की ओर होती हैं । भूमि की दिशा से जलपात्र पर कष्टदायक स्पंदनों के आक्रमण होते हैं । दाएं हाथ की उंगलियों से आवश्यकता के अनुरूप उपयुक्त पंचतत्त्वों की तरंगें प्रक्षेपित होती हैं । इन तरंगों के माध्यम से वे आक्रमण लौटाए जाते हैं । अर्थात, जल पीने का कृत्य रजतम के संसर्ग से मुक्त हो जाता है । *ग्रीवा (गरदन) उठाकर जल न पीनेका कारण* ग्रीवा उठाकर मुख से कुछ अंतर पर लोटा पकडकर जल न पीएं; क्योंकि लोटे का अग्रभाग संकीर्ण तथा वह नीचे के भाग की अपेक्षा वायुमंडल के संपर्क में अधिक होता है । इसलिए लोटा उलटा कर कुछ झुकाकर पीने से मुख से उत्सर्जित रज-तमात्मक वायु लोटे के अग्रभाग पर दूषित वायु का वातावरण निर्मित करती है । इस वातावरण के स्पर्श से ही मुख में जल की धार पडने पर, उसके आघात से मुखविवर में विद्यमान अन्य त्याज्य वायु जागृत होकर उस जल में मिश्रित होती हैं और ऐसा दूषित जल पेट में जाता है । *पात्र को मुख लगाकर जल पीना उपयुक्त क्यों है ?* एक स्थान पर बैठकर पात्र को मुख लगाकर जल पीने से मुखविवर का संपर्क बाह्य वायुमंडल से नहीं; अपितु केवल पात्र की रिक्ति में विद्यमान जल से ही होता है । इस कारण दैवीगुणसंपन्न तीर्थरूपी जल के स्पर्श से मुखविवर में विद्यमान त्याज्य रज-तमात्मक वायु उसी स्थान पर नष्ट हो जाती हैं । तदुपरांत जल मुख से अंदर जाते समय वह अपनी शांत एवं निर्गुण धार की सहायता से देह की रिक्तियों का भी शुद्धिकरण करता जाता है । इस पद्धति से जल पीते समय संपूर्ण देह की शुद्धि होती है ।’ *जल पीते समय ध्वनि (आवाज) न करने का कारण* ‘जल पीते समय ‘गट् ऽ गट् ऽ’, ऐसी ध्वनि होने से इस कष्टदायक ना दकी ओर वायुमंडल की कष्टदायक तरंगें आकृष्ट होती हैं, जिससे जल पीने की संपूर्ण प्रक्रिया ही देह में रज-तमात्मक तरंगें संक्रमित करती है ।’ *संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘भोजनके समय एवं उसके उपरांतके आचार’* *आगे…* *बने रहिए रोज जीवन के कुछ अनमोल सूत्र, सनातन के अनमोल वचन आप तक पहुँचाये जाएंगे* *हरि ॐ*