लोकतंत्र में सच्ची जीत लोक से होती है

लोकतंत्र में सच्ची जीत लोक से होती है, तंत्र से नहीं। जिस जीत के पीछे छल होता, वो दिखावटी जीत एक छलावा होती है, जो सबसे ज़्यादा उसीको छलती है, जिसने छल करके जीत का नाटक रचा है। ऐसी जीत जीतनेवालों को कमज़ोर करती है। नैतिक रूप से उनके ज़मीर को मार देती है। बिना ज़मीर के जीने वाले अंदर से खोखले होते हैं। ऐसे लोग सबके सामने अपने को ताक़तवर दिखाने की कोशिश करते हैं लेकिन अकेले में आइने में अपना मुँह देखने से भी डरते हैं।

भाजपा का हारने का डर तो उसी दिन साबित हो गया था, जिस दिन उसने PDA के अधिकारियों-कर्मचारियों को चुनाव से हटा दिया था। जिससे इनके अपने लोग वहाँ सेट किए जा सकें और धांधली की गवाही देनेवाला कोई न हो। हमने तो भाजपा की बदनीयत को समझकर तब ही विरोध किया था, लेकिन जब शासन-प्रशासन ही दुशासन बन जाए तो लोकतंत्र के चीर हरण को कौन रोक सकता है।

जिनकी उँगलियों पर निशान नहीं हैं, उनके भी वोट डाले गये हैं। चुनाव आयोग अपने दस्तावेज़ों में देखे कि जिनका नाम दर्ज है वो बूथ तक पहुँचे भी या नहीं। सब दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा।

अगर EVM की कोई फ़ोरेंसिक जाँच संभव हो तो बटन दबाने के पैटर्न से ही पता चल जाएगा कि एक ही उँगली से कितनी बार बटन दबाया गया।

ये नये ज़माने की ‘इलेक्ट्रॉनिक बूथ कैप्चरिंग’ का मामला है। जो चंडीगढ़ मेयर चुनाव में कोर्ट की निगरानी में होने वाली मतगणना में कैमरे के सामने हेराफेरी कर सकते हैं, वो अपने लोगों के बीच बूथ के बंद कमरे में क्या नहीं कर सकते। अगर PDA के अधिकारी-कर्मचारी बदलकर धांधली न की होती तो भाजपा एक भी सीट के लिए तरस जाती, जैसे कि लोकसभा चुनाव में हुआ था। जब ऐसी व्यवस्था मिल्कीपुर में नहीं हो पाई तो वहाँ का चुनाव ही टाल दिया।

एक देश तब एक लोकतांत्रिक क्रांति की ओर बढ़ने लगता है जब उसे कहीं से भी इंसाफ़ की उम्मीद दिखाई नहीं देती।

महँगाई, बेरोज़गारी-बेकारी और चुनावी धांधली से आक्रोशित समाज एक सीमा तक ही सहता है।

इतनी सी बात तो अनपढ़ भी समझता है कि पेट की आग कभी भी उसको नहीं जिता सकती जिसने रोटी छीनी हो, रोज़गार छीना हो।

भाजपा ने रोज़ी-रोटी, मान-सम्मान, सौहार्द, भाईचारा सब छीन लिया है।

भाजपा संविधान से लेकर आरक्षण तक सबको ख़त्म करने पर उतारू है, ऐसे में भला उसे वोट कौन देगा।

चुनाव के दिन जब निहत्थों पर बंदूक तानी गयी तो भाजपा की कमज़ोरी सारी दुनिया के सामने आ गयी। एक साहसी महिला ने जिस समय अपना वोट देने के अधिकार का काग़ज़ बंदूक के सामने तान दिया था, भाजपा उसी समय हमेशा के लिए हार गयी थी। लोकतंत्र में ऐसा तमाचा आज तक किसी ने नहीं मारा, जिसकी गूँज भाजपाइयों को रात में सोने नहीं देगी। सत्ता की भूख ने तो भाजपा को पहले ही बीमार बना दिया था अब तो वो सो भी नहीं पायेगी। हमें तो भाजपा के लोगों पर अब तरस आता है, लेकिन जनता कह रही है ये वो लोग नहीं है जिन पर तरस किया जाए।

भाजपा सोच रही है कि इन परिणामों से पीडीए हताश होगा तो वो गलत सोच रही है। अन्याय और उत्पीड़न लोगों तो तोड़ता नहीं जोड़ता है।हमने पहले भी कहा है आज फिर कह रहे हैं… सदियों से पीडीए समाज का जो उत्पीड़न और अपमान प्रभुत्ववादियों ने किया है, उसका दर्द पीडीए ही समझ सकता है। पीडीए दर्द का रिश्ता है। यही दर्द पीडीए को लगातार जोड़ रहा है, ये एकता ही भाजपा की चिंता का सबसे बड़ा विषय है।

भाजपा की बुनियाद हिल चुकी है। एक बार सोच के देखिए, भाजपा को भला वोट कौन दे रहा है…

क्या वो ग़रीब जो महँगाई का मारा है
या
वो पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक या आदिवासी जिसका भाजपा राज में लगातार शोषण हो रहा, जिसका आरक्षण मारा जा रहा है
या
वो किसान जिसको खाद नहीं मिल, या जिसकी फसल छुट्टा पशु खा जा रहे हैं या जिसको फ़सल की क़ीमत नहीं मिल रही या
वो मज़दूर जिसे बेकारी के कारण मज़दूरी नहीं मिल रही
या
वो दुकानदार जो मंदी का मारा है
या
वो कारोबारी-व्यापारी जो भ्रष्ट जीएसटी और भाजपाई चंदे-की रसीद कटवानेवालों से परेशान है
या
वो महिला जो युनिवर्सिटी कैंपस तक में सुरक्षित नहीं हैं
या
वो सरकारी कर्मचारी जिनके ऊपर भ्रष्टाचार करने का दबाव है या जिनकी पुरानी पेंशन तक छीन ली गयी है।
या
वो पत्रकार जिनको निर्वस्त्र करके पीटा जा रहा है
या
वो बेरोज़गार युवा जो नौकरी के लिए धरने पर बैठे थे… चाहे 69000 शिक्षक भर्ती का मामला हो या पुलिस भर्ती या अग्निवीर भर्ती का या जज की परीक्षा में कापी बदलने या पेपर लीक या रद्द होने का या कोर्ट में रिज़ल्ट फँस जाने का… इन सब बातों से लाखों निराश युवा और उनके हताश परिवार के करोड़ों लोग सब ही तो विरोध में है।

सच तो ये है कि भाजपा को 5% लोग भी वोट नहीं दे रहे हैं। इनकी जीत में वोट की कोई भूमिका है ही नहीं। ये तंत्र की हेराफेरी से जीतनेवाले लोग हैं।

संभल में जो कुछ हुआ है वो जानबूझकर करवाया गया है, जिससे चुनावी धाँधलियों पर की जा रही चर्चा और इस तरह की प्रेस वार्ता से ध्यान भटकाया जा सके।

निंदनीय!

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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