
प्रवीण चौहान
राष्ट्रीय महासचिव,
ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन
संपादक,
समकालीन चौथी दुनिया दिल्ली
8126499653, 9811078164
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ग्रामीण पत्रकारिता देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक ऐसा माध्यम है जो राष्ट्रीय विमर्श में, नीति निर्धारण में, बेहतर समाज निर्माण में एक अग्रणीय भूमिका निभा सकता है लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में पत्रकारिता पर मानो संकट के बदल छा गए हैं । एक और जहां पत्रकारिता को बिकाऊ मीडिया, गोदी मीडिया, भड़काऊ मीडिया, पतित मीडिया और न जाने कितने नामों से अलंकृत किया जा रहा है और इसकी जद में खासतौर पर बड़े छोटे सभी मीडिया घराने आ चुके है वहीं कुछ वास्तव में पत्रकारिता करने वाले पत्रकार अपने यूट्यूब चैनल के माध्यम से पत्रकारिता के कुछ मूल्य जिंदा रखने की कोशिश जरूर कर रहे है। ऐसे में ग्रामीण पत्रकारिता की जिम्मेदारी कही ज्यादा बढ़ जाती है क्योंकि पत्रकारिता का उद्देश्य केवल सूचना देना नहीं, बल्कि समाज को शिक्षित करना, जनमत तैयार करना और सत्ता को उत्तरदायी बनाना भी है। जब हम इस भूमिका को ग्रामीण भारत के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं, तो यह ज़िम्मेदारी एक व्यापक रूप ले लेती है। भारत की लगभग 65 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में निवास करती है, जहाँ विकास, नीति और शासन के प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से महसूस किए जाते हैं। ऐसे में ग्रामीण पत्रकारिता का दायित्व सिर्फ समाचारों की रिपोर्टिंग भर नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना में जागरूकता, पारदर्शिता और परिवर्तन का वाहक बनना भी है। यही नहीं इसी 65 फीसदी आबादी से ही क्रांति की चिंगारी निकलती है, सत्ता परिवर्तन की बयार चलती है आंदोलन खड़े किए जाते है, लोकतंत्र का आधार कायम रखा जाता है। बेशक बाद में ग्रामीण पत्रकारिता के माध्यम से उठाए गए बिंदुओं को बड़े मीडिया घराने हाईजैक कर ले लेकिन मूल में ग्रामीण पत्रकारिता ही होती है।
हालांकि यह ही कहा जाएगा कि ग्रामीण पत्रकारिता का क्षेत्र आज भी उपेक्षा, संसाधनहीनता और खतरे के बीच संघर्ष कर रहा है। ग्रामीण पत्रकारों के लिए खबर जुटाना सिर्फ एक पेशेवर कार्य नहीं, बल्कि व्यक्तिगत साहस और प्रतिबद्धता का प्रमाण होता है। शहरी पत्रकारिता जहाँ बेहतर तकनीक, सुविधाजनक परिवेश और संस्थागत संरक्षण से सुसज्जित है, वहीं ग्रामीण पत्रकार अपने सीमित संसाधनों, सामाजिक दबावों और अनेक बार जानलेवा परिस्थितियों के बीच कार्य करते हैं।
ग्रामीण पत्रकारिता को अनेक जटिल और बहुस्तरीय चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जो इसे एक अत्यंत कठिन एवं जोखिमपूर्ण क्षेत्र बनाती हैं।
अधिकतर ग्रामीण पत्रकार स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं, जिनके पास रिपोर्टिंग के लिए आवश्यक उपकरण जैसे स्मार्टफोन, रिकॉर्डर, कैमरा, इंटरनेट, या यहाँ तक कि स्थायी परिवहन सुविधा भी नहीं होती। कई बार उन्हें एक खबर के लिए गाँव-गाँव भटकना पड़ता है, और उसकी लागत वह स्वयं वहन करते हैं। ऐसे में गुणवत्तापूर्ण रिपोर्टिंग कर पाना उनके लिए एक निरंतर संघर्ष बन जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थानों की कमी है, जिससे अधिकतर पत्रकार अनुभव के आधार पर ही कार्य करते हैं। पत्रकारिता की नैतिकता, तथ्य-जांच की प्रक्रिया, डेटा आधारित रिपोर्टिंग और डिजिटल साक्षरता की कमी रिपोर्टिंग की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। यही नहीं गाँवों में सत्ता के केंद्र आमतौर पर जातीय या राजनीतिक समीकरणों के अधीन होते हैं। जब कोई पत्रकार इन सरोकारों को चुनौती देता है, तो उसे अक्सर धमकियों, बहिष्कार या शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। हाल के वर्षों में कई मामलों में ग्रामीण पत्रकारों को अपनी रिपोर्टिंग के कारण जान तक गंवानी पड़ी है।
इन सब के बावजूद मीडिया की मुख्यधारा में ग्रामीण मुद्दों की उपेक्षा अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अखबारों व चैनलों में गाँवों की खबरें अक्सर हाशिए पर डाल दी जाती हैं, जब तक कि वह खबर किसी राजनीतिक एजेंडे या आपदा से जुड़ी न हो। इससे ग्रामीण पत्रकारों का मनोबल टूटता है, और उनकी मेहनत को व्यापक मंच नहीं मिल पाता।
इन तमाम चुनौतियों के बावजूद ग्रामीण पत्रकारिता की प्रासंगिकता और संभावनाएँ बहुत विशाल हैं। आज जब डिजिटल माध्यमों की पहुँच गाँव-गाँव तक हो चुकी है, तब मोबाइल पत्रकारिता और सोशल मीडिया ग्रामीण पत्रकारों के लिए क्रांतिकारी उपकरण बन सकते हैं। यदि ग्रामीण पत्रकारों को मंच मिले, तो ये राष्ट्रीय विमर्श को भी दिशा दे सकती है। परंतु इन संभावनाओं को साकार करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाने आवश्यक हैं।
स्थानीय स्तर पर पत्रकारिता प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना की जानी चाहिए, जो ग्रामीण पत्रकारों को तकनीकी, विधिक एवं नैतिक प्रशिक्षण प्रदान कर सकें। सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों द्वारा ग्रामीण पत्रकारों के लिए वित्तीय सहायता एवं बीमा योजनाएँ चलाई जानी चाहिएं, जिससे उनका मनोबल और सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। पत्रकार संगठनों और नागरिक समाज को भी आगे आकर ग्रामीण पत्रकारों के लिए समर्थन तंत्र खड़ा करना होगा, जहाँ वे कानूनी सहायता, नेटवर्किंग, मानसिक स्वास्थ्य और संवाद के अवसर प्राप्त कर सकें।
बेशक ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन इस दिशा में न सिर्फ ऐसे पत्रकारों की आवाज बुलंद कर रही है बल्कि अपने प्रयासों द्वारा कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां भी हासिल की है, मसलन उत्तर प्रदेश सरकार ने इसकी महत्ता को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक जिले की स्थाई समिति में इस संगठन के जिला प्रमुख को पदेन सदस्य का दर्ज प्रदान किया है, जिले के अलावा तहसील स्तर पर पत्रकारों को भी मान्यता प्रदान करने का प्राविधान किया गया है। संगठन का प्रयास है कि ये नियम देश के प्रत्येक राज्यों में लागू किए जाए।
कुल मिलाकर हम कह सकते है कि ग्रामीण पत्रकारिता एक नितांत आवश्यक लेकिन उपेक्षित क्षेत्र है, जो भारत के विशाल ग्रामीण समाज की सच्चाइयों को स्वर देने का कार्य करती है। वह उन वर्गों की आवाज़ है जो अक्सर राजनीतिक विमर्श, नीति निर्माण और शहरी मीडिया की चकाचौंध में दबा दिए जाते हैं। यदि हम एक उत्तरदायी, पारदर्शी और समावेशी लोकतंत्र की आकांक्षा रखते हैं, तो ग्रामीण पत्रकारिता को सशक्त करना, उसका संरचनात्मक विकास करना और उसे सम्मानजनक स्थिति प्रदान करना न केवल हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है, बल्कि हमारी लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता का भी प्रमाण होगा। ग्रामीण पत्रकार न केवल खबरों के वाहक हैं, बल्कि वह बदलाव के अग्रदूत हैं — और जब तक उन्हें वह मंच, सुरक्षा और संसाधन नहीं मिलते, तब तक लोकतंत्र अधूरा रहेगा।