जातीय विषमता को दूर किए बिना समृद्धिशाली राष्ट्र की नहीं की जा सकती कल्पना: राजू आर्य

जातीय विषमता को दूर किए बिना समृद्धिशाली राष्ट्र की नहीं की जा सकती कल्पना: राजू आर्य
बोले आज भी दलित व पिछडे़ वर्ग के लोगों के साथ किया जाता है सौतेला व्यवहार
एटा। राष्ट्रीय दलित एवं पिछड़ा वर्ग के युवा प्रदेश अध्यक्ष रंजीत कुमार उर्फ राजू आर्य ने देश की जाति-व्यवस्था को लेकर बड़ा हमला बोला है। उन्होंने कहा कि जातीय विषमता को दूर किए बिना समृद्धिशाली राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। आज दलित व पिछड़े वर्ग के लोगों के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है।
श्री आर्य ने 21वीं शताब्दी में देश में हो रही जातीय हिंसा की घटनाओं की कड़ी निंदा की। उन्होंने कहा कि आधुनिक युग की बात करने वाले लोग ऐसी घटनाओं पर चुप्पी साधे रखते हैं, आखिर ऐसी अभिशापित जाति-व्यवस्था के चलते कैसे देश विश्व गुरु बन सकता है अगर देश को विश्व गुरु बनाना है तो सबसे पहले देश में हो रही जातीय हिंसा के खिलाफ सभी को एकजुट होकर इसके खिलाफ आवाज उठानी होगी। अगर ऐसा नहीं कर सकते तो विश्व गुरु बनने की बात करने वाले सिर्फ देश को मूर्ख बना रहे हैं।
आगे आर्य ने कहा कि भारतीय समाज, विशेषकर हिंदुओं में जाति के प्रश्न बहुत पुराने हैं। अनेक विद्वानों ने जाति को भारतीय समाज का कलंक माना है। जातीय उत्पीड़न के शिकार समाज के दो-तिहाई से अधिक लोग, निरंतर इसकी जकड़ से बाहर आने को छटपटाते रहे हैं। परंतु रुचि और योग्यता के अनुसार रोजगार न चुन पाने की विवशता, अर्थव्यवस्था का सामंती स्वरूप तथा बौद्धिक दासता की मनःस्थिति, उन्हें बार-बार कथित ऊंची जातियों का वर्चस्व स्वीकारने को बाध्य करती रही है। भारतीय हिंदू समाज में जाति-विधान इतना ज्यादा प्रभावशाली है कि सिख, इस्लाम और ईसाई धर्म, जिनमें जाति के लिए सिद्धांततः कोई स्थान नहीं है दृ इसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं।
दरअसल, वर्ण-व्यवस्था धूर्त्त दिमागों की उपज है। संख्याबल में कई गुना अधिक होने के बावजूद शेष बहुसंख्यक छोटी-छोटी जातियों में बंटकर अपनी प्रभावी शक्ति खो देता है। इन जातियों में स्वहितों की स्पर्धा बहुत होती है। परिणामस्वरूप उनकी शक्तियां एक-दूसरे से टकराकर जाया होती रहती हैं। चूंकि उत्पादन के संसाधनों पर अधिकांश अभिजन वर्ग का कब्ज़ा होता है, इसलिए रोजी-रोटी की मजबूरियां भी गैर-अभिजन समाज को अभिजनों का आदेश मानने के लिए बाध्य करती हैं। धर्म और संस्कृति उसमें मददगार बनते हैं। अतः इस प्रश्न के उत्तर में कि जाति को विरोधों के बीच डटे रहने की खुराक कहां से मिलती है, या चौतरफा आलोचनाओं के बावजूद वह जीवित क्यों है, विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है दृ धर्म और संस्कृति से।
आर्य ने कहा कि जाति को सामाजिक असमानता एवं अंतर्द्वंद्वों का कारण मानते हुए विवेकानंद, दयानंद आदि ने भी उसकी आलोचना की। लेकिन उनकी दृष्टि में पेंच थी। वे मानते थे कि समानता का भाव हो, लेकिन वर्ण-व्यवस्था बनी रहे। वे चाहते थे कि कथित ऊंची जातियां अपने से निम्न जातियों के प्रति करुणा-भाव लाएं। ऊंच-नीच की भावना को मन से निकाल फैंकें। जाति-उन्मूलन का मसला उनके लिए शीर्षस्थ जातियों की अनुकंपा पर टिका, ऐच्छिक प्रश्न था। च्ट्रस्टीशिपज् के सहारे गांधी जी ने जमींदारों और पूंजीपतियों से अपने संपत्ति अधिकार समाज के नाम कर देने का राग अलापा था। जाति हिंदू धर्म की मानस रचना है। उसका पूरा कारोबार धर्म के सहारे चलता है। हिंदू धर्म मजबूत, तो जाति मजबूत। धर्म कमजोर तो जाति-बंधन कमजोर।
हालांकि आज भी ऐसे कूपमंडूक बड़ी संख्या में हैं जो जाति को हिंदू धर्म की विशिष्ट उपलब्धि मानकर उसे सुरक्षित रखना चाहते हैं। लेकिन दलितों को मंदिर की चौखट पर देख उन्हें अपना धर्म संकट में नजर आने लगता है। जाति की सुरक्षा के लिए वे ऐसी चालें चलते हैं, जिनसे बदलाव की सारी संभावनाओं पर पानी फिर जाता है। उनके प्रयास बहुत महीन, आसानी से समझ में न आनेवाले होते हैं। इसके साथ ही आर्य ने कहा कि जाति-व्यवस्था के नाम पर हो रही हिंसा से हिंदू विभाजित होता जा रहा है एक-दूसरे की जाति से नफरतें बढ़ रही हैं जिसका सीधा फायदा हमारे दुश्मन पड़ोसी देशों को हो रहा है वह लोगों की भावनाओं पर ठेस पहुंचाकर देश की विकास की गति में रुकावट पैदा करते हैं, और हम विश्व गुरु बनने का सपना देख रहे हैं लेकिन हमारा समाज आज भी रुढ़िवादी घृणित जाति-व्यवस्था की लकीरें खींच रहा है जोकि देश‌ की अखंडता के साथ ही हिंदुत्व की एकता के लिए भी किसी खतरे से कम नहीं है।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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