
आजादी के अमृत काल में ये आंकड़े विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की प्रतिष्ठा बढ़ाते तो नहीं हैं कि हमारे 40 प्रतिशत सांसदों के विरुद्ध आपराधिक मामले लंबित हैं। यह भी कि उनमें से 25 प्रतिशत के विरुद्ध गंभीर मामले दर्ज हैं। ये आंकड़े चुनाव सुधार के लिए सक्रिय एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और नेशनल इलेक्शन वाच (एनईडब्ल्यू) जैसी गैर-सरकारी संस्थाओं की पड़ताल के परिणाम हैं। इन संस्थाओं ने हमारी संसद के 776 सदस्यों वाले दोनों सदनों के 763 सांसदों द्वारा चुनाव के समय दाखिल शपथ पत्रों के विश्लेषण के आधार पर ये आंकड़े जारी किए हैं। सवाल है कि इतनी बड़ी संख्या में दागी लोकतंत्र के मंदिर में कैसे पहुंच गए? हमारे राजनेता परस्पर दोषारोपण के खेल में माहिर हैं, पर आंकड़े यही बताते हैं कि राजनीति की गंगा को मैली करने से कोई भी दल अछूता नहीं है।
कुल 306 सांसदों ने अपने विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज होने की सूचना शपथ पत्रों में दी, जिनमें से 194, यानी 25 प्रतिशत ने अपने विरुद्ध गंभीर आपराधिक मामले बताए हैं। 11 सांसदों के विरुद्ध हत्या, 32 के विरुद्ध हत्या का प्रयास, 21 के विरुद्ध महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले भी लंबित हैं। चार के विरुद्ध तो बलात्कार सरीखे संगीन अपराध हैं। भाजपा के 34 प्रतिशत सांसदों ने अपने विरुद्ध आपराधिक मामलों की सूचना दी है। हैरत यह है कि चुनावी मुकाबले में परास्त हो जाने वाली कांग्रेस इस मामले में भाजपा को मात देती नजर आती है। उसके 81 में से 43, यानी 53 प्रतिशत सांसदों के विरुद्ध आपराधिक मामले हैं। अन्य दलों का दामन भी पाक-साफ नहीं है। तृणमूल कांग्रेस के 39 प्रतिशत सांसदों के विरुद्ध आपराधिक मामले हैं। सर्वहारा वर्ग की लड़ाई का दम भरने वाली माकपा के आठ में से छह, यानी 75 प्रतिशत सांसद दागी हैं। एनसीपी के 38 प्रतिशत, तो आम आदमी पार्टी के 27 प्रतिशत सांसदों के विरुद्ध आपराधिक मामले हैं।
राजनीति के अपराधीकरण के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार ज्यादा बदनाम रहे हैं, पर आंकड़े बताते हैं कि उच्च शिक्षा दर के बावजूद केरल इस मामले में शीर्ष पर है। वहां 79 प्रतिशत सांसदों के विरुद्ध मामले दर्ज हैं। बिहार, महाराष्ट्र, तेलंगाना और दिल्ली में यह प्रतिशत क्रमश 73, 57, 54 और 50 है। निश्चय ही भारतीय संसद की यह तस्वीर चिंताजनक है। राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों की तस्वीर भी बेहतर नहीं है।
दरअसल, राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में यह बीमारी नासूर बनती जा रही है। बाहुबलियों व राजनीतिक दलों में परस्पर उपयोगिता के आधार पर अटूट रिश्ता बनता गया है। दलों को दबदबे वाले उम्मीदवार मिलने लगे, तो दबंगों को सत्ता-राजनीति का संरक्षण। 2004 से यह रिश्ता और भी तेजी फला-फूला। 2004 में ऐसे लोकसभा सदस्यों का प्रतिशत 24 हो गया, जिनके विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज थे। सत्ता तंत्र और राजनीतिक व्यवस्था की तंद्रा तब भी नहीं टूटी, तो 2009 में यह प्रतिशत बढ़कर 30, 2014 में 34 और 2019 में 44 हो गया।
इस अपराधीकरण पर सरकार समेत राजनीतिक तंत्र का रुख इसी से समझा जा सकता है कि दोषी ठहरा दिए गए राजनेताओं पर आजीवन प्रतिबंध की मांग करने वाली जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के समय 2020 में विधि मंत्रालय ने विरोध करते हुए तर्क दिया कि राजनेता तो जनसेवक हैं, उनके लिए कोई विशेष सेवा शर्त नहीं होती और वे अपने निर्वाचन क्षेत्र एवं देश-सेवा की स्वयं की शपथ के प्रति ही प्रतिबद्ध होते हैं, इसलिए उन्हें नौकरशाहों या न्यायाधीशों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जिन्हें भ्रष्टाचार या आपराधिक मामले में दोषी पाए जाने पर आजीवन कार्य-मुक्त कर दिया जाता है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर चुनाव आयोग के साहसिक स्टैंड से भी सहमति जताते हुए माना कि कानून तोड़ने वाले कानून-निर्माता नहीं बन सकते, पर कहा कि ऐसा कानून बनाना संसद का काम है। कानून बनाना तो दूर, संसद में इस मुद्दे पर शायद ही कभी गंभीर चर्चा हुई हो। लगता नहीं कि इस रात की सुबह जल्द होगी। हां, मतदाता कुछ साहसिक पहल करें, तो बात अलग है, पर उनके समक्ष भी अक्सर छोटी बुराई चुनने का ही विकल्प होता है।