श्रीमद् भगवद् गीता का प्रतीकात्मक जन्म दिवस——- गीता जयंती (14 दिसम्बर 2021) की आप सब को शुभकामना.
गीता के प्रति अलौकिक निष्ठा —एक प्रसंग

गीता के जिज्ञासु की पहचान यही है कि वह गीता को पढ़ते या सुनते समय भगवान में तल्लीन हो जाये। बड़े-बड़े उपदेशक गीता का उपदेश करते हैं लेकिन स्वयं संसार में आसक्त रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों का ईश्वर तथा गीता के प्रति न तो सच्चा विश्वास होता है और न गीता के प्रति सच्ची निष्ठा। किसी भी ग्रंथ में दृढ़ निष्ठा हुए बिना सिर्फ साधन दृष्टि से किया गया साधन कभी भी फलीभूत नहीं हो सकता। इसमें विद्वत्ता से अधिक भावना का महत्व होता है। फिर भगवान तो केवल भाव के भूखे हैं वे भक्त से से अपने प्रति प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देखते। श्रद्धा तथा समर्पण भाव से उनके प्रति जो कुछ भी किया जाता है उसे ही सही मानकर वे भक्ति रूप में स्वीकार कर लेते हैं। इस सम्बन्ध में एक आख्यान प्रस्तुत करती हूँ
श्री गौराङ्ग महाप्रभु के समय में एक भक्त ऐसा था जो प्रतिदिन गीता का पाठ तो किया करता था, किन्तु वह संस्कृत पढ़ा लिखा नहीं था, अतः उच्चारण ठीक तरह से नहीं कर पाता था, गलत-सलत बोलता था।
एक दिन एक पंडित ने उसका पाठ सुना तो वह उस भक्त से बोला, तुम तो गीता का गलत पाठ कर रहे हो। ऐसा करना महा पाप है। इतना ही नहीं फिर उस पंडित ने गौराङ्ग महाप्रभु से उसकी शिकायत भी की। श्री गौराङ्ग महाप्रभु ने उस भक्त को बुलवाया और उससे कहा, भाई ! तुम कैसे गीता का पाठ करते हो। कुछ समझते भी हो? वह भक्त बोला, ‘महाराज ! मैं तो कुछ भी नहीं समझता। मैं तो बस श्रद्धापूर्वक इतना ध्यान करता हूँ कि भगवान रथ में बैठे हैं, अर्जुन भी बैठे हैं और भगवान बोल रहे हैं तथा भगवान जो कुछ कह रहे हैं, अर्जुन वह सब सुन रहे हैं। बस मैं तो यही ध्यान करता हूँ, इससे अधिक और कुछ भी नहीं समझता हूँ।’
इतना सुनते ही महाप्रभु ने उस भक्त को अपने हृदय से लगा लिया और बोले, यही तो गीता है। गीता का अभिप्राय ही यह है कि जितनी देर भगवान में मन लगे, बस उतन देर तक तुमको गीता का ज्ञान है, भले ही तुम गीता का पाठ कैसे भी करो। भगवान से जिस क्षण मन हटा कि तुम गीता के ज्ञान से विमुख हो गये।
इतना ही नहीं श्री महाप्रभु ने उस पंडित को भी कहा ‘वास्तव में तुम्हें गीता का ज्ञान है ही नहीं, तुम्हें धोखा है, भले ही तुम दिन रात विद्वत्ता के अहं में चूर होकर उपदेश देते हो ।’
गीता का तत्त्व क्या है ? इस सम्बन्ध में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, ’तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर’ अर्थात् मन निरन्तर मेरे में लगा रहे। यही गीता का सार सर्वस्व है, यही सत्य है, किन्तु आज त्रासदी यह है कि भौतिकवाद की चकाचौंध में सभी लोग त्रिगुणात्मिका माया से भ्रमित हो रहे हैं।
–डॉ निरूपमा वर्मा —