झूठ के चक्रव्यूह में फँसा लोकतंत्र: एक भयावह सच्चाई

रूसी नोबेल पुरस्कार विजेता अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन का एक प्रसिद्ध उद्धरण है, “हम जानते हैं, वे झूठ बोलते हैं, वे जानते हैं कि वे झूठ बोलते हैं, वे जानते हैं कि हम जानते हैं कि वे झूठ बोलते हैं, हम जानते हैं कि वे जानते हैं कि हम जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं, लेकिन फिर भी वे झूठ बोलते रहते हैं, और हम उन पर विश्वास करने का नाटक करते रहते हैं।”
आज के भारत की राजनीतिक विडंबना को इससे बेहतर शायद ही कोई और बात बयां कर सके। यह सिर्फ एक साहित्यिक पंक्ति नहीं, बल्कि हमारे लोकतंत्र की मौजूदा त्रासदी का जीवंत चित्रण है।

11 अगस्त का दिन हमारे इतिहास में एक नया, चिंताजनक अध्याय जोड़ गया है। जिस तरह से विपक्ष के सैकड़ों सांसदों को लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के “जुर्म” में पुलिस हिरासत में लिया गया, वह अभूतपूर्व है। यह घटना सत्ता की उस मानसिकता को दर्शाती है जो असहमति को बर्दाश्त नहीं कर सकती। पिछली लोकसभा में डेढ़ सौ सांसदों के निलंबन का रिकॉर्ड बनाने वाली सरकार ने इस बार विपक्ष को सड़कों पर पुलिस के डंडे से कुचलने की कोशिश की।

विपक्ष का पैदल मार्च महज एक विरोध प्रदर्शन नहीं था, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को बचाने की एक पुकार थी। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में, सांसदों ने निर्वाचन आयोग से वोट चोरी के सबूतों की जांच करने और मतदाता सूचियों में धांधली रोकने की मांग की। यह एक राजनीतिक लड़ाई से कहीं बढ़कर है; यह संविधान द्वारा दिए गए ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ के अधिकार की रक्षा की लड़ाई है। हमारे संविधान निर्माताओं ने बड़े परिश्रम से ऐसा तंत्र बनाया था, जहाँ हर नागरिक का मत समान महत्व रखता है। यह अधिकार ही हमें चीन या उत्तर कोरिया जैसी तानाशाही व्यवस्था से अलग करता है।

लेकिन आज, निर्वाचन सीटों पर फर्जी मतदान और मतदाता सूची से लाखों नामों को काटने जैसे आरोप हमारे लोकतंत्र की नींव को हिला रहे हैं। चुनाव आयोग, जो एक संवैधानिक संस्था है, अपनी जिम्मेदारी निभाने के बजाय चुप्पी साधे बैठा है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी जब आयोग मतदाता सूची से हटाए गए नामों की सूची देने से इनकार कर दे, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या वह स्वतंत्र रूप से काम कर रहा है?

सरकार की प्रतिक्रिया और भी निराशाजनक है। किरण रिजिजू जैसे मंत्री इसे “एक व्यक्ति की नासमझी” और “एक परिवार” का मुद्दा बताकर पूरे विपक्ष का अपमान कर रहे हैं। 84 साल के शरद पवार और 83 साल के मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे वरिष्ठ नेताओं को दिल्ली की उमस भरी गर्मी में सड़कों पर बैठना पड़ा और फिर पुलिस उन्हें अपराधियों की तरह हिरासत में लेकर गई। क्या अब दिल्ली में पैदल चलने के लिए भी पुलिस की अनुमति लेनी होगी?

आज जब नरेन्द्र मोदी 1975 के आपातकाल की याद दिलाते हैं, तो हमें खुद से पूछना चाहिए कि क्या यह खुला आपातकाल नहीं है? किसान, छात्र, महिला पहलवान और सरकारी कर्मचारियों के बाद, अब सांसदों को भी सड़कों पर उतरना पड़ रहा है। सरकार चर्चा से भाग रही है, विरोध को कुचल रही है और अपने मनचाहे विधेयक पारित करा रही है। यह सब लोकतंत्र के नाम पर हो रहा है, और हम सोल्झेनित्सिन के उस उद्धरण को जीते हुए, इस पर विश्वास करने का नाटक कर रहे हैं।

हमें यह समझना होगा कि यह लड़ाई सिर्फ विपक्ष की नहीं है, बल्कि प्रत्येक भारतीय की है। जब लोकतंत्र खतरे में होता है, तो हर नागरिक का अधिकार और सम्मान दांव पर लग जाता है। क्या हम सिर्फ देखते रहेंगे, या इस झूठ के चक्रव्यूह को तोड़कर अपने संविधान और लोकतंत्र को बचाएंगे? चुनाव हमारे हाथ में है।

About The Author

निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

यह खबर /लेख मेरे ( निशाकांत शर्मा ) द्वारा प्रकाशित किया गया है इस खबर के सम्बंधित किसी भी वाद - विवाद के लिए में खुद जिम्मेदार होंगा

Learn More →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अपडेट खबर के लिए इनेबल करें OK No thanks