न्याय की कसौटी पर नारी गरिमा: विधिक दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन आवश्यक- मा0सदस्य राज्य महिला आयोग

राज्य महिला आयोग सदस्य रेनू गौड़ द्वारा अवगत कराया गया है कि महिलाओं की गरिमा,आत्मसम्मान और उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा न्याय प्रणाली का मूल कर्तव्य है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्र द्वारा दिया गया निर्णय, जिसमें बलात्कार या उसके प्रयास की परिभाषा को सीमित रूप में व्याख्यायित किया गया, न केवल विधिक रूप से दोषपूर्ण है, बल्कि महिला सुरक्षा की भावना के विरुद्ध भी है।

सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा एवं ए.जी. मसीह की पीठ द्वारा इस निर्णय पर तत्काल रोक लगाना एक न्यायोचित एवं सराहनीय कदम है। उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यौन अपराध केवल शारीरिक आघात तक सीमित नहीं होते, बल्कि महिला के मानसिक, सामाजिक व आत्मिक सम्मान को भी ठेस पहुँचाते हैं।

उत्तर प्रदेश राज्य महिला आयोग की सदस्य श्रीमती रेनू गौड़ जी का मानना है कि न्यायिक दृष्टिकोण में संवेदनशीलता अनिवार्य है। यदि अपराधों को तकनीकी व्याख्याओं के आधार पर शिथिल किया जाएगा, तो यह अपराधियों को संरक्षण देने जैसा होगा। न्यायपालिका को चाहिए कि वह वह विधिक संरचना की शक्ति के माध्यम से महिलाओं की अस्मिता और अधिकारों की अक्षुण्णता सुनिश्चित कर इनको सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करे। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय एक आवश्यक सुधारात्मक कदम है, जो महिला सुरक्षा और न्याय की दिशा में महत्त्वपूर्ण दृष्टांत स्थापित करता है, जिसे आयोग पूर्ण समर्थन देता है।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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