बागेश्वर धाम सरकार में सरकार : साम्प्रदायिकता और कॉर्पोरेट का विधिवत पाणिग्रहण

बागेश्वर धाम सरकार में सरकार : साम्प्रदायिकता और कॉर्पोरेट का विधिवत पाणिग्रहण

कई बार वास्तविकता को उजागर करने के लिए उसे शब्दों में सूत्रबद्ध करना जरूरी नहीं होता, परिस्थितिजन्य साक्ष्य काफी होते हैं। कई बार कहे-सुने से ज्यादा, सही तरीके से देखी गई छवियां ही सब कुछ उजागर कर देती हैं। पिछले दिनों छतरपुर के प्रवचनकर्ता धीरेन्द्र शास्त्री के दो समारोहों में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू की मौजूदगी इसी तरह का एक उदाहरण है। यह बागेश्वर धाम ‘सरकार’ में विधि द्वारा स्थापित, भारत के संविधान के आधार पर संचालित भारत सरकार की हाजिरी थी। भारत सरकार के प्रधानमंत्री इस ‘बागेश्वर सरकार’ द्वारा बनाए जाने वाले एक कैंसर अस्पताल का शिलान्यास करने के नाम पर गए थे, तो उनके अगले दिन राष्ट्रपति महोदया एक सामूहिक विवाह में आशीर्वाद देने गयी थीं। हालांकि 251 जोड़ों के इस विवाह के मंच पर लिखे बैनर में इसे कन्या विवाह कहा गया था – लेकिन यह मानकर चला जा सकता है कि इन कन्याओं ने अकेले स्वयं के साथ तो शादी नहीं ही की होगी। बहरहाल दिखाने के लिए यह जो भी रहा हो, वास्तव में यह हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता और कॉर्पोरेट के गठन के विस्तार का साकार ही था।

एक तो इसलिए कि बागेश्वर धाम सरकार वाले धीरेन्द्र शास्त्री बाकी जो हों – सो हों, संत या साधु तो कहीं से नहीं है। जिस धर्म के नाम पर वे अपनी और उसके साथ पूरे देश की सरकार चलाना चाहते हैं, वे उसके ज्ञानी, सिद्ध या प्रवक्ता भी नहीं है। यहाँ तक कि उस धर्म की 8वीं-9वीं सदी में शुरू हुई पीठ परम्परा में स्थापित किसी पीठ के शंकराचार्य भी नहीं है – होने को तो वे आचार्य भी नहीं हैं। फिर उनमें ऐसा क्या है कि देश की सरकार उनकी ‘सरकार’ के “ज़रा से न्यौते” पर बुन्देलखण्ड के भीतर छतरपुर के भी और भीतर नित नया और भव्य आकार ले रहे उनके धाम में जा पहुंची?

उनकी एकमात्र विशेषता है उनका दुर्भाषा होना, असभ्यता की हद तक मुंहफट और आपराधिकता की हद तक उन्माद फैलाने वाले बोलवचन का आदी होना। अभी हाल ही में कुम्भ मेले को लेकर दिए उनके दो बयान उनकी संतई का असली चेहरा साफ़ कर देते हैं। पहले तो उन्होंने एलान किया कि ‘’जो हिन्दू महाकुम्भ में नहीं आयेगा, वह देशद्रोही है।“ जब मेले में हुए कुप्रंधन के चलते हुए हुई भगदड़ में बड़ी संख्या में यात्री कुचल कर मर गये, तो संवेदना के दो शब्द बोलने की बजाय वे जो बोले, उससे यह भी स्पष्ट हो गया कि उनका साधुत्व कितना असाधु है। उन्होंने स्थापना दी कि “गंगा किनारे मरने वाले की मौत नहीं होती, उसका मोक्ष हो जाता है और फिर मरना तो सभी को है, कोई 20 साल बाद मरेगा, तो कोई 30 साल बाद।“ हालांकि इस बयान पर एक शंकराचार्य ने उन्हें मोक्ष प्राप्त करने के लिए स्वयं गंगा में कूद जाने का जो सात्विक सुझाव दिया था, उस पर उन्होंने कान नहीं धरे। इसके बाद वे सिद्धांत लेकर आये कि कुम्भ में हुई मौतें एक षड्यंत्र का हिस्सा थीं ; यह भी दावा किया कि उन्हें पता है कि यह षड्यंत्र किसने किया, मगर वो बतायेंगे नहीं, क्योंकि उन्हें अभी और जीवित रहना है।

इस तरह साफ़ हो जाता है कि न संत, न साधु, धीरेन्द्र शास्त्री धर्म का बाना ओढ़े मीडिया के कंधे पर सवार ऐसे वैताल हैं, जिनका एकमात्र काम सत्ता में बैठे दल और उनके विचारों में निहित उस अकथ को कहना है, जिसे वह दल खुद, फिलहाल, उस तरह उन शब्दों में कहने से बचना चाहता है। कथित धर्म का तड़का लगाकर उन्माद की झरप और तीखेपन को बढ़ाने का काम उन्हें सौंपा गया है और ठीक इसीलिए वे भाजपा और संघ के इतने प्रिय है कि दुनिया जहान की व्यस्तताओं के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी पिछले 11 महीनो में उनसे तीन बार मुलाक़ात कर लेते हैं और एक बार उनके धाम जाकर उनकी माँ से मिलकर विवाह की पर्ची निकालने की फुर्सत भी निकाल लेते हैं। वे फासीवाद के भारतीय संस्करण हिंदुत्व – जिसका हिन्दू धर्म की मान्यताओं या परम्परा से कोई संबंध नहीं है – द्वारा गढ़े जा रहे ‘धर्म’ और उसके प्रतीक के रूप में खड़े किये जा रहे बाबाओं, बाबियों की कड़ी में स्थापित किये जा रहे व्यक्ति हैं। उनके सारे बयान, प्रवचन और कथोपकथन इसी दिशा में हैं।

एक कथित प्रवचन में उन्होंने कहा कि सभी ईसाई और मुसलमान हिंदू हैं, क्योंकि वे हिन्दुस्तान में रहते हैं ; तो अगले प्रवचन में वे अपने ही कहे से पलट कर बोले कि ‘‘देश में हिंदुओं की संख्या कम हो रही है, यह चिंता की बात है। घटती हुई हिन्दू आबादी और गजवा-ए-हिन्द चाहने वाले लोगों की बढ़ती आबादी इस देश के लिए घातक है, ऐसे में हिन्दुओं को एक बच्चे की जगह चार बच्चे पैदा करना जरूरी है, क्योंकि यह देश के लिए जरूरी है।” धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य वाले देश की सरकार के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जिन बागेश्वर धामी के यहाँ गए थे, उनका जब भी मुंह खुलता है, यह कहे बिना बंद नहीं होता कि “हम हिन्दू राष्ट्र बनाकर ही मानेंगे।‘’ इसे और उन्मादी बनाते हुए वे बोलते हैं कि : ‘’आपको अपनी बहन-बेटियों को सुरक्षित रखना है, तो हिन्दू राष्ट्र बनाना होगा।“ उनकी बात में भरी संक्रामक विषाक्तता से यह साफ़ हो जाता है कि जब वे बहन-बेटियों को बचाने की बात कर रहे हैं, तब उनका आशय किसी आसाराम या किसी गुरमीत राम रहीम या इसी तरह के साबित प्रमाणित व्यभिचारियों से बचाने का नहीं है।

हिन्दू राष्ट्र की परिभाषा कही अन्यथा न हो जाये, इसलिए उन्होंने उसे साफ करते हुए यह भी याद दिलाया कि “हम सभी सनातनी हैं, लिहाजा हिन्दू राष्ट्र मतलब सनातनियों का राष्ट्र!!” वे सिर्फ बोले भर नहीं, हिन्दू राष्ट्र कायम करने के लिए तीन महीने पहले नवंबर में सप्ताह भर की 160 किलोमीटर की सनातन हिन्दू एकता यात्रा भी निकाल डाली। उस यात्रा में और उसके पहले, बाद और बीच में समय-समय पर आग लगाऊ बयान देने और उनमें पेट्रोल डालने का काम भी जारी रखा। देश की बड़ी आबादी द्वारा माने जाने वाले हरिबाबू भुसारी से साईं बाबा नाम से ख्यात हुए शिरडी के सूफी फकीर का उनके समाधि लेने के 107 वर्ष बाद मरणोपरांत धर्म परिवर्तन कर उन्हें चाँद मियाँ घोषित कर डाला और हिन्दुओं को ललकारते हुए कहा कि 33 करोड़ देवी-देवताओं के होने के बावजूद वे इस चाँद मियाँ को क्यों मानते हैं। वक्फ बोर्ड खत्म करने से लेकर हिंदुओं से बुलडोजर खरीदने की अपीलें करने और महाकुम्भ में गैर-हिन्दुओं को प्रवेश न दिए जाने की सार्वजनिक मांग करने तक ये बागेश्वर धामी पूरी वफादारी के साथ उस एजेडे को आगे बढ़ा रहे हैं, जिस एजेंडे पर चलकर आरएसएस और भाजपा सहित उसकी सारी ओक्टोपसी भुजाएं भारतीय सभ्यता के अब तक के सारे हासिल को खारिज कर देने पर आमादा हैं। ऐसे व्यक्ति और उसके संस्थान के साथ दिखकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बाकी सबको क्या दिखाना चाहते हैं? किस तरह के आदर्श प्रस्तुत करना चाहते हैं, इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।

राष्ट्रपति, जो महिला भी हैं, की उपस्थिति और भी परेशान करने वाली है, क्योंकि वे उस व्यक्ति के साथ मंच साझा कर रही थीं, उसकी सराहना कर रही थीं, जिसका महिला द्वेष और महिलाओं के विरुद्ध टिप्पणियाँ किसी से छुपा नहीं है। भोपाल के कुछ वरिष्ठ नागरिकों और एक्टिविस्टों ने राष्ट्रपति महोदया के संज्ञान में इसे लाया भी था, उनसे इस व्यक्ति के आयोजन में न आने का भी अनुरोध किया था, मगर वे आईं और बोली भीं। राष्ट्रपति के रूप में श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने भारत की परम्परा में सदियों से अपने कर्म और धर्म से संतों द्वारा जनमानस को राह दिखाने, समकालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों के खिलाफ लोगों को जागरूक करने की बात कही। हालांकि इस सन्दर्भ में जिन गुरु नानक, रविदास, कबीर और तुकाराम का नाम उन्होंने लिया, उनमें से कोई भी सनातनी नहीं था। सही मायनों में तो ये सभी सनातन की जड़ता के विरुद्ध जनमानस को जगाने वाले सुधारक थे।

बहरहाल उन्होंने ‘संतों ने महिलाओं को समाज में उचित स्थान दिलाने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने के लिए जो किया है, उसकी याद भी दिलाई। वह भी उस मंच से जिस पर उनके साथ वे धीरेन्द्र शास्त्री विराजमान थे, जिनके निशाने पर हमेशा महिलायें रहीं। उन्होंने महिलाओं को चार चार बच्चे पैदा करने के दायित्व से ही नहीं नवाजा, उनको काली जामुन और खाली प्लाट तक बताने की अभद्र और यौनिक टिप्पणियां करने से भी नहीं हिचके। एक से अधिक प्रवचन में उन्होंने कहा कि “जिस स्त्री की मांग में सिन्दूर और गले में मंगलसूत्र न हो, तो समझिये वह ऐसा खाली प्लाट है, जिसे देखने-संभालने वाला कोई नहीं है। जिनके यह दोनों हैं, उन्हें देखकर लोग समझ लेते हैं कि इसकी रजिस्ट्री हो गयी है।‘’ मतलब यह कि खाली प्लाट पर कोई भी दखल कर सकता है। महिलाओं को संपत्ति और रजिस्ट्री कराके कब्जे में लेने लायक मानने की इस बर्बर समझ वाले व्यक्ति के ऐसे उदगार यहीं तक नहीं रुके। एक प्रवचन में उन्होंने कहा कि “सबसे ज्यादा श्राप तो ब्यूटी पार्लर वाले को लगेगा, जो काली जामुन के ऊपर भी इतना फाउंडेशन लगा देते है।“ ऐसी कुंठाओं से भरे एक राजनीतिक प्रचारक के मंच पर राष्ट्रपति का जाना ही अनुचित और अस्वीकार्य था, उस पर उनके भाषण में कही बातें जैसे उसके किये पर धूल डालने की कोशिश थी, जिसे राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति से कराया गया।

राष्ट्रपति महोदया ‘अंधविश्वास और कुरीतियों के विरुद्ध लोगों को जागरूक करने की भारतीय परम्परा की’ बात उस व्यक्ति के मंच से कर रही थीं, जो नागपुर से अपने प्रवचन अधूरे छोड़कर तब भाग आया था, जब महाराष्ट्र की अन्धश्रृद्धा निर्मूलन समिति ने इसे लोगों के बारे में बताने और पर्ची खोलकर उनकी समस्याओं के समाधान सुझाने के चमत्कार को साबित करने की चुनौती दी थी। ऐसा करने पर 30 लाख रूपये देने का एलान भी किया था। रातों रात नागपुर से भागे बाबा ने छतरपुर लौटकर अपनी खीज निकालते हुए ‘हाथी चलें बाजार, कुत्ते भौंके हजार’ और ‘ठठरी बंधे,’ और ‘तब क्या बाप मर गए थे’ जैसे आप्तवचन बोले थे – लगता है उनकी शास्त्रोक्त सनातनी भाषा संसार में यही सब उनके हथियार हैं।

इनका कथित आश्रम – जिसे वे धाम कहते है – कम विवादित नहीं है। इसमें 1 जनवरी ’23 से अप्रैल ’23 के बीच 21 लोगों के गुम होने की एफआईआर दर्ज हुईं, जिनमे आख़िरी सार्वजनिक जानकारी सिर्फ 9 के मिलने या उनके बारे में पता चलने की थी। उसके बाद, जबसे इनकी मुलाकातें राष्ट्र के शीर्ष पर बैठे महामहिमों से होने लगी, तब से रिपोर्ट इत्यादि लिखे जाने के लौकिक और सांसारिक दायरे से वे ऊपर उठ चुके हैं। जाति के खिलाफ लड़ने का दावा करने वाले इस कथित बाबा के खुद के छोटे भाई शालिगराम लाइव विडियो में बन्दूक की नोंक पर एक दलित के साथ बुरी तरह मारपीट करते, गाली-गलौज करते दिख चुके हैं, इसके लिए गिरफ्तार होकर छूट भी चुके हैं। ये स्वयं हाथरस में भगदड़ मौतें कराने वाले दलित समुदाय से आने वाले बाबे नारायण साकार हरि को गरिया चुके हैं ।

यह आयोजन सत्ता के साथ खुली सांठगांठ करने के बाद कथित संतई को सचमुच के कॉरपोरेट में बदलने का एक अनुष्ठान था, जिसे कैंसर अस्पताल के शिलान्यास के साथ शुरू किया गया है। यह पारस्परिक पूरकता शब्दों में भी ‘अहो रूपम अहो ध्वनि’ अलंकार में प्रवाहित हो रही थी। धीरेन्द्र शास्त्री मोदी को एक ऐसा प्रधानमंत्री बता रहे थे, जिन्हें डोनाल्ड ट्रम्प भी भारत के महान पीएम कहता है। उनके जवाब में मोदी उन्हें ऐसा व्यक्ति बता रहे थे, जो देश में एकता के मंत्र को लेकर जागरूकता फैलाते हैं। धीरेन्द्र शास्त्री के साथ जुगलबंदी करते हुए वे हिन्दू धर्म का मखौल बनाने, सदियों से किसी न किसी भेष में हिन्दू आस्था से नफ़रत करने वाले, मान्यताओं, मंदिरों, संत, संस्कृति. सिद्धांतों, पर्व, परम्पराओं, प्रथाओं को कथित रूप से गाली देने वाले कल्पित दुश्मन के खिलाफ उन्माद भी भड़का रहे थे।

कुल मिलाकर यह कि बागेश्वर धाम में कैंसर अस्पताल के शिलान्यास और 251 जोड़ों के सामूहिक विवाह की आड़ में जो हुआ, वह हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता और कारपोरेट का पाणिग्रहण था और इसके बहाने, इसके लिए, इसके द्वारा कराया गया लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संविधानसम्मत देश समाज का सत्ता शीर्ष के हाथों धृतराष्ट्र आलिंगन था।

यह एक सचमुच की चुनौती है. एक गंभीर चुनौती। इसका प्रतिकार और प्रतिरोध धर्म के राजनीतिक दुरुपयोग के खिलाफ आवाज ऊंची करके तथा सब कुछ हड़प लेने के लिए झपट रहे कार्पोरेटी शिकंजे के खिलाफ संघर्ष को नयी ऊंचाई तक पहुंचा कर ही किया जा सकता है।

(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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