प्रेस: लोकतंत्र का उपेक्षित स्तंभ

एटा । लोकतंत्र के चार स्तंभों में से एक—प्रेस—आज हाशिए पर है। भारत की केंद्र और प्रदेश सरकारों ने बजट प्रस्तुत किए, लेकिन प्रेस के लिए उसमें कुछ भी नहीं था। यह उपेक्षा क्यों हुई? क्या यह जानबूझकर किया गया, या फिर सरकारें मीडिया की असल समस्याओं को देखने से बच रही हैं? जो भी कारण हो, लेकिन परिणाम यह है कि पत्रकारों और छोटे मीडिया संस्थानों की स्थिति लगातार दयनीय होती जा रही है।
प्रेस की अनदेखी क्यों?
सरकारें अक्सर उद्योगों, किसानों, व्यापारियों और यहां तक कि मनोरंजन क्षेत्र के लिए भी राहत पैकेज और प्रोत्साहन योजनाएं लाती हैं। लेकिन प्रेस—जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है—उसके लिए कोई आर्थिक सहायता या नीति नहीं बनाई जाती। यह विडंबना ही है कि जो मीडिया हर तबके की आवाज़ उठाने का काम करता है, वह खुद बेसहारा है।मुद्रण उद्योग संकट में है, डिजिटल मीडिया संसाधनों के अभाव में दम तोड़ रहा है, और छोटे-बड़े मीडिया संस्थान आर्थिक रूप से कमजोर होते जा रहे हैं। समाचार पत्रों की प्रसार संख्या गिर रही है, विज्ञापनों पर बड़ी टेक कंपनियों का कब्जा हो चुका है, और टीवी मीडिया कॉर्पोरेट दबाव में काम कर रहा है। ऐसे में स्वतंत्र पत्रकारिता का भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है।
प्रेस का ‘सौतेलापन’ और सरकारों की जिम्मेदारी
अगर प्रेस को ‘लावारिस’ या ‘सौतेला’ कहा जा रहा है, तो इसकी जिम्मेदारी भी उन्हीं पर आती है जो इसे इस स्थिति में पहुंचाने के लिए उत्तरदायी हैं। क्या सरकार यह मानती है कि मीडिया की कोई भूमिका नहीं है? या फिर वह एक स्वतंत्र प्रेस को अपने लिए खतरा समझती है?कोरोना महामारी के दौरान जब हर क्षेत्र के लिए राहत पैकेज घोषित हुए, तब भी पत्रकारों के लिए कुछ खास नहीं किया गया। छोटे अखबार बंद हो गए, फ्रीलांस पत्रकारों की आजीविका छिन गई, और डिजिटल मीडिया संस्थानों को सरकारी विज्ञापनों से वंचित कर दिया गया। प्रेस को अछूत की तरह ट्रीट करना क्या लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है?
क्या प्रेस भी पूरी तरह निर्दोष है?
हालांकि यह भी देखना होगा कि क्या पत्रकारिता जगत ने अपनी जिम्मेदारी को सही तरीके से निभाया है? क्या प्रेस ने खुद को जनता की आवाज़ बनाए रखा, या फिर किसी न किसी एजेंडे का हिस्सा बनकर अपनी निष्पक्षता को खो दिया?पत्रकारिता का कर्तव्य केवल सरकारों की आलोचना करना नहीं, बल्कि खुद को भी आत्मविश्लेषण के दायरे में रखना है। यदि प्रेस से भी गलतियां हुई हैं—जैसे झूठी खबरें फैलाना, सनसनीखेज रिपोर्टिंग करना, या किसी खास विचारधारा की ओर झुकाव रखना—तो उन गलतियों को भी स्वीकार करना होगा। किसी भी गलती को न मानना और आत्ममंथन न करना रावण की मानसिकता में जीने जैसा है।
आगे क्या किया जाए?
सरकार को प्रेस के लिए एक ठोस आर्थिक नीति बनानी चाहिए, जिसमें छोटे मीडिया संस्थानों को आर्थिक सहायता दी जाए।डिजिटल मीडिया को बढ़ावा देने के लिए टेक कंपनियों की विज्ञापन नीतियों पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए, ताकि छोटे मीडिया संस्थान भी टिक सकें।पत्रकारों के लिए न्यूनतम वेतन और सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए, ताकि वे निर्भय होकर काम कर सकें।
प्रेस को भी अपनी विश्वसनीयता और निष्पक्षता बनाए रखने के लिए आत्ममूल्यांकन करना होगा।प्रेस की स्वतंत्रता और अस्तित्व केवल पत्रकारों की समस्या नहीं है, बल्कि पूरे लोकतंत्र का सवाल है। यदि सरकारें इसे अनदेखा करती रहीं, तो यह लोकतंत्र के कमजोर होने का संकेत होगा। यह समय है कि सरकारें प्रेस को ‘अछूत’ न समझें, बल्कि लोकतंत्र के एक मजबूत स्तंभ के रूप में पुनर्स्थापित करें।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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