कौन पहना गया खूनी कफन बूढ़े अंत पर-

(फिरोजाबाद)-
कौन पहना गया खूनी कफन बूढ़े अंत पर- फिरोजाबाद-स्टेशन रोड पर एक 80,बर्ष की बुजुर्ग महिला झोपड़ी में चार बर्ष से रह रही थीं उनका एक बेटा एक बेटी है जो दिल्ली में कहीं झोपड़ी में रह रहा है बुजुर्ग महिला अकेली इस उम्र में इस झोपड़ी में रहकर बुढ़ापे से जिंदगी की जंग लड़ रही थी,उनके पति का स्वर्गवास करीब 40,बर्ष पूर्व बताया जा रहा है– आस पास के लोग उनके खान पान की व्यस्था देखरेख भी करते थे सोमवार देर रात अचानक एक शराबी जो जिस्म की भूंख से पागल झोपड़ी में सो रही 80,वर्ष के बुढ़ापे के निर्वल जिंदा जिस्म पर भेड़िया की तरह अमानुष टूट पड़ा और लहूलुहान कर उनके कपड़ों में पांच हजार रू,रखे थे जाते जाते बो भी ले गया-
एक और झोपड़ी में बूढ़ी आबरू पुरूषार्थ की भूंख की आग में राख हो गई समाज रिश्तों और सिस्टम की निगाहों के सामने–
ये बे धुआं आग है कहां सबको दिखेगी–
ये जिसमें लगी है–
राख और अस्थियां उसको ही दिखेगी–
ये सांसों पर लगी आग पानी से नहीं सांसों से बुझेगी–
मौत के इंतजार में बिछी थी अंत की आंखें–
ये कौन पहना गया खून का कफन–
जिंदा लास पर—
बक्त अब आवाज देकर कह रहा है कि बस्तियों के नाम बदलने चाहिए–
एक उस वनवास के बसेरे को–
बस्तियों का नाम देना चाहिए–
बस्तियों का नाम वद्धा आश्रम–
होना चाहिए–
अंत को पनाह मिले उस तीर्थ धाम का–
नाम मोक्ष धाम होना चाहिए–
यह भी आरोप ही होगा कि सरकारें कुछ नहीं कर रही हैं पर यह भी गलत नहीं है कि बदलते परिवेश में बुढ़ापे को वनवास तो मिल रहा है ये रिश्तों का कड़वा सच आज किसी एक की मुसीबत में भी नहीं है दौरे फैशन कुछ एक को छोड़कर हर तरफ चल गया यह भूलकर कि पेड़ फल देना बंद भी कर दे तब भी छाया तो देता ही रहता है इसी तरह हमारे बुजुर्ग बुढ़ापे में हमारे दहलीज पर बैठे घर का पता देते हैं,हर बला इनसे पहले टकराएंगी तब जाकर अंदर पहुंचेगी ये दुआओं के बो हाथ है जिसके सिर पर रखे हों तो असमय मौत भी आकर लौट जाएगी,इनके दहलीज पर उपस्थित मात्र से घराना ऊंचा दिखता है,नाकि ऊंचे मकानों पर बैठे सन्नाटों से–
जिस घर में यह हंसते और खांसते होंगे उस घर में नमी नहीं आती है- एक छोटी सी कमाई की बरकत इतनी बड़ी होती हो जाती है कि दौलतों के ढेर सरमा जाते हैं–
आज बुढ़ापे का सहारा मात्र व्रद्धा आश्रम हैं या त्रिमासिक बो पेंशन जो दवा और चश्मा की पूर्ति के लिए भी बहुत कम पड़ रही है–ऊपर से तीन महीने या महीनों के इंतजार में आंखें भूंखी प्यासी एसे ढूंढती है जैसे कि परदेशी श्रवण पुत्र के आने पर निगाहें टिकी हो- खैर सरकार जो भी इनके भरण-पोषण के लिए दे रही है उसे त्रिमासिक से मासिक किया जाना जरूरी का विषय होना चाहिए और व्रद्धा आश्रम को एसी देख रेख में देना होगा जो खुद की भूंख में बुढ़ापे की भूंख का निवाला ना खा जाए–
यह हमारे खुद के कवरेज किये हुए हालातों के अनुभव बोल रहे हैं और हमने live,वीडियो भी पूर्व में viral, किये हैं कि बहुत से ऐसे बुजुर्ग पाए गए हैं जो दवा चश्मा और साबुन खान पान को लेकर आप बीती दवी जुबानों से छिपकर बताने की कोशिश कर रहे थे और घोटाले बाज हमारे साथ साथ साए की तरह इस लिए लगे रहते थे कि हमारी पोल कोई बुजुर्ग न खोल दें इस स्वार्थी सोच में मानव के अंदर इमोशन भाव नहीं बचे हैं अगर एसा होता तो कोई बुजुर्ग अपने खून पसीने से बनाया घर छोड़कर वनवास तो नहीं जाता है आज के बदलते परिवेश में हमें बहुत से बदलाव करने होंगे रिश्तों की परवरिश और देखरेख के लिए महिला सुरक्षा के लिए क्यों कि अब बो समाज नहीं रहा जो परिवार की भूमिका में हमारा साथ देता था आज आंख- कान और जुबान-बंद करके मुसीबत में आदमी-आदमी को पैर रखकर निकल जाता है आदमी- तब हमें नये नियम और कानून भी उसी तरह के बदलने होंगे।
लेखिका-पत्रकार-दीप्ति चौहान।✍️

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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