नई शिक्षा नीति-20 की सफलता तभी संभव है जब पढ़ाई का स्तर बढ़ेगा : डा. रक्षपाल सिंह

नई शिक्षा नीति-20 की सफलता तभी संभव है जब पढ़ाई का स्तर बढ़ेगा : डा. रक्षपाल सिंह

अलीगढ । डा. बी. आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के पूर्व अध्यक्ष एवं प्रख्यात शिक्षाविद डा .रक्षपाल सिंह ने कहा है कि जब कभी भी देश की सत्ता पर काबिज केन्द्र की किसी सरकार ने देश के लिये शिक्षा नीति का निर्माण किया है तो उसका लक्ष्य रहा है कि देश में शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर देश के बच्चों एवं युवाओं को गुणवत्तापरक शिक्षा मिले ।सन
1963/64, 1986/92 में बनी शिक्षा नीतियों का भी यही लक्ष्य था । नीतियों की लक्ष्य पूर्ति के लिये सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की होती है कि उन नीतियों के क्रियान्वयन में उपयुक्त ,चाक-चौबंद निगरानी व नियन्त्रण व्यवस्था हो ,लेकिन दुखद यहहै कि उसके अभाव के चलते हालातों की विवशता के कारण विकृतियां एवं भ्रष्टाचार पनपता है।

असलियत यह है कि इन्हीं कारणों की वज़ह से शिक्षा नीति -1986/92 के क्रियान्वयन के दौरान दुर्व्यवस्थायें , अनियमितताएं पनपती रहीं हैं । लेकिन उनके निस्तारण की दिशा में किसी भी सरकार ने सोचना तक गवारा नहीं किया। जो स्वच्छ और पारदर्शी प्रशासनिक व्यवस्था के लिए आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में कहते हुए मुझे बड़ी पीड़ा और दुख है कि विगत लगभग 15 साल के कांग्रेस एवं 12 साल के भाजपा शासनकाल में भी उक्त विकृतियां पनपती रहीं और वह दिन -ब-दिन सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती चली गयीं।

डा . रक्षपालसिंह सिंह ने वेदना के साथ कहा है कि इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से ही देश के अधिकांश हिन्दी प्रदेशों में 80 प्रतिशत से अधिक स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों में क्वालीफायड शिक्षकों की नियुक्तियां नहीं हुई, और ना ही पठन- पाठन की ओर ही कोई ध्यान दिया गया । यही नहीं उन कालेजों में तथाकथित विद्यार्थियों की शिक्षा सत्र में शून्य उपस्थिति, विषयों के प्रयोगात्मक कार्य शून्य और खेलकूद व सांस्कृतिक गतिविधियों कतई नहीं होने ,बी एड व बी. टेक जैसे महत्वपूर्ण पाठ्यक्रमों की प्रवेश परीक्षाओं में शून्य एवं शून्य के आस पास अंक लाने वालों का प्रवेश होना तथा जुगाड़ से डिग्री प्राप्त कर लेना आदि विकृतियां अभी भी जारी हैं। विडम्बना यह कि ईमानदारी का ढिंढोरा पीटने वाली भाजपा सरकार के समय में भी वे और तेजी से पनप रही हैं और उन पर अंकुश लगने की आशा-आकांक्षा बेमानी है। आश्चर्य तो यह है कि केन्द्र सरकार इससबके बारे में जानते-समझते हुए भी चुप्पी साधती रही है। ऐसी स्थिति में यह कैसे मान लिया जाए और जैसा कि दावा किया जा रहा है कि शिक्षा में आमूल चूल परिवर्तन होगा या हो सकेगा तथा शिक्षा गुणवत्तापरक बन पायेगी । यह ही सबसे बड़ा विचार का विषय है।

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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