रीयल खो गई और रील रह गई—

,रीयल खो गई और रील रह गई—
सोशल मीडिया पर उपलब्ध रोजगार आज कल रील बनाकर कमाने का नया धंधा जो चला है उसमें अच्छाई तो कम है पर बुराई इतनी है कि देश का युवा इस कमाई पर इस तरह आकर्षित हो रहा है कि सामने कत्ल हो रहा है और बो रील बना रहा है-अपनी बहन की भी रील बनाने से नहीं-खुद मुर्दा, और प्रेमिकाओं की ब्लेक रील बनाकर कमाई करने से भी कोई परहेज़ नहीं पर आज हमने इतनी दिमागी प्रोग्रेस जो कर ली है कि मनोरंजन के साथ साथ कमाई का साधन भी ढूंढ लिया है इस बदलते परिवेश में बैसे यदा-कदा को छोड़कर इंसान इंसान ही कहां बचा है सिर्फ खोल से इंसान की पहचान—पूरी तरह पैसे में गुम इंसान में न खून के लिए न मानव और देश समाज के लिए इमोशन बचे है पैसे के लिए आज इंसान रिश्तों का कत्ल कर रहा है स्त्री के चरित्र से खेल रहा है अगर समय रहते इस पर बैन नहीं लगा तो इंसान तो बहुत पीछे रह गया जानवरों की तुलना करना भी हमारे समाज के लिए मूंक जानवरों का अपमान करने के बराबर—
इस रील के लिए एक मां बच्चे को कुएं में लटका कर रील बना रही है और बच्चा दहशत और डर से रो रहा तड़प रहा है पर पैसे के लिए मां नजर नहीं आई एक स्वार्थी स्त्री–
प्रेमिकाएं प्रेमियों के हाथों चीरहरण हो रही हैं याता यात बाधित हो रहे जिंदा इंसान कफन पहन कर मैन रोड पर रील बना रहा है लोग इमोशनल होकर देख रहे हैं यह सौभाविक भी है मानवता के लिए,पर पीछे ऐम्बुलेंस सीरियल मरीज को जल्दी पहुंचाने की जगह उस जिंदा मुर्दे से यातायात बाधित में खड़ा कितनी सर्मनाक हरकतें हो रही है समाज मे और हमारा सिस्टम तब तक जागता है जब कितनी जिंदगियों की साम हो जाती है पहले देश का युवा एक हाथ में शराब दूसरे में शबाब लेकर चलता था आज काली रील बनाकर आबरू से कमाई कर रहा है क्योंकि कि जब मुफ्त में मनोरंजन के साथ साथ सेलरी भी बन रही है फिर भाड़ में जाए देश,और समाज, और भविष्य,इन सब हालातों को लाने बाले हमारे सिस्टम,और माता पिता, और कानून, हैं जो अपराध की वैरायटी तो भिन्न भिन्न दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है पर सिस्टम वही ढांक के तीन पात जरा जरा सी बात पर जेल भरो और जेल भी आज-कल एसे अपराध के मोक्ष मंदिर है जो निकल कर सीधे कुर्सी की डिग्री लेकर आते है-
पर सच तो यही है क्या एक अपराधी जनहित कर सकता है जो प्रशासन,शराब और स्मोकिंग,पराई स्त्री की सुरक्षा की जगह खुद– क्या सिस्टम समाज को भय और नशा मुक्त कर सकता है राजनीति,और शिक्षा के बदलते मायनों ने मानवता का पलायन–
महान भारत की स्त्री की पदवी कभी देवी से की जाती थी आज कहने और बताने की जरूरत ही नहीं है अंधों को भी–चंद दिनों और घंटों के बाद जाने कितने दुशासन मंदिरों की लायन में पत्थरों की देवी पूजते दिखाई दे जाएंगे कितने अनाड़ी भक्ति है सोचकर सारे पापों को मोक्ष मिल जाएगा, फिर तो इंसान और देवताओं में कोई भिन्नता ही नहीं बचेगी-
विडम्बना तो देखो आज कि हम कहां से कहां पहुंच गये भीड़ इतनी कि जमीन कम पड़ रही है और इंसान फिर भी अकेला है नादान तो बो है जो मंजिलों की दूरियां नापते हैं–
जबकि पास बैठा शख्स कितनी दूर है।
दीप्ति,✍️

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

यह खबर /लेख मेरे ( निशाकांत शर्मा ) द्वारा प्रकाशित किया गया है इस खबर के सम्बंधित किसी भी वाद - विवाद के लिए में खुद जिम्मेदार होंगा

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