एक पृष्ठ हमारे स्वार्णिम #इतिहास का
स्कंदगुप्त_विक्रमादित्य.

चौथी-पांचवी ई. सदी की बात है तब धरती पर #इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था। #तुर्क और #मंगोल इलाकों में तब #हूणों का आतंक बरसता था। संभवतः तुर्क और मंगोलों की मौजूदा पीढ़ियों के मूल पूर्वज #हूणकबीलों से ही जुड़े थे। चीन के पश्चिमोत्तर मंगोल जनजातियों से लेकर आज के यूरोप में हंगरी तक असंख्य चींटियों की तरह दल बांधकर आक्रांत हूण जब चाहे जहां चाहे धावा बोलते थे। मध्य एशिया समेत समूचे #रोमनसाम्राज्य को थर्रा देने वाले दुर्दान्त और #बर्बर_हूण आक्रांन्ताओं के सामने विश्व की समस्त प्राचीन सभ्यताएं मटियामेट हो गई थीं। आज भी हूणों का सबसे दुर्दान्त नायक अटिला यूरोप में मानवता के अभिशाप के रूप में पढ़ाया और बताया जाता है।
हूणों का नाम सुनते ही तब के समूचे चीन में कंपकपी दौड़ जाती थी। क्योंकि उसके पूरे पश्चिमोत्तर सरहदी इलाकों में उसके सारे प्रान्तीय रणबांकुरे हूणों को देखते ही भाग खड़े होते थे और चीन को जब जहां चाहते, हूणों के दल रौंद डालते थे। हूणों से बचने के लिए तब चीन के लोगों ने स्थान-स्थान पर तेजी से #सरबुलन्द #दग्रेटवॉलऑफचाइना का निर्माण किया ताकि हूणों के हमलों से बचने के लिए स्थायी बन्दोबस्त किए जा सकें।
कल्पना करिए, जिन हूणों ने प्राचीन ग्रीक, प्राचीन रोम, प्राचीन मिस्र और ईरान को ज़मींन्दोज़ कर डाला वही हूण जब #भारत की धरती पर टिड्डीदल की तरह टूटे तब उनके साथ क्या घटित हुआ था? वाराणसी के समीप गाजीपुर जनपद में स्थित #औड़िहार और #भितरी के खंडहर सारी लोमहर्षक गाथा बयान करते हैं। आज भी इस इलाके में माताएं बच्चों को सुलाते हुए कहती हैं-बचवा सुतजा नाहीं त हूणार आ जाई, बेटा सो जा नहीं तो हूण आ जाएगा।
हूणों के विरुद्ध उस महासमर में जिसका प्रारंभ औड़िहार की धरती से हुआ था और जिसका व्यापार गुजरात से लेकर कश्मीर यानी पूरे पश्चिमोत्तर भारत तक फैल गया, उसी युद्ध का नेतृत्व करने उतर पड़ा था वह महायोद्धा जिसका नाम इतिहास में #स्कन्दगुप्तविक्रमादित्य के नाम से अमर हुआ। यही कारण है कि वह भारत रक्षक सम्राटों की पंक्ति में सबसे महान और सबसे शीर्ष पर इतिहास में स्थापित हुआ। महान इतिहासकार प्रो. आरसी मजूमदार ने स्कन्दगुप्त की वीरता को नमन करते हुए उसे #दसेवियरऑफइंडिया कहकर पुकारा।
इतिहास स्रोत संकेत करते हैं कि अत्यंत युवावस्था में उसने समरांगण में सैन्यदल की कमान हाथ में ली और फिर उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। गान्धार-तक्षशिला को नष्ट-भ्रष्ट करते गंगा की घाटी में वाराणसी-गाधिपुरी तक चढ़ आए 3 लाख से अधिक खूंखार हूणों के अरिदल को उसने अपने बाहुबल- बुद्धिबल से प्रबल टक्कर दी और अंततः संसार में अपराजेय हो चुके हूणों को न केवल भारत की धरती से उखाड़ फेंका, बल्कि उनकी रीढ़ इस कदर तोड़ दी कि फिर हूण दुनिया में अपनी पहचान बचाने को भी तरस गए। स्कन्दगुप्त ने जो घाव #हूणों को दिए, उसकी टीस लिए हूणों की समूची प्रजाति का रूप ही बदल गया. मध्य एशिया के दूसरे कबीलों में छुपकर और पहचान बदलकर आततायी हूण सदा के लिए समाप्त हो गए।
इतिहास स्रोत यह भी बताते हैं कि मात्र 45 अथवा 50 वर्ष की उम्र तक ही संभवतः वह जीवित रहा। युद्ध में लगे अनगिनत घावों के कारण उसकी जीवनलीला संभवतः समय से पहले ही समाप्त हो गई, किन्तु भारत के इतिहास में वह नवयुवक अपनी कभी न मिटने वाली अमिट समर-गाथा छोड़ गया। कालचक्र उस युवा का पुनःस्मरण करता है, भूमि आज भी अपने उस वीरपुत्र को देखने के लिए आवाज देती है। गंगा की कल-कल लहरों में वह आज भी दृश्यमान प्रवाह रूप में दिखाई देता है।
आजीवन वह रणभूमि में ही जूझता रहा, परिणामतः जो मुट्टीभर हूण बचे भी तो जीवित रहने के लिए वो शिव-शिव हरि-हरि जपने को बाध्य हो गए। कौन थे हूण? कहां से आए थे? क्या चाहते थे?