1398 की कड़ाके की सर्दियों में, भारत की रंगीन जमीन पर एक काला साया पड़ गया। तैमूर

1398 की कड़ाके की सर्दियों में, भारत की रंगीन जमीन पर एक काला साया पड़ गया। तैमूर, एक तुर्क सरदार जिसे “टेमरलान” के नाम से जाना जाता था, उपमहाद्वीप पर चढ़ आया, और अपने पीछे तबाही का तांडव मचा कर चला गया। उसकी नजरें दिल्ली पर थीं, तुगलक वंश का गढ़, जो पहले से ही आपस की लड़ाइयों से कमजोर पड़ चुका था। इतिहासकार रिचर्ड एम. ईटन अपनी किताब “इंडिया इन द एज ऑफ अकबर” में, उस समय की सुल्तानत की हालत का बयान करते हैं: “दिल्ली सल्तनत एक बंटा हुआ घराना बन चुका था, इसकी एक बार की ताकत इलाकों में आपसी लड़ाइयों और कमजोर बादशाहों की वजह से टूट चुकी थी।”

तैमूर की फौज, जो सालों की लड़ाइयों में माहिर हो चुकी थी, सिंधु नदी पार कर ली। उसके आने की निशानी के तौर पर मुल्तान और भटनेर जैसे शहरों के जलते हुए खंडहर रह गए। इतिहासकार इकबालदर आलम खान अपनी किताब “द अर्ली मीडिवल इंडियन सुल्तानेट्स” में, इन जीतों की बेरहमी का वर्णन करते हैं: “तैमूर की मुहिमों में कत्लेआम, शहरों की लूटपाट और धार्मिक और सांस्कृतिक ठिकानों को तबाह करना शामिल था।”

दिसंबर में दिल्ली पहुंचकर, तैमूर का सामना हुआ सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद शाह तुगलक से, जिसकी हौसला पस्त हो चुकी फौज हमलावर की बेरहमी का मुकाबला नहीं कर सकी। इतिहासकार शिबा प्रसाद अपनी किताब “मेडीवल इंडिया: फ्रॉम मुहम्मदन कॉन्क्वेस्ट टू अकबर” में, इस जंग का वर्णन करते हैं, जो बहुत तेज और बेरहम थी: “एक ज़माने की शानदार दिल्ली की फौज तैमूर के हमले के आगे टूट गई, जिससे शहर बेखौफ और कमजोर हो गया।”

दिल्ली के गिरने के बाद एक हफ्ते तक ऐसा खौफनाक मंजर देखने को मिला, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। लूट की भूख से ग्रस्त तैमूर ने शहर पर अपना गुस्सा उतार दिया। इतिहासकार जॉन ई.एफ. हॉल अपनी किताब “ए हिस्ट्री ऑफ सेंट्रल एशिया” में, उस भयानक वक्त का वर्णन करते हैं: “नरसंहार, लूटपाट और धार्मिक स्थलों की बेअदबी तैमूर के राज के दौरान दिल्ली की रोज़मर्रा की ज़िंदगी बन गई। वह शहर, जो कभी समृद्धि और सभ्यता की निशानी था, अब खंडहरों में तब्दील हो चुका था, उसकी रूह टूट चुकी थी।”

तैमूर के हमले का असर सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित नहीं रहा। दिल्ली के आसपास के इलाकों में रहने वाले किसान समुदाय, जाटों को भी उसकी बेरहमी का सामना करना पड़ा। इतिहासकार आंद्रे विंक अपनी किताब “अल-हिंद: द मेकिंग ऑफ द इंडो-इस्लामिक वर्ल्ड” में लिखते हैं: “जाट, जो अपने मजबूत हौसले के लिए जाने जाते थे, उन्हें तैमूर के गुस्से का पूरा सामना करना पड़ा। उनके कई गांव तबाह कर दिए गए और अनगिनत जिंदगियां खत्म हो गईं।”

हालांकि तैमूर का हमला ज्यादा समय तक नहीं चला, लेकिन इसने भारत के इतिहास पर गहरी छाप छोड़ दी। इस हमले ने बंटी हुई सुल्तानत की कमजोरियों को उजागर कर दिया, इसकी आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था को कमजोर कर दिया और उस सुरक्षा के ख्याल को तोड़ दिया जो कभी हुआ करता था।

इतिहासकीएक_झलक

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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