विकास ने पुलिस क़ो मारा
पुलिस ने विकास क़ो मारा
फिर दोनों में अंतर क्या रहा? दोनों क़ानून की निगाह में मुजरिम ही हुए।
लेकिन, अगर विकास क़ो न मारा जाता तो फिर उसे सही में कठोर सजा होती इसकी भी क्या गारंटी थी? मंत्री संतोष शुक्ला की थाने में घुसकर हत्या के बाद भी वह बच निकला था जबकि 16 पुलिस वाले घटना के चश्मदीद थे।
मतलब हमारा सिस्टम सड़ चुका है। तभी हम सड़क पर सजा ए मौत का जश्न मानाने लगे हैं। अपराधी कितना भी दुर्दांत क्यों न हो, हर एक एनकाउंटर हमारी न्यायिक व्यवस्था की विफलता का स्मारक होती है। लेकिन एनकाउंटर करने की नौबत ही क्यों आती है? इस लाख टके के सवाल क़ो जान बूझकर शासन सत्ता नजरअंदाज करता रहा है।
अगर हर जिम्मेदार कुर्सी अपनी भूमिका सही से निभाए। पुलिस ईमानदारी से जाँच करे। ठोस सबूत जुटाए। समय से चार्जशीट दाखिल करे। कोर्ट में स्पीडी ट्रायल हो। सरकारी वक़ील जबरदस्त पैरवी करें। तो जल्द से जल्द अपराधियों क़ो सजा मिलेगी और न्यायपालिका में जनता जनार्दन का भरोसा भी जगेगा । लेकिन यह सब इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि सफेदपोशों से जुड़े मामलों में न पुलिस जमीर जिन्दा रखकर सही जाँच करती है और न ही कोर्ट में सही सबूत देती है। अगर पुलिस ईमानदार भी होती है तो न्ययिक तंत्र मैनेज हो जाता है। जज तक सेट हो जाते हैं। सरकारी वक़ील अपना ही केस हारने में भी जीत समझते हैं।
फिर ज़ब किसी मामले में हाय तौबा मचती है तो पुलिस जज बनती है और सड़क पर ही सजती है उसकी अदालत। फिर मिलता है अपराधियों क़ो सजा ए मौत।
एक अपराधी के मारे जानें पर फिर कानूनी सुराखों और सरंक्षण का फायदा उठाकर नया अपराधी पैदा होता है। फिर वही काल चक्र शुरू हो जाता है। नए अपराधी क़ो सब पालते हैं फिर ज़ब वह पागल हाथी बन जाता है तो फिर से कोर्ट से बाहर निपटा देने की रणनीति तैयार होती है। यह अंतहीन सिलसिला चल उठता है।
जिस सिस्टम के कचरे क़ो हमेशा के लिए साफ करने से माफियावाद मिट सकता है उसे कोई करना नहीं चाहता। क्योंकि खेल में बड़े-बड़े खिलाडी हैं। हर खिलाड़ी के अपने खेल हैं।