यूपी: नगरीय निकाय चुनाव से पहले हाईकोर्ट का स्पष्ट रुख- ‘ट्रिपल टेस्ट के बिना आरक्षण अनुचित’

नगरीय निकाय चुनाव की तैयारियों में जुटे राज्य निर्वाचन आयोग की नजर अब हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ पर टिक गई है। बुधवार को यहां नगरीय निकायों में ओबीसी आरक्षण को लेकर सुनवाई होनी है। बुधवार तक हाई कोर्ट ने निकाय चुनाव की अधिसूचना जारी करने पर भी रोक लगा रखी है। ऐसे में बुधवार को हाई कोर्ट के रुख के बाद ही चुनाव आयोग अगला कदम बढ़ाएगा। वहीं, राज्य निर्वाचन आयुक्त मनोज कुमार ने मंगलवार को प्रमुख सचिव गृह संजय प्रसाद व एडीजी कानून व्यवस्था प्रशांत कुमार से शांतिपूर्ण व निष्पक्ष चुनाव की तैयारियों का जायजा लिया। नगरीय निकायों का कार्यकाल 15 जनवरी तक अलग-अलग तारीखों में समाप्त हो रहा है।
‘बिना ट्रिपल टेस्ट के ओबीसी आरक्षण अनुचित’
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने प्रदेश में नगर निकाय चुनावों की अधिसूचना जारी करने पर लगाई गई रोक बुधवार तक के लिए बढ़ाते हुए दोहराया कि ट्रिपल टेस्ट के बिना ओबीसी आरक्षण लागू करना संविधान सम्मत नहीं है। अगली सुनवाई बुधवार को होगी। यह आदेश जस्टिस देवेन्द्र कुमार उपाध्याय व जस्टिस सौरभ श्रीवास्तव की पीठ ने वैभव पांडेय व अन्य की ओर से दाखिल अलग-अलग याचिकाओं पर पारित किया गया।
इससे पहले अपर महाधिवक्ता विनोद कुमार शाही एवं अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता अमिताभ राय ने पीठ से कहा कि उनके पास अभी मामले में राज्य सरकार की ओर से पूरे दिशा निर्देश नहीं आए हैं, लिहाजा सुनवाई बुधवार तक के लिए टाल दी जाए। इस बीच राज्य सरकार की ओर से अमिताभ राय कोर्ट के दखल पर अपनी बात रखने लगे, जिस पर पीठ ने कहा कि सरकार को यह समझना होगा कि ओबीसी आरक्षण लागू करने की प्रक्रिया संवैधानिक व्यवस्था है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा है। बिना सुप्रीम कोर्ट के आदेश का अनुपालन किए ओबीसी आरक्षण को लागू करने देना कानूनसम्मत नहीं होगा। सरकार की ओर से पेश अमिताभ राय ने सफाई दी कि पांच दिसंबर 2022 को जारी ड्राफ्ट नोटीफिकेशन में सीटों का आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक न हो, इस बात का पूरा ख्याल रखा गया है। इस पर पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के संबंधित निर्णय व संविधान का अनुच्छेद 16(4) पढ़ने को कहा।
‘ट्रिपल टेस्ट अध्ययन का विषय रैपिड सर्वे नहीं’
कोर्ट ने कहा कि न सिर्फ शीर्ष अदालत का निर्णय बल्कि संविधान की भी यही व्यवस्था है कि ओबीसी आरक्षण जारी करने से पहले पिछड़ेपन का अध्ययन किया जाए। कोर्ट ने सरकार को यह भी ताकीद की है कि अध्ययन का अर्थ रैपिड सर्वे नहीं होना चाहिए। याचिकाओं में आरोप लगाया गया है कि ओबीसी आरक्षण में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन नहीं किया गया है। सुप्रीम कोर्ट का निर्देशों के अनुसार निकाय चुनावों में ओबीसी आरक्षण जारी करने से पहले ट्रिपल टेस्ट किया जाना चाहिए, इसके बिना ही पांच दिसंबर 2022 को सरकार ने निकाय चुनावों के लिए ड्राफ्ट नोटीफिकेशन जारी कर दिया। 12 दिसंबर को कोर्ट ने उक्त ड्राफ्ट नोटीफिकेशन के साथ चुनाव की अधिसूचना जारी करने पर भी रोक लगा दी थी।
हाई कोर्ट ने राज्य सरकार से कहा कि- समझना होगा कि यह संवैधानिक व्यवस्था है। निकाय चुनाव की अधिसूचना जारी करने पर रोक बरकरार आज भी होगी सुनवाई ट्रिपल टेस्ट। किसी प्रदेश में आरक्षण के लिए निकाय के पिछड़ेपन की प्रकृति और निहितार्थ की जांच के लिए आयोग की स्थापना की जाए। चुनाव आयोग की सिफारिशों के मुताबिक आरक्षण का अनुपात तय करना आवश्यक । किसी भी मामले में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/ अन्य पिछड़ा वर्ग के पक्ष में कुल आरक्षित सीटों का प्रतिशत 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।
यह है मामला
5 दिसंबर को उत्तर प्रदेश सरकार ने नगर निगमों और नगर पालिका परिषद और नगर पंचायतों के अध्यक्षों में महापौर की सीटों के लिए आरक्षण की घोषणा करते हुए एक मसौदा अधिसूचना जारी की, जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ, यह प्रावधान किया गया कि चार महापौर सीटें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षित होंगी। मसौदा आदेश में कहा गया कि अंतिम आदेश देने से पहले, राज्य 7 दिनों के भीतर जनता से कोटा आवंटन पर आम जनता से आपत्तियां आमंत्रित कर रहा था। इससे असंतुष्ट होकर, याचिकाकर्ताओं ने मसौदा अधिसूचना को चुनौती देते हुए मौजूदा जनहित याचिका के साथ हाईकोर्ट का रुख किया, यह तर्क देते हुए कि राज्य सरकार उत्तर प्रदेश राज्य में विभिन्न स्तरों पर नगरपालिकाओं के चुनाव कराने की प्रक्रिया में है, हालांकि आरक्षण प्रदान करने के लिए सुरेश महाजन बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य, 2022 LiveLaw (SC) 463 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन नहीं किया जा रहा है क्योंकि आज तक ट्रिपल टेस्ट की औपचारिकता पूरी नहीं हुई है। दूसरी ओर, राज्य ने तर्क दिया कि राज्य ने अब तक केवल एक मसौदा आदेश जारी किया है और आपत्तियां आमंत्रित की हैं, और इस प्रकार, जो कोई भी उक्त मसौदा आदेश से असंतुष्ट है, वह अपनी आपत्तियां दर्ज कर सकता है, और इस उद्देश्य के लिए फाइलिंग कर सकता है। मौजूदा जनहित याचिका याचिका समय से पहले दायर की गई थी। यह भी तर्क दिया गया था कि यदि ‘ट्रिपल टेस्ट’ के लिए कोई कवायद की जाएगी, तो इससे चुनाव की प्रक्रिया में केवल देरी होगी, जो नगरपालिकाओं के लोकतांत्रिक ढांचे की अवधारणा के खिलाफ होगा। हमारे पाठक नोट कर सकते हैं कि सुरेश महाजन केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि शहरी निकाय चुनावों के उद्देश्य से अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए कोई आरक्षण प्रदान नहीं किया जा सकता है, जब तक कि संबंधित राज्य विकास किशनराव गवली बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्य LL 2021 SC मामले में निर्धारित ट्रिपल टेस्ट औपचारिकताओं को पूरा नहीं करता है। संदर्भ के लिए, विकास किशनराव गवली मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ओबीसी श्रेणी के लिए आरक्षण का प्रावधान करने से पहले एक ट्रिपल टेस्ट का पालन करना आवश्यक है। उक्त ट्रिपल टेस्ट के अनुसार- (1) राज्य के भीतर स्थानीय निकायों के रूप में पिछड़ेपन की प्रकृति और निहितार्थों की एक समकालीन कठोर अनुभवजन्य जांच करने के लिए एक समर्पित आयोग की स्थापना करना; (2) आयोग की सिफारिशों के आलोक में स्थानीय निकाय-वार प्रावधान किए जाने के लिए आवश्यक आरक्षण के अनुपात को निर्दिष्ट करना, ताकि अतिव्याप्ति का उल्लंघन न हो; और (3) अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित कुल सीटें, कुल 50 प्रतिशत से अधिक न हो। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सुप्रीम कोर्ट ने आगे निर्देश दिया है कि यदि राज्य चुनाव आयोग द्वारा चुनाव कार्यक्रम जारी करने से पहले इस तरह की कवायद पूरी नहीं की जा सकती है, तो सीटों (अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित को छोड़कर) को सामान्य श्रेणी के लिए अधिसूचित किया जाना चाहिए। सोमवार को इस मामले की सुनवाई के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने शुरुआत में कहा कि न्यायालय के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक था कि क्या शहरी स्थानीय निकायों के चुनावों के लिए सीटों को आरक्षित करने की प्रक्रिया में राज्य सरकार सुरेश महाजन (सुप्रा) के मामले में शासनादेश का पालन हो रहा है या नहीं। इसलिए याचिका पर विचार करते हुए कोर्ट ने राज्य से जवाब मांगा था कि क्या 5 दिसंबर को ड्राफ्ट ऑर्डर जारी करने से पहले ‘ट्रिपल टेस्ट’ पूरा हो गया था। कोर्ट ने राज्य को ड्राफ्ट ऑर्डर के आधार पर कोई भी अंतिम आदेश देने से भी रोक दिया था।