
ये लकीरें एक रेडियो एक्टिव लहर की सूरत में मांस पर बनना शुरू होती हैं! इन लहरों को भी आकार DNA (आनुवंशिक) देता है। किंतु आश्चर्य की बात ये है कि पड़ने वाली लकीरें किसी सूरत में भी पूर्वजों और धरती पर रहने वाले अन्य इंसानों से बिलकुल भी मेल नहीं खातीं!
यानी लकीरें बनाने वाला इस तरह से समायोजन रखता है कि वो खरबों की तादाद में इंसान जो इस दुनियाँ में हैं, और जो दुनियाँ में नहीं रहे, उनकी उँगलियों में मौजूद लकीरों की शेप और उनके एक एक डिजाइन से अच्छे से परिचित है।
यही वजह है कि वो हर बार एक नए अंदाज का डिजाइन उसके उँगलियों पर बनाकर के ये साबित करता है।
है कोई मुझ जैसा निर्माता?
है कोई मुझ जैसा कारीगर?
कोई है मुझ जैसा आर्टिस्ट?
कोई है मुझ जैसा कलाकार?
आश्चर्य की सोच इस बात पर खत्म होती है कि यदि जलने से जख्म लगने या किसी अन्य कारण से ये फिंगरप्रिंट मिट जाए, तो दुबारा हुबहू वही लकीरें जिनमें एक कोशिका की कमी नहीं होती फिरसे बन जाती है।
पूरी दुनिया मिलकर भी इंसानी उंगली पर अलग अलग लकीरों वाली एक फिंगरप्रिंट नहीं बना सकती.
कोई तो है जो चला रहा है।