श्रद्धेय स्वामीजी श्रीशरणानन्दजी महाराज (मानव सेवा संघ वृंदावन)(‘सन्त-उद्‌बोधन’ पुस्तक से)

संतवाणी


 
अपने से भिन्‍न जो कुछ भी प्रतीत होता है, वह कभी भी अपना नहीं है, अपने लिए नहीं है । इस सत्य को अपनाकर जो अपने में है, अपने हैं, उन्हीं को अपने को समर्पित कर सदा के लिए उन्हीं की प्रीति हो जाना अपना जीवन है । जो अपना जीवन है, वही उनका स्वभाव है । पर यह रहस्य तभी स्पष्‍ट होता है, जब प्रभु-विश्‍वासी साधक अचाह, अप्रयत्‍न होकर सदा के लिए शरणागत हो जाय । शरणागति कोई अभ्यास नहीं है, अपितु विश्‍वास है । निज-ज्ञान से असंगता और आस्था, श्रद्धा, विश्‍वास से आत्मीयता स्वीकार करना रसरूप जीवन की प्राप्‍ति का अचूक उपाय है ।
 
यदि अपने को ‘अपना’ प्रिय नहीं हो सकता, तो प्रियता की प्राप्‍ति का और कोई उपाय हो ही नहीं सकता । जिस प्रकार निर्ममता के बिना निर्विकारता एवं निष्कामता के बिना चिरशान्ति तथा असंगता के बिना जीवन्मुक्ति सम्भव नहीं है, उसी प्रकार आस्था, श्रद्धा, विश्‍वास के बिना अखण्ड-स्मृति तथा अगाध-प्रियता सम्भव नहीं है । इस दृष्‍टि से शीघ्रातिशीघ्र वर्तमान में ही पराधीनता, नीरसता एवं अभाव का अन्त करना है । आस्था, श्रद्धा, विश्‍वासपूर्वक अपने में अपने प्रेमास्पद को स्वीकार कर निश्‍चिन्त तथा निर्भय हो जाएँ, सफलता अवश्यम्भावी है ।
 
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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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