वाह रे उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन
बड़का बाबू की अजब कहानी नाच न जाने आंगन टेढ़ा
लखनऊ —- उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन में अवैध रूप से तैनात अनुभव विहीन भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों द्वारा निजीकरण का एक फार्मूला तैयार किया गया जिसको की उत्तर प्रदेश शासन को भेजा गया ताकि वहां से स्वीकृत होकर वापस आए और यह बड़का बाबू पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम को बेचकर अपनी जेब गर्म कर सके परंतु अनुभवहीनता की प्रकाष्ठा तो देखिए कि वह फार्मूला जो इन बड़का बाबू लोगों ने तैयार करवाया था वह जो मसौदा जो तैयार हुआ था पीपीपी मॉडल के रूप में उसको उत्तर प्रदेश के वित्त विभाग ने वापस भेज दिया है और यह कहा है कि इसमें बहुत सारी कमियां है इनको दूर करिए दूसरी तरफ आ गया महाकुंभ जो कि पूरा जनवरी और फरवरी तक चलेगा और फरवरी माह में ही बजट सत्र है जिसमें की यह निजीकरण का मसौदा सदन में नहीं रखा जा सकता अगर रखा जाएगा तो हंगामा पक्का है और अगर कुंभ से पहले रखा जाएगा तो कुंभ में भी हंगामा पक्का है तो उनकी अनुभवहीनता उनके ऊपर ही भारी पड़ी और अपने जेब भरने के चक्कर में साफ सुथरी योगी सरकार की किरकिरी करवाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहे यानी खिसियानी बिल्ली खम्मा नोच रही है अब जो वितरण निगम में अवैध रूप से बैठे हैं वह बड़का बाबू है उनको यूपीपीसीएल में बैठे बड़का बाबू निर्देशित कर रहे हैं की अभियंताओं और कर्मचारियों को जितना हो सके उत्पीड़न करो संविदा कर्मियों को भी नहीं छोड़ा जा रहा है और दोष दिया जा रहा है की ओटीस में पर्याप्त काम नहीं हो रहा रजिस्ट्रेशन नहीं हो रहे हैं इसी की आड़ लेकर कर्मचारी और अभियंताओं को निलंबित कर प्रताड़ित करने की एक सोची समझी रणनीति चली जा रही है यह सब शुरू हुआ 22 दिसम्बर को जब संयुक्त संघर्ष समिति ने लखनऊ के फील्ड हॉस्टल में निजीकरण के विरोध में पंचायत बुलाई थी
तो दूसरी तरफ चर्चा है कि उसी दिन विभागीय मंत्री जी ने भी इन बड़का बाबुओं के साथ मिलकर इस उत्पीड़न की पट कथा लिखी चर्चा है कि यह बैठक बहुत ही गोपनीय तरीके से बुलाई गई थी यहां तक की इसमें निदेशकों को भी शामिल नहीं किया गया था मात्र एक निदेशक को छोड़कर उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन के बैठक के बाद ही यह उत्पीड़न का कार्यक्रम शुरू किया गया अब देखने वाली बात यह है कि इस उत्पीड़न में यह अवैध रूप से नियुक्त बड़का बाबू जीतते हैं या निजीकरण का विरोध कर रहे कर्मचारी इनको हराने में कामयाब होते हैं वैसे अगर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में चाहे डीडीयू आरजीजीवाई-10, 11, 12 न्यू, सौभाग्य, एडीबी और अब आरडीएसएस के नाम से लाखों करोड़ की योजनाओं के तहत, जनहित के नाम पर, विद्युतीकरण एवं सुदृढ़िकरण के कार्य राज्य के कल्याण रुप में कराये गये हैं। जिनमें सभी ने (चाहे प्रबन्धन हो या कार्मिक) कड़ी बद्ध होकर, अपने-अपने हित साधने में कहीं कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते है। जिसका जीता जागता प्रमाण है एचटी एबीसी केबिल का लगते ही खराब हो जाना। जोकि अब जगह-जगह छोटे छोटी कतरन के रुप में पड़ी हुई है। विद्युत चोरी से बचाव के लिये प्रयुक्त एलटी एबीसी केबिल एवं उसकी अतिरिक्त वस्तुओ की गुणवत्ता कुछ इस प्रकार की है, कि वो लगते ही खराब हो जाती है। परिवर्तकों की कहानी भी ऐसी ही है कि 10 MVA के ढाचे में 8 MVA के परिवर्तक, गुणवत्ता की जांच में सफल होने के बाद, 10 MVA की क्षमता में क्रय किये जाते हैं। वितरण निगमों के तराजू अर्थात विद्युत मीटर की स्थिति यह है कि आये दिन कभी किसी कम्पनी के, तो कभी किसी कम्पनी के मीटर लगाये जाने का निर्णय लिया जाता है। अर्थात ऊर्जा प्रबन्धन वितरण निगमों से ज्यादा, विद्युत मीटर उद्योगों के भविष्य के प्रति चिन्तित है। जांच समितियों का मूल कार्य ही भ्रष्टाचारियों को बचाना एवं मार्ग में आने वाले ईमानदार एवं निष्ठावान लोगों को आरोपी बनाना है। यदि निजीकरण से पूर्व सिर्फ सुधार के नाम पर किये गये कार्यों की उपयोगिता, मात्रा, गुणवत्ता एवं उन पर किये गये व्यय का, उनके बाजार भाव से तुलनात्मक परीक्षण किसी विश्वसनीय संस्था से करा लिया जाये तो दूध का दूध पानी का पानी हो जाऐगा । सर्वविदित है कि चाहे गुणवत्ता का परीक्षण हो या आडिट सबकुछ हिस्सेदारी के अनुसार ही होता है। विदित हो कि जो विभाग प्रतिवर्ष लगभग रु० 6000 करोड़ के घाटे से डूब रहा हो, प्रबन्धन में बैठे अधिकारियों की गोपनीय आख्यायें उत्कृष्ठ लिखी जाती हों और उन्ही के इशारे पर इनके चहेतो की भी उनकी समय पर पदोन्नत्तियां होती हों और मनचाही पोस्टिग की जाती है ,
तो कुछ भी कहने के लिये शेष नहीं रह जाता। सब कुछ स्वतः स्पष्ट हो जाता है। यदि बार-बार नित्य नये-नये प्रयोग करने के नाम पर जनता के धन को बर्बाद करने वाले प्रबन्धन के उत्तरदायित्व तय करने के आदेश हो जायें, तो रातों-रात घाटे से बेहाल, यही ऊर्जा निगम, रातों-रात लाभ के मार्ग पर चल निकलेंगे। आये दिन कार्मिकों की कमी के बावजूद, बात-बात पर निलम्बित करके घर बैठाकर वेतन देकर विभाग पर वित्तीय भार बढ़ाने के स्थान पर, उनकी उचित उपयोगिता पर बल दिया जाने लगेगा। यदि निजीकरण रोकना है तो राजनीतिक कल्याण की आड़ में चल रहे गोरखधन्धे को रोकना ही होगा अब देखना यह है कि होने वाली 7 जनवरी को रिव्यू मीटिंग में कितने अधिकारी वर्ग कर्मचारी निलंबित किए जाते हैं। खैर *युद्ध अभी शेष है*