ये तस्वीर बहुत कुछ कहती है…इसको गौर से बहुत गौर से देखिए…

ये तस्वीर बहुत कुछ कहती है…इसको गौर से बहुत गौर से देखिए…

जी हाँ, होली के अवसर पर जब लोग अपने अपने परिवारीजनो,इष्ट मित्रों, शुभ चिंतकों के संग रंगों में सराबोर हो रहे थे उसी समय एक सख्श ऐसा भी था जो एटा जनपद के एक वृद्धाश्रम में निराश्रित वृद्धजनों पुरुष और महिलाओं के बीच पहुंच कर उनकी जिंदगी के मानवीय अहसास के वास्तविक रंगों को कुरेद रहा था…

वो जिंदगी के इन्ही रंगों से कुछ रंग चुनकर जिंदगी की वास्तविक होली खेलना चाहता था…

अपने खुद के लाडलो के तिरिष्कर से हाड़ मांस के कमजोर और जर्जर पड़ चुके चलते फिरते इंसानी पुतलों के मानिंद जिंदा बचे रह गए इन मानवीय शरीरों की कमजोर कद काठी और उनके पिचके हुए गालों के साथ अंदर धंसी हुई आंखों से निकल रही इन निराश्रित वृद्धजनों की एक अजीब सी आशा और चमक बहुत कुछ बयां कर रही थी..

वो समझने की कोशिश कर रहा था झुर्रीयुक्त चेहरों की भाषा… वो पढ़ने की कोशिश कर रहा था एक ऐसी इबारत जो इन वृद्धजनों के खुद के जने हुए लाडले सपूतों ने उनके माथे पर हमेशा के लिए लिख दी थी…

वो परेशान था देश के ऐसे तथाकथित सपूतों के बारे में सोचकर जिनके लिए माँ बाप से बढ़कर भी इस दुनिया मे कुछ हो सकता है…

आज एक शख्त कठोर पुलिस प्रशाशक से इतर उसका नम्र मानवीय चेहरा भौतिकता की चकाचौंध में सुप्त हो चुकी मानवीय संवेदनाओं के कोमलतम तारों को झंकृत कर देना चाहता था…जगा देना चाहता था ऐसे कुपुत्रों के अंतःकरण में दम तोड़ चुकीं मानवीय संवेदनाओं को….
वो होली के अवसर पर ऐसे समस्त निराश्रित वृद्धजनों के लिए रंग, अबीर, गुलाल, गुझियां, मिठाईयां, फल ,साड़ियां और अन्य कपड़े लेकर उनके अपने पुत्रों और परिवारीजनों के रिक्त हुए स्थान को भरने की एक छोटी सी कोशिश करने पहुंचा था… वो भी अपने पूरे पुलिस परिवार के साथ…

पुलिस का ऐसा मानवीय चेहरा मैंने इससे पहले न कभी देखा था न सुना था…

आज पुलिस की डंडा वाली छवि के विपरीत करुणा, दया और मानवीयता की छवि देखकार लगा कि पुलिस केवल पुलिस नही होती उससे इतर भी बहुत कुछ होती है …आज खाकी पूरे समाज के सामने धर्म और अधर्म की पूरी व्याख्या कमजोर और निराश्रित वृद्धों की मदद करके प्रस्तुत कर रही थी…
गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही लिखा है….

“परहित धर्म सरसि नही भाई
पर पीड़ा सम नहीअधमाई”…

यानी दूसरों का हित करने से बड़ा कोई धर्म नही और दूसरों को पीड़ा पहुचाने से बड़ा कोई अधर्म नही……..

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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