देशभक्ति का नया नाप : 56 इंच से आगे, पेट, जेब और पोस्टर(व्यंग्य : मज़्कूर आलम)

देश में ऐसे ऐतिहासिक क्षण बार-बार नहीं आते, जब लाल किले के प्राचीर से भाषण सिर्फ़ अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति या विकास योजनाओं पर न होकर, सीधे आपकी कमर, पेट और जेब की परिधि पर वार करे। इस वर्ष (2025) का स्वतंत्रता दिवस इसी श्रेणी में रखा जायेगा — प्रधानमंत्री ने मोटापे को राष्ट्रीय चिंता घोषित किया, साथ ही आर्थिक मोर्चे व राष्ट्र-छवि सुधार के नए नुस्ख़े भी पेश किये। अब यह देश के नागरिकों को समझना है कि पेट और पगार दोनों का आकार कंट्रोल में रखना ही असली राष्ट्र निर्माण है, क्योंकि जब पेट और जेब दोनों हल्के हों, तो मन अपने आप भारी-भरकम देशभक्ति से भर जाता है।

पेट और देशभक्ति — एक सीधा संबंध

देशभक्ति मापने के लिए पहले इंच-टेप इन्होंने इस्तेमाल किया था। कभी 56 इंच के सीने पर ज़ोरदार जोश उबलता था। फिर ताली-थाली पर। अब बात पेट तक आ पहुँची है। अंतर्राष्ट्रीय मंच पर आपकी छवि सिर्फ़ विदेश नीति से नहीं, बल्कि पेट की गोलाई से तय होती है — जिस तरह जी-20 में सूट सिलवाने से पहले शरीर नापा जाता है, उसी तरह वैश्विक राजनीति में देश की छवि मापने से पहले पेट तौला जाता है।

और यहीं प्रवेश करते हैं हमारे राष्ट्रवादी चिंतक दिलीप सी मंडल — वे महापुरुष, जिनका कलम कभी सत्ता के ख़िलाफ़ तलवार की तरह चला करता था, पर आज सरकारी नारों के लिए मृदंग की तरह बजता है। उनका हालिया वक्तव्य — “इतना मत खाओ कि फट जाओ”— कोई सामान्य सलाह नहीं, बल्कि गहन राष्ट्रवादी उद्घोषणा है। मानो कह रहे हों— ‘जो थाली संभाल न पाये, वह देश क्या संभालेगा’।

विचारधारा और चर्बी का प्रबंधन

याद दिला दें — यही देसी चिंतक 2018 में गर्व से बताते थे कि 2001 से पहले संघ मुख्यालय में तिरंगा फहराने की परंपरा नहीं थी, और यह कोर्ट के आदेश के बाद ही शुरू हुआ। तब उनकी नज़र देश के सीने की माप पर थी। आज वही निगाह देश के पेट की माप और उसके भूगोल पर है।

यह बदलाव किसी को ‘यू-टर्न’ लग सकता है, लेकिन दरअसल यह ‘विकासशील मानसिकता’ है — जो सही समय पर हल्की हो जाये, वही लंबे समय तक टिकती है। विचारधारा और चर्बी, दोनों का यही सिद्धांत है— अवसर देखकर घटाओ, ज़रूरत पड़ने पर बढ़ाओ।

कह सकते हैं, यह देशभक्ति का ‘लो-फैट’ संस्करण है— कम वसा, ज़्यादा स्वाद।

पगार पर नयी राष्ट्रीय दृष्टि

प्रधानमंत्री जी की एक और घोषणा — अगर किसी परिवार से कोई सदस्य पहली बार प्राइवेट नौकरी में जायेगा, तो सरकार उसे पंद्रह हज़ार रुपये देगी। सुनने में यह योजना मोटापा घटाने जितनी ही आकर्षक है, लेकिन इसमें भी ‘कैलोरी चार्ट’ छिपा है — सरकारी नौकरी की थाली अब इतनी छोटी हो गयी है कि उसमें सबको बैठाना संभव नहीं, इसलिए कहा जा रहा है कि जाओ, कहीं और खाओ, लौटो तो थाली में मिठाई रख देंगे।

अगर इस पर हमारे देसी चिंतक कुछ लिखते, तो शायद कहते — “सरकारी नौकरी छोड़ो, पंद्रह हज़ार लो और राष्ट्रहित में कॉरपोरेट कैंटीन का पित्ज़ा खाओ। ये भी एक तरह का उपवास है, क्योंकि तनख्वाह का आधा हिस्सा टैक्स में वापस राष्ट्र को जायेगा।”

यानी आपको नौकरी भी निजी करनी है, और पेट भी निजी रखना है — सरकार सिर्फ़ ताली और थाली बजाने का कॉन्ट्रैक्ट रखेगी।

टैरिफ की दीवार और राष्ट्रहित

इसी भाषण में टैरिफ वार पर भी बात आयी। घोषणा हुई कि विदेशी अनाज, दूध, मछली आयी और किसान-मछुआरे बर्बाद हो जायें — ऐसा हमारे रहने तक नहीं होगा। विदेशी माल रोकने के लिए दीवार खड़ी रहेगी।

हमारे देसी चिंतक ने इस पर तुरंत कहा— “मोदी हैं, तो किसानों, मछुआरों और पशुपालकों को चिंता करने की ज़रूरत नहीं।”

अब यह बात अलग है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिले या न मिले, मछुआरों की नाव किनारे सड़े या सागर में, लेकिन विदेशी दूध रोकने का संकल्प ही असली राष्ट्रभक्ति है, क्योंकि पेट भले खाली हो, पर वह विदेशी नहीं होना चाहिए।

स्वतंत्रता सेनानियों की कतार और बैकग्राउंड की राजनीति

और इस बीच, स्वतंत्रता दिवस के हफ़्ते में ही, पेट्रोलियम मंत्रालय ने शुभकामना पोस्ट में गांधीजी को थोड़ा साइड में खिसका दिया और वीर सावरकर को बीच में और उनसे ऊपर खड़ा कर दिया। यह सिर्फ़ ग्राफिक डिज़ाइन नहीं, बल्कि एनर्जी सेक्टर में नयी ऊर्जा नीति है — जिसमें पेट्रोल, डीज़ल और पोस्टर में पोज़िशनिंग, सब रणनीतिक मानी जाती है।

हमारे देसी चिंतक को देखकर पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं — जब वे ऐतिहासिक तथ्य सुधार में उतने ही तत्पर थे जितने स्वास्थ्य सुझावों में आज हैं। कभी वे बताते थे कि सावरकर ने छह नहीं, सिर्फ़ पाँच माफ़ीनामे दिये थे। तब यह संख्या की राजनीति थी, आज यह फोटो के कोण की। फ़र्क बस इतना है कि पहले इतिहास का वज़न तौला जाता था, अब फोटो में पेट और बैकग्राउंड का।

महँगाई और संयम का अद्भुत तालमेल

महँगाई के इस दौर में देर रात भोजन त्यागना, मीठा और तेल कम करना — ये सब न सिर्फ़ स्वास्थ्य के लिए अच्छे हैं, बल्कि रसोई गैस, बिजली और दाल-तेल की खपत भी घटाते हैं। यह मानना पड़ेगा कि हमारे देसी चिंतक का स्वास्थ्य अभियान, वित्त मंत्रालय की ‘कमी की नीति’ के साथ बखूबी मेल खाता है। इसीलिए वे इन चीज़ों के साथ अपने फेसबुक पोस्ट में उपवास की बातें भी करते हैं।

असल में, उपवास यहाँ धार्मिक-सांस्कृतिक क्रिया नहीं, बल्कि एक आर्थिक रणनीति है — ग़म खाओ, कम खाओ, बचत करो और बचाये पैसों से बिजली का बिल भरो। इससे पेट का आकार भी घटेगा और सरकारी सब्सिडी का बोझ भी। यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि देश के बजट में जो कमी है, वह आपके पेट से पूरी हो जायेगी।

वजन घटाने और विचार परिवर्तन की समानता

दोनों में पहला कदम है — त्याग। जैसे चीनी छोड़ना कठिन होता है, वैसे ही पुराने आलोचनात्मक वक्तव्यों को छोड़ना भी। लेकिन जब दिलीप सी मंडल ने 2018 वाला वक्तव्य डिलीट कर दिया, तो देसी चिंतक ने एक विचार कम किया, जैसे शरीर से एक किलोग्राम वजन घट गया हो और जब सावरकर की माफ़ी वाला डिलीट करेंगे, जो एक-दो दिन में कर ही देंगे, तो 1008 ग्राम वजन और कम कर लेंगे। फिर आता है प्रतिस्थापन — चीनी की जगह गुड़ और आलोचना की जगह प्रशंसा। शुरुआत में स्वाद अजीब लगता है, मगर कुछ दिन बाद पेट भी हल्का लगता है और सोशल मीडिया टाइमलाइन भी।

ये वही प्रक्रिया है, जिसमें मोटापा घटता भी है और सरकार का वजन आपके कंधों से उतरकर आपकी जेब में बैठ जाता है।

निष्कर्ष

देशभक्ति का यह नया पंचकोण चार्ट है — पेट, पगार, टैरिफ, पोस्टर पॉलिटिक्स और सोशल मीडिया संतुलन। इन पाँचों का संतुलन साधना ही असली राष्ट्रीय कर्तव्य है। जो व्यक्ति कभी विचारधारा के बोझ तले हाँफ रहा था, वही आज पेट-नियंत्रण, विदेशी माल-प्रतिरोध और बैकग्राउंड मैनेजमेंट का झंडाबरदार है।

इसलिए, देसी चिंतक की सलाह को हल्के में न लें— हल्का तो आपको होना है, सलाह को नहीं, क्योंकि अब देशभक्ति का असली मापदंड बढ़ा हुआ 56 इंच सीना नहीं, बल्कि पेट, जेब और पोस्टर का नाप है। बाकी बिचार-विचार सब बस बकवास है।

(‘नया पथ’ से साभार। लेखक पत्रकार और साहित्यकार हैं। संपर्क : 9717861898)

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

यह खबर /लेख मेरे ( निशाकांत शर्मा ) द्वारा प्रकाशित किया गया है इस खबर के सम्बंधित किसी भी वाद - विवाद के लिए में खुद जिम्मेदार होंगा

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