
दुनिया की अर्थव्यवस्था एक बड़े भूचाल से गुजर रही है। अमेरिका का संरक्षणवाद जहाँ हर बार वैश्विक व्यापार को झटका देता है, वहीं यूरोप की विकास दर लगातार सुस्त पड़ी है। एशिया में चीन, वियतनाम और इंडोनेशिया जैसी अर्थव्यवस्थाएँ आक्रामक रूप से प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। यह साफ है कि पुरानी नीतियों पर टिके रहना अब सुरक्षित विकल्प नहीं है।
भारत के सामने अवसर भी हैं और चुनौतियाँ भी। अवसर यह कि सही नीतिगत फैसलों से वह न केवल झटकों से सुरक्षित रह सकता है, बल्कि स्थायी और मज़बूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभर सकता है। चुनौती यह कि कई आंतरिक कमज़ोरियाँ उसकी प्रगति की रफ्तार को रोक सकती हैं।
- निर्यात का विविधीकरण
भारत का कुल निर्यात 2023-24 में लगभग 776 अरब डॉलर तक पहुँचा, लेकिन इसका बड़ा हिस्सा अमेरिका और यूरोप पर निर्भर है। इन क्षेत्रों की मंदी सीधे भारत को प्रभावित करती है। अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के उभरते बाजारों में अवसर तलाशना और उच्च मूल्य वाले उत्पादों (सेमीकंडक्टर, दवा, रक्षा उपकरण, डिजिटल सेवाएँ) पर ध्यान देना अनिवार्य है।
- औद्योगिक ढाँचा – अवसर और बाधा
भारत में विनिर्माण की हिस्सेदारी अभी भी जीडीपी का 17% ही है। “मेक इन इंडिया” और “पीएलआई योजना” सकारात्मक हैं, लेकिन बिजली की ऊँची लागत, जटिल कर प्रणाली और श्रम सुधारों की अधूरी प्रक्रिया उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मकता घटाती है। छोटे और मध्यम उद्योग तकनीकी आधुनिकीकरण और सस्ती पूँजी की कमी से जूझ रहे हैं।
- तकनीक आधारित छलांग
आईटी, फार्मा और डिजिटल पेमेंट्स ने भारत की वैश्विक पहचान बनाई है। लेकिन कृत्रिम बुद्धिमत्ता, ग्रीन एनर्जी और बायोटेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में भारत अभी शुरुआती चरण में है। अनुसंधान एवं विकास (R\&D) पर भारत का खर्च जीडीपी का केवल 0.7% है, जबकि चीन 2% और अमेरिका 3% से अधिक खर्च करते हैं। बिना वैज्ञानिक निवेश के, वैश्विक तकनीकी दौड़ में भारत पिछड़ सकता है।
- वैश्विक साझेदारियाँ
मुक्त व्यापार समझौते से आगे जाकर भारत को तकनीकी सहयोग और संयुक्त अनुसंधान पर ध्यान देना होगा। भारत-अमेरिका आईसीईटी पहल, भारत-जापान डिजिटल साझेदारी और भारत-ऑस्ट्रेलिया आपूर्ति श्रृंखला सहयोग सही दिशा हैं। परंतु भारत को अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में निवेश और क्षमता निर्माण के माध्यम से अपनी सॉफ्ट पावर भी बढ़ानी होगी।
- आंतरिक चुनौतियाँ – भारत की असली परीक्षा
भारत के सामने सिर्फ बाहरी नहीं, कई आंतरिक चुनौतियाँ भी हैं—
- बुनियादी ढाँचा: रेल, बंदरगाह और लॉजिस्टिक लागत अभी भी प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में अधिक है।
- शिक्षा और कौशल: लगभग 12 मिलियन युवा हर साल रोजगार बाजार में आते हैं, लेकिन उनमें से बड़ी संख्या उद्योगों की ज़रूरतों के मुताबिक प्रशिक्षित नहीं है।
- बेरोज़गारी: उच्च विकास दर के बावजूद रोजगार सृजन अपेक्षित स्तर पर नहीं हो रहा।
- स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा: श्रमिक उत्पादकता पर इनकी कमी का सीधा असर पड़ता है।
- कृषि निर्भरता: अब भी 40% से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है, जबकि कृषि का योगदान जीडीपी में घटकर लगभग 15% है।
अगर इन आंतरिक बाधाओं को दूर नहीं किया गया, तो बाहरी अवसर भी भारत को वांछित लाभ नहीं दे पाएँगे।
भारत के सामने पाँच प्रमुख स्तंभ स्पष्ट हैं—
- निर्यात का विविधीकरण
- औद्योगिक ढाँचे की मजबूती
- तकनीकी छलांग और R\&D निवेश
- रणनीतिक वैश्विक साझेदारियाँ
- आंतरिक सुधार और कौशल विकास
यदि भारत इन पाँचों पर संतुलित ध्यान देता है तो वह न केवल झटकों से सुरक्षित रहेगा, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में नेतृत्व की भूमिका निभा सकता है। परंतु यदि आंतरिक चुनौतियों को नजरअंदाज किया गया, तो वैश्विक अवसर भी हाथ से निकल सकते हैं। आने वाला दशक यही तय करेगा कि भारत केवल एक “बड़ी अर्थव्यवस्था” रहेगा या एक वैश्विक आर्थिक मॉडल, जिस पर दुनिया भरोसा करेगी।