
स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री का भाषण एक राष्ट्रीय अवसर होना चाहिए, पर बार-बार यह एक चुनावी मंच में बदल जाता है। इस वर्ष भी वही हुआ। लाल किले के प्राचीर से जब प्रधानमंत्री ने जीएसटी सुधारों को दीवाली गिफ्ट कहा, तो असल सवाल यह था कि आखिर यह गिफ्ट किससे छीना गया था और किसे लौटाया जा रहा है? याद रहे, जीएसटी का मूल स्वरूप जनता पर बोझ डालने वाला था, जिसे विपक्ष ने चेताया, पर सत्ता और विज्ञापन से बंधक बने मीडिया ने इसे दबा दिया।
जीएसटी की सच्चाई यह है कि इसने छोटे कारोबारियों, मध्यम वर्ग और उपभोक्ताओं को लगातार निचोड़ा है। स्वास्थ्य बीमा जैसी बुनियादी आवश्यकताओं पर भी 18% कर वसूला जा रहा है। राहुल गांधी और नितिन गडकरी जैसे नेता भी इसे जीवन पर टैक्स कह चुके हैं। फिर भी सरकार ने इसे वर्षों तक जस का तस रखा। अब चुनावी मौके पर स्लैब कम करने की घोषणा कर दी जाती है। यह राहत नहीं, बल्कि स्वीकृति है कि जनता से मनमाना वसूला गया।
दूसरा बड़ा मोर्चा है प्रधानमंत्री द्वारा डेमोग्राफिक साजिश का राग अलापना। सवाल उठता है—ग्यारह साल सत्ता में रहने के बाद अचानक यह साजिश क्यों याद आई? घुसपैठियों पर बयानबाज़ी हर चुनाव में दोहराई जाती रही है, लेकिन ठोस कार्यवाही और पारदर्शी नीति कभी सामने नहीं आई। ठीक वैसे ही जैसे काले धन के नाम पर नोटबंदी की गई थी—पर न काला धन मिला, न जवाबदेही तय हुई। अब वही रणनीति नए नाम से दोहराई जा रही है।
मीडिया की भूमिका सबसे चिंताजनक है। अधिकांश अखबार प्रधानमंत्री के भाषण को जस का तस चुनावी प्रचार की तरह परोसते हैं। इंडियन एक्सप्रेस और द टेलीग्राफ को छोड़ दें, तो आलोचनात्मक दृष्टि लगभग गायब है। स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र की धड़कन है; जब वही सत्ताधारी दल के लिए प्रचार विभाग बन जाए तो जनता के अधिकार कुचल जाते हैं। किसान आंदोलन की पीड़ा, एमएसपी पर अधूरी वादाखिलाफी, अस्पतालों की दुर्दशा, फर्जी मतदाता सूची के आरोप—इन सब पर खामोशी और दीवाली गिफ्ट का शोर—क्या यही स्वतंत्रता का जश्न है?
आरएसएस की प्रशंसा का प्रसंग भी उल्लेखनीय है। एक गैर-पंजीकृत संगठन, जिसपर तीन बार प्रतिबंध लग चुका है, उसे प्रधानमंत्री राष्ट्रीय उपलब्धि का प्रतीक बताते हैं। यह लोकतांत्रिक संस्थाओं के समानांतर वैचारिक ढांचे को वैधता देने जैसा है। सवाल उठना चाहिए, पर मीडिया चुप है।
आज की स्थिति यही है: लोकतंत्र में विपक्ष कमजोर, मीडिया बंधक और जनता गुमराह। लेकिन यह भी याद रखना होगा कि जनता की स्मृति इतनी क्षीण नहीं कि हर चुनावी गिफ्ट को भूल जाए। नोटबंदी, जीएसटी, कृषि कानून, अधूरी वादाखिलाफी—ये सभी घाव हैं, जिन्हें कोई चुनावी पटाखा नहीं ढक सकता।
निष्कर्षतः लाल किले से दिया गया भाषण एक राष्ट्रीय दृष्टि नहीं बल्कि चुनावी घोषणापत्र जैसा था। लोकतंत्र तभी जीवित रहेगा जब जनता इस गूंज में छिपी खामोशियों को सुनेगी—और उन सवालों को पूछेगी जिन्हें मीडिया पूछने से डरता है।