आरएसएस : साम्राज्यवाद, फासीवाद और नाजी विचारधारा को फैलाने का हथियार(आलेख : एम. ए. बेबी, अनुवाद : संजय पराते)

प्रत्येक भारतीय को अपानी मान्यताओं के अनुसार जीने की स्वतंत्रता है। यही हमारे संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के मूल्य का आधार है। साथ ही, इसका यह भी अर्थ है कि धर्म को शासन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। फिर भी, जिन्होंने संविधान की रक्षा की शपथ ली है, वे इन दोनों सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं। वे धीरे-धीरे भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ में बदलने की परियोजना को क्रियान्वित कर रहे हैं। यह एक ऐसी योजना है, जिस पर दशकों से काम चल रहा है। हम इसे उनके कामों में देख रहे हैं : जैसे कि बाबरी मस्जिद को गिराकर उसी स्थान पर राम मंदिर बनाना। ऐसे कानूनों का क्रियान्वयन, जो केवल धर्म के आधार पर जनता के एक बड़े तबके को नागरिकता से वंचित करते हैं, इसी दिशा में एक और कदम है।

नागरिकता के संबंध में दो मुख्य दृष्टिकोण मौजूद हैं। एक है जन्म से नागरिकता (जस सोली)। दूसरा है नस्ल और संस्कृति पर आधारित नागरिकता (जस सैंगुइनिस)। इनमें से, संविधान सभा में अगस्त 1949 में नागरिकता पर हुई बहस के बाद, भारतीय संविधान ने जन्म से नागरिकता के आधुनिक दृष्टिकोण को बरकरार रखा। संविधान सभा में भी, धर्म को नागरिकता का आधार बनाने के पक्ष में तर्क दिए गए थे। बहरहाल, संविधान सभा ने इस तर्क को खारिज कर दिया। संविधान सभा द्वारा स्वीकृत स्थिति यह थी कि धार्मिक पहचान के आधार पर नागरिकता प्रदान करना एक प्रगतिशील समाज के लिए उपयुक्त नहीं है। कोई भी राष्ट्र, जो धर्म को नागरिकता का आधार बनाता है, वह धर्मनिरपेक्ष राज्य नहीं, बल्कि एक धर्मशासित राज्य है। भारत को ऐसे धर्मशासित राज्य में बदलना असंवैधानिक है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5 से 11 नागरिकता के प्रश्न को हल करते हैं। अनुच्छेद 5 (ए) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत की सीमाओं में जन्मा कोई भी व्यक्ति भारतीय नागरिक होगा। बहरहाल, बाद में इसमें विचलन हुआ है। 1986 में राजीव गांधी सरकार और 2003 में बाजपेयी सरकार द्वारा किए गए संशोधनों ने इस रुख को कमजोर कर दिया है। 2003 के संशोधन में, विशेष रूप से एक प्रावधान शामिल किया गया था कि माता-पिता में से एक अवैध अप्रवासी नहीं होना चाहिए। इसे वास्तव में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) का पहला संस्करण कहा जा सकता है, जिसे हम आज देख रहे हैं। हालांकि यह भाजपा द्वारा तैयार किया गया है, लेकिन यह ध्यान देने की बात है कि 2010 में दूसरी यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) की तैयारी के लिए कदम उठाए थे। भाजपा सरकार एक कदम और आगे बढ़ी और उसने नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) तैयार करने के अपने इरादे की घोषणा की।

संघ परिवार का दावा है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम मौजूदा नागरिकों को प्रभावित नहीं करेगा। बहरहाल, केंद्रीय गृह मंत्री ने संसद के अंदर और बाहर दोनों जगह कहा, क्रोनोलॉजी समझिए। वह क्रोनोलॉजी क्या थी? पहले सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) आएगा, फिर एनआरसी (नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर) आएगा। यही क्रम है। जो लोग उचित दस्तावेज प्रस्तुत करने में असमर्थ हैं, उन्हें एनआरसी में शामिल होने के लिए सीएए मानदंडों के आधार पर सत्यापन से गुजरना होगा। फिर कोई कैसे कह सकता है कि सीएए मौजूदा नागरिकों को प्रभावित नहीं करेगा? एनआरसी की तैयारी के दौरान, जो लोग अपने माता-पिता के जन्म स्थान सहित विवरणों के सटीक उत्तर देने में असमर्थ हैं, उनकी नागरिकता संदेह के घेरे में आ जाएगी। हमने असम में एनआरसी लागू होने पर इसकी स्पष्ट तस्वीर देखी। लगभग 19 लाख लोगों को नागरिकता से वंचित किया गया। बाहर किए गए लोगों में से दो-तिहाई महिलाएं थीं।

यद्यपि संघ परिवार का मुख्य निशाना धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, फिर भी अशिक्षित और गरीब लोगों के पास भी आवश्यक दस्तावेज़ नहीं हो सकते। उनकी नागरिकता भी संदेह के घेरे में आ जाएगी। स्पष्ट दस्तावेज़ों के अभाव में आदिवासियों और ट्रांसजेंडरों की नागरिकता भी संदेह के घेरे में आ जाएगी। अनुमान है कि भारत में लगभग 42 प्रतिशत लोगों के पास जन्म प्रमाण पत्र नहीं है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि उनकी नागरिकता कैसे निर्धारित की जाएगी। इसका अर्थ है कि आवश्यक दस्तावेज़ों के अभाव में करोड़ों लोग भारतीय नागरिक नहीं रह जाएंगे। वे या तो हिरासत केंद्रों में बंद कर दिए जायेंगे या नागरिक अधिकारों से वंचित हो जायेंगे। यह एक काली सच्चाई है, जो हमारे सामने है।

भारत में आज हम जो देख रहे हैं, उसकी कुछ समानताएं नाज़ी जर्मनी से हैं — खासकर बिहार में मतदाता सूची में संशोधन के नाम पर भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) द्वारा हाल ही में उठाए गए कदम के मामले में, जो इस बात का संकेत देते हैं कि एनआरसी तैयार करने के लिए पिछले दरवाजे से प्रयास चल रहे हैं। 15 सितंबर, 1935 को, नाज़ी जर्मनी ने न्यूरेम्बबर्ग कानून लागू किया था, जो यहूदी-विरोधी और नस्लवादी कानूनों का एक समूह था। इसमें मुख्य रूप से दो कानून शामिल थे : रीच नागरिकता कानून और जर्मन रक्त तथा जर्मन सम्मान की सुरक्षा का कानून। पहले कानून में घोषणा की गई थी कि केवल ‘जर्मन या उससे संबंधित रक्त’ वाले लोग ही रीच के नागरिक हो सकते हैं। यहूदियों और अन्य ‘अवांछनीय’ माने जाने वाले लोगों को ‘राज्य के विषय’ के रूप में वर्गीकृत किया गया और उनसे नागरिकता के अधिकार छीन लिए गए, जिनमें मतदान का अधिकार, सार्वजनिक पद धारण करने और कानूनी सुरक्षा का आनंद लेने का अधिकार शामिल था। दूसरे कानून ने यहूदियों और ‘जर्मन या उससे संबंधित रक्त’ वाले नागरिकों के बीच विवाह और विवाहेतर संबंधों पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसने यहूदियों को 45 वर्ष से कम उम्र की जर्मन महिलाओं को अपने घरों में काम पर रखने से भी मना किया था और यहूदियों द्वारा जर्मन झंडा फहराने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था।

इन कानूनों ने यहूदी पहचान को धार्मिक से नस्लीय श्रेणी में बदल दिया था और वंश के आधार पर यह निर्धारित किया कि किसे यहूदी माना जाए, चाहे उनकी व्यक्तिगत मान्यताएं या धार्मिक प्रथाएं कुछ भी हों। जिन लोगों के तीन या चार यहूदी दादा-दादी थे, उन्हें यहूदी माना जाता था, जबकि जिनके एक या दो दादा-दादी थे, उन्हें अलग-अलग कानूनी स्थिति वाली ‘मिशलिंगे’ मिश्रित नस्ल का दर्जा दिया जाता था। न्यूरेम्बर्ग कानूनों ने यहूदियों के उत्पीड़न में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया, जिसने आगे भेदभाव, बहिष्कार और अंततः नरसंहार की नींव रखी। नाज़ी जर्मनी और आज के भारत के बीच विषयवस्तु और मकसद में समानताएँ इतनी स्पष्ट हैं कि उन्हें और अधिक समझाने की आवश्यकता नहीं है।

इन घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में, हमें यह याद रखना होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने 1920 और 1930 के दशक में अपने प्रारंभिक वर्षों के दौरान नाजी जर्मनी और फासीवादी इटली से प्रेरणा ली थी। हिंदू महासभा के अध्यक्ष और आरएसएस संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार के गुरु बी. एस. मुंजे की 1931 में मुसोलिनी से मिलने के लिए इटली की यात्रा करना, इटली के नाजीवादी और भारत में हिंदू राष्ट्रवादी हलकों के बीच फासीवादी विचारों के परागण में एक निर्णायक क्षण था। 15 से 24 मार्च, 1931 तक, बी. एस. मुंजे ने इटली की यात्रा की, जहाँ उन्होंने प्रधान मंत्री बेनिटो मुसोलिनी से मुलाकात की। अपनी डायरी में, मुंजे ने इटली के सैन्य पुनरुत्थान के लिए मुसोलिनी के दृष्टिकोण की प्रशंसा की और स्पष्ट रूप से कहा कि भारत और विशेष रूप से हिंदू भारत को हिंदुओं के सैन्य पुनरुत्थान के लिए किसी ऐसे संस्थान की आवश्यकता है।

अपने अनुभवों से प्रेरित होकर, मुंजे ने 1935 में सेंट्रल हिंदू मिलिट्री एजुकेशन सोसाइटी और 1937 में नासिक में भोंसला मिलिट्री स्कूल की स्थापना की, जिसका उद्देश्य हिंदू भारत का इसी तर्ज पर सैन्यीकरण करना था। बाद में आरएसएस ने इस मॉडल के कुछ पहलुओं को अपनाया, जिसमें भर्ती और संगठनात्मक संरचना में ओपेरा नाज़ियोनेल बलिला (इतालवी फ़ासीवादी युवा संगठन) से उसकी उल्लेखनीय समानताएँ थीं। मुंजे के प्रयासों और मुसोलिनी के तरीकों के प्रति उनकी प्रशंसा ने भारत में आरएसएस और उससे जुड़ी हिंदू राष्ट्रवादी संस्थाओं के सैन्यवादी और संगठनात्मक चरित्र को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने आरएसएस के संगठनात्मक विकास पर एक अमिट छाप छोड़ी है, जो इतालवी फ़ासीवादी युवा और अर्धसैनिक संरचनाओं के पहलुओं को प्रतिबिंबित करती है।

आरएसएस के शुरुआती नेता, जिनमें उनके दूसरे प्रमुख माधव सदाशिवराव गोलवलकर और विचारक विनायक दामोदर सावरकर शामिल थे, ने हिटलर और मुसोलिनी के शासन के पहलुओं की खुले तौर पर प्रशंसा की है। वे विशेष रूप से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा और एक प्रमुख जातीय या धार्मिक पहचान के इर्द-गिर्द समाज को संगठित करने के फासीवादी मॉडल से प्रभावित थे। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ (1939) में स्पष्ट रूप से हिटलर की नीतियों की प्रशंसा की है, जिसमें तर्क दिया गया है कि भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए और अल्पसंख्यकों के साथ उसी तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए, जैसे नाजियों ने यहूदियों के साथ किया था। इस पुस्तक ने आरएसएस की विचारधारा को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और संगठन को फासीवादी विचारों से जोड़ा है। गोलवलकर ने अपने सार्वजनिक भाषणों में आरएसएस के राष्ट्रवाद के दृष्टिकोण को फासीवादी और नाजी मॉडल से भी जोड़ा। अपने ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में उन्होंने मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को भारत के आंतरिक खतरे के रूप में वर्णित किया।

नाजी जर्मनी ने, नस्लीय न्यूरेम्बर्ग कानून लागू करने के कुछ ही समय बाद, सभी लोकतांत्रिक अधिकारों को पूरी तरह से समाप्त कर दिया और चुनाव कराना बंद कर दिया। सीएए, एनआरसी और बिहार में मतदाता सूची का पुनरीक्षण नाजी जर्मनी की नीतियां हैं, जिन्हें वर्तमान भारत के लिए उपयुक्त समझकर आरएसएस द्वारा लागू किया जा रहा है। यही कारण है कि सीपीआई (एम) ने वर्तमान भारतीय परिदृश्य को शास्त्रीय फासीवाद के विपरीत, नव-फासीवाद के रूप में सही ढंग से पहचाना है। सीएए नाजी रीच नागरिकता कानून की प्रतिध्वनि है। सीएए और एनआरसी, जब संयुक्त होते हैं, तो एक ऐसी व्यवस्था बनाते हैं, जहां नागरिकता धार्मिक पहचान से जुड़ी होती है। ये उपाय विशेष रूप से भारतीय मुसलमानों को लक्षित करते हैं, संभावित रूप से उन्हें द्वितीय श्रेणी के नागरिकों में बदल देते हैं या यदि वे आवश्यक दस्तावेज प्रस्तुत नहीं कर पाते हैं, तो उन्हें राज्यविहीन बना देते हैं। यह दर्शाता है कि कैसे नाजी कानूनों ने व्यवस्थित रूप से यहूदियों और अन्य अल्पसंख्यकों को अलग-थलग और वंचित किया।

एसआईआर प्रक्रिया, खासकर बिहार जैसे राज्य में, हाशिए पर पड़े समूहों, खासकर अल्पसंख्यकों, के मताधिकार से वंचित होने को लेकर गंभीर चिंताएँ पैदा कर रही है। इसे नौकरशाही की प्रक्रियाओं के इस्तेमाल से कुछ खास आबादी को राजनीतिक भागीदारी से वंचित करने के एक व्यापक पैटर्न के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए, जो नाज़ी जर्मनी द्वारा यहूदियों को सार्वजनिक जीवन से अलग-थलग करने के लिए कानूनी और प्रशासनिक तरीकों के इस्तेमाल की याद दिलाता है। नागरिकता को धार्मिक आधार पर परिभाषित करने और अल्पसंख्यकों को मताधिकार से वंचित करने के लिए कानून और नौकरशाही का इस दिशा में इस्तेमाल करना एक खतरनाक कदम हैं। कुल मिलाकर, यह एक विशाल और भयावह अभियान है, जो देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों और धर्मनिरपेक्षता के लिए बेहद ख़तरनाक भविष्य की ओर इशारा करता है। 1933 में नाज़ियों के सत्ता में आने के बाद जर्मनी में जो कुछ हुआ, उसकी भयावहता को याद किए बिना नहीं रहा जा सकता। उन्होंने भी यहूदियों के साथ भेदभाव करने के लिए क़ानून में बदलाव करके शुरुआत की थी। भारत में, ये नीतियाँ मुसलमानों और अन्य हाशिए पर पड़े समूहों को निशाना बना रही हैं, जिससे भारतीय लोकतंत्र के एक धर्मतंत्रीय राज्य में बदलने की गंभीर चिंता पैदा हो रही हैं।

जो लोग धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को विदेशी अवधारणाएँ बताकर विलाप करते हैं, वे वास्तव में अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए विदेशी साम्राज्यवादी, नाज़ी और फ़ासीवादी विचारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। हमें आरएसएस के सांप्रदायिक एजेंडे को उसी एकजुटता से हराना होगा, जिसने अंग्रेजों को हराया था। भारत का लोकतांत्रिक गणराज्य सभी भारतीयों के लिए, आरएसएस के समर्थन के बिना, बना था, क्योंकि आरएसएस स्वतंत्रता संग्राम से दूर रहा था। हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी, सिख और नास्तिक सभी ने एकजुट होकर संघर्ष किया था और ब्रिटिश साम्राज्यवाद को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। उस संघर्ष में कम्युनिस्टों सहित कई वीर देशभक्तों ने अपनी जान कुर्बान कर दी थी। इसलिए, यह सुनिश्चित करना हमारा कर्तव्य है कि यह देश सभी तबकों का हो और हमारी एकता बनी रहे।

(लेखक माकपा के महासचिव हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

यह खबर /लेख मेरे ( निशाकांत शर्मा ) द्वारा प्रकाशित किया गया है इस खबर के सम्बंधित किसी भी वाद - विवाद के लिए में खुद जिम्मेदार होंगा

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