“आज के विचार”

प्रिय ! जगत में सन्त परम सुखदायी…
( गो. श्री तुलसी दास जी )
मित्रों ! कल सत्संग-साधना से सीधे मैं यमुना
जी के दर्शन करने गया…तो उस समय मेरे आंनद
की कोई सीमा नही रही… जब मैंने उन सिद्ध महात्मा
जी के दर्शन किये… जिन्होंने मुझे कई
महीनों पहले मानसिक ध्यान की शिक्षा दी
थी…वो एक घने वट वृक्ष के नीचे बैठे थे
…और ध्यान में लीन थे…उन्हें देह सुध
नही थी…उनकी अन्तःकरण की वृत्ति इष्टाकार हो
गयी थी…। मैंने अपने साथ के साधक को भेज
दिया, और यही कहा मैं एक दो घण्टे में
आजाऊंगा मेरे घर में बोल देना…फोन मेरे पास
है नही ।
उनमें एक अद्भुत ऊर्जा थी…मैं उनके ही साथ
ध्यान में लीन हो गया… क़रीब एक घण्टे में
ध्यान उन महात्मा जी का पूरा हुआ… मुझे
उन्होंने देखा तो गम्भीर ही रहे । मुझ से
धीरे से पूछा कैसे आये हो ?… मैंने कहा
…भगवन् ! बस आपके दर्शन करने…वो थोड़ा
सा मुस्कुराये… फिर मौन । अब मैंने ही
अपनी बुद्धि की कुलबुलाहट खत्म करने की सोची
और महात्मा जी से मैंने अपनी कुछ जिज्ञासा रखी ।
महात्मन् ! साधक का मतलब क्या है ? उन्होंने
कहा… जो अपने अन्तःकरण को साधे वह साधक है ।
मैंने कहा ..भगवन् ! साधक के भी प्रकार
होते हैं ?… हाँ क्यों नही… कच्चे, और
पक्के… मैंने कहा… कौन कच्चे हैं और
कौन पक्के हैं… ?
चलो ! मेरी झोपड़ी में वही बैठकर चर्चा करेंगे
…फिर कुछ सोचकर बोले तुम्हारे पास समय तो
है ना ?… मैंने कहा… समय ही समय है
…आप की कृपा हो जाए बस ।
झोपड़ी में एक तरफ पानी का घड़ा रखा हुआ था
…उसके अलावा और कुछ नही था… कुशा का आसन था… और एक धोती सूख रही थी ।
वो उसी आसन में बैठे और एक और आसन मेरे लिए दिया हम दोनों बैठ गये आनंद से ।
- कच्चे साधक वो होते हैं… जो बोलना जानते हैं
…मात्र बातें बनाते हैं पर साधना करने के
नाम पर कहते हैं कि – हमारे करने से क्या होगा
जब वह चाहेगा तभी हो जाएगा ।
पर पक्के साधक वो होते हैं जो बोलते नही है
…करते हैं… मात्र बातें नही बनाते
साधना करते हैं… होगा तो उसके करने से
ही पर जब हम सांसारिक कर्म कर रहे हैं तो
भगवत् कर्म में डायलॉग क्यों ?
कच्चे साधक वो होते हैं जो उनके मन मुताबिक
बात कही जाए तो उसे ठीक मानते हैं… पर
थोड़ी भी उनके मन के मुताबिक चर्चा सत्संग में
नही हुयी… तो उनकी श्रद्धा गायब हो जाती है
…और तर्कों की झड़ी लग जाती है… पर पक्के
साधक वो होते हैं जो सन्त और गुरु जन जो कहते
हैं उसे वो विवेक से समझने का प्रयास करते हैं
…सीधे ज़िद्द नही करते कि ऐसा है ही नही
…और फिर अपने मन को उस सिद्धान्त के
अनुकूल बनाते हैं… न कि सिद्धान्त को मन
मुताबिक बनाना… बल्कि मन को सिद्धान्त के
अनुकूल बनाना ।
कच्चे साधक वो होते हैं… जो बात बात में
ये कहते हैं कि हम तो ख़ूब साधना करते हैं
…हम तो इतना भजन करते हैं… हम तो भगवान
की याद में रोते हैं… हमारा तो सबकुछ
उन्हीं का है… पर छोटी सी बात पर ही वो
भड़क जाते हैं और सारे अन्तःकरण की मलीन
वासनाएं प्रकट होने लग जाती हैं ।
पर सच्चे साधक तो वो होते हैं जो साधना करने
के बाद भी निरन्तर जप और ध्यान करने के बाद भी
ये कहते हैं कि, कहाँ ! हम जैसे लोगों से कहाँ
साधना होगी… हम कहाँ भक्ति और प्रेम को समझ
पायेंगे… जप तो बस नाटक के रूप में ही
करते हैं… लोगों को दिखाने के लिए, बाकी हम
तो नाना प्रकार के विषयों में फँसे हुये हैं ।
ये बात जब इन महात्मा जी के मुख से सुनी तो
मुझे अपने पागलबाबा की याद आगई… कल एक
बहुत बड़े सेठ जी आये थे… दिल्ली के थे
…किसी ने बता दिया होगा यहाँ पागलबाबा
रहते हैं… कुछ नही लेते… पैसा वैसा मत
ले जाना…तो वो आये थे… बाबा अपनी
निजानंद की मस्ती में बैठे थे… एक चित्रपट
लाये थे वो सेठ जी ..जिसमें श्री किशोरी जी से
ठाकुर जी मिल रहे हैं… एक हो रहे हैं
…ऐसा मधुर प्रेम…बाबा तो प्रेम मूर्ति हैं हीं… इस चित्रपट को देखते ही भावावेश में आगये… और थोड़ी ही देर में मूर्छित होकर गिर पड़े…अश्रु प्रवाहित हो रहे थे… तन मन की सुध नही थी । मैंने ही भगवान का चरणोदक पिलाया तब जाकर बाबा को थोड़ा होश आया था । सेठ जी को समझ में नही आया कि ये बाबा को क्या होगया ? मुझ से सेठ जी ने पूछा ये क्या हो गया था बाबा को ?… मैं कुछ बोलता उससे पहले ही बाबा बोल उठे… मुझे मिरगी है… मुझे मिरगी का रोग है इसलिए बीच बीच में ऐसा हो जाता है । वो सेठ जी तो चले गये… उनके जाने के बाद बाबा ने मुझ से कहा था…अपनी साधना अनधिकारीयों को नही बतानी चाहिए…वो समझ ही नही पायेगा…मैंने कहा… बाबा ! पर समझाना तो पड़ेगा ही ना… ऐसे मिरगी कहने से तो बाबा ! बात फैल जायेगी…और लोग सच में ही मिरगी मान लेंगे ।
बाबा सहजता में बोले… मानने दो… देखो ! साधक हो तो अपनी शर्त में जीयो… अपने अन्तःकरण को ध्यान में रखो… अपने अन्तःकरण को साधो… दुनिया को ढिढ़ोरा मत पीटो कि मैं बहुत बड़ा भक्त हूँ… ।
कच्चे साधक वो होते हैं… जो ख़ूब लंबा तिलक लगाएंगे… कपड़े बढ़िया बढ़िया पहनेंगे…भेष ऐसा बनाएंगे जैसे बहुत बड़े महापुरुष हैं… पर भीतर से दरिद्र होते हैं…जो कच्चे साधक होते हैं…वो साधना के नाम पर जीरो होते हैं… और दिखावे में अव्वल होते हैं… पर सच्चे साधक वो होते हैं जो बाहरी भेष में ध्यान नही देते… पर उनके भीतर एक साधना की आग होती है… सच्चे साधक वो होते हैं… जो बाहरी आवरण को ध्यान में ज्यादा नही रखते… बाहर कैसे भी हों… पर अपने अन्तःकरण के प्रति सदैव जागरूक रहते हैं… मन खराब न हो ..बुद्धि में विकृति न आये ।
पर जो कच्चे साधक हैं… उन्हें इन सबसे कोई मतलब नही होता… इनका एक ही काम रहता है कि “भगवत् कृपा से ही होगा” (ये इन कच्चे साधकों का बोलना ही होता है , नही तो हृदय से अगर ये ऐसा ही मान लें , तो बस उद्धार है) ऐसा बोल बोलकर इतने दुर्लभ जीवन को ऐसे ही बिता देते हैं… बातें बनाने से तो भगवत् प्राप्ति नही होगी ना ।… होगी तो कृपा से ही… पर तुम्हारी अपनी तड़फ़ भी तो होनी चाहिए… तुम्हारी चाह देखता है भगवान… वो महात्मा जी बड़े प्रेम से मुझे बता रहे थे… ।
कच्चे साधक वो होते हैं जो प्रमाद में रहते हैं… पर सच्चे साधक सदैव उत्साहित रहते हैं । कच्चे साधकों में उदासी सी छाई रहती है… पर सच्चे साधकों में एक आंनद और प्रसन्नता दिखाई देती है…उदासी इसलिए कि आंतरिक कुछ परिवर्तन हुआ नही है ना… पर सच्चे साधक सदैव प्रसन्न इसलिए रहते हैं कि उन्होंने अपने अन्तःकरण को जान लिया है… मन को कैसे कहाँ मोड़ना है… बुद्धि को कैसे विवेकवान बनाना है… और चित्त में कैसे भगवत् प्रेम को संग्रहित करना है… ।
वो मुझ से बोले… अब तुम देखो कि तुम किस कोटि में आते हो… कच्चे नही सच्चे साधक बनो…किसी को दिखाने के लिए नही… अपने अन्तःकरण की शुद्धि के लिए साधक बनो… फिर देखना तुम्हारे ऊपर भगवत् कृपा की वर्षा होगी मंगल ही मंगल होगा ।
मैं प्रणाम करके चल दिया…जनकपुर से मेरे प्रिय मित्र आये हैं ।
जनकपुर के मित्र ने मुझ से पूछा… आप पागलबाबा से इतना प्यार क्यों करते हैं क्या है इनमें… मैंने कहा… कुछ नही है इनमें… पर मुझे प्यार हो गया है… पर अब क्या करूँ मैं , हमारे हिन्दू धर्म में तलाक की परम्परा भी तो नही है । हम दोनों ख़ूब हँसे ।
“तुम्ही हो नैया तुम्ही खिवैया , तुम्ही हो बन्धु सखा तुम्ही हो”