
जैसे घर का पता प्रवेश द्वार पर पांव रखते ही परिचय दे देता है कि इस घर की स्त्री का रहन सहन कैसा होगा उसी तरह शहर में प्रवेश से पहले प्रशासन से लेकर हर कार्य पालिका का–
बड़ी शर्मनाक बात है कि आज चार साल से ज्यादा होने को आ गई शहर को संभालने सजाने विकास की नई सुविधाओं से परिपूर्ण होना चाहिए था लेकिन शहर बोल रहा है बताने की जरूरत ही नहीं है एक एक चीज को विस्तार से समझाने के लिए-
सड़कें अपनी बदहाली पर रो रही है साफ सफाई शहर के चेहरे पर पड़ी है हद पार तो तब हो जाती है जो विकास के नाम पर कार्य शुरू हुआ शहर में उसने शहर कालोनियों को गंदगी से पाट दिया संवारने के नाम पर सीवर लाइन, गैस लाइन, वाटर लाइन,की खुदाई जगह जगह गड्ढे खोदकर सालों से डाल दिए गए हैं जो अभी तक एक भी लाइन पूर्ण नहीं हुई कालोनियों में हर घर के सामने लोगों ने अपने पैसों से जो सड़कें बनाई थी इंसानों के रहने के लायक बो भी इस खुदाई ने तोड़ कर डाल दी और मिट्टी अंदर घरों तक विकास का परिचय गंदगी से दे रही है चार चार जिम्मेदारों की नाक के नीचे जब एक छोटे से जिले की यह हालत है तो बताने की जरूरत नहीं है कि वायदों के बादल गरज कर जाने कितने मौसम यूं हीं आते जाते रहे हैं और रहेंगे और शहर बदसूरती पर एसे ही रोता रहेगा–
लेकिन छिपता तो कुछ भी नहीं है साहिब जब काम की जुबां बोलती है तब-
चंद आसमानी छींटों में–
शहर पानी पानी हो जाता है–
ये शहर पानी पानी होता है–
या जिम्मेदार- हर बार मुंह धोकर साफ होते रहते हैं धन्य है इस शहर की आवाम कि इतना अच्छा व्बहार रखती है अपने अधिकारों का त्याग करके सच बताएं सरकार कोई अच्छी और बुरी नहीं होती है कमी सिर्फ आवाम और कलमकारों में पूरी तरह जाकर ठहर जाती है इस व्बहार के चलते और हर पालिका अपना कार्यकाल पूर्ण करके चला जाता है ये पब्लिक के खून पसीने की मेहनत का सवाल है उस वोट का सवाल है जो उम्मीदों में हर बार ठगा जाता है–
लेकिन इससे हर वर्ग परेशान है बिल्कुल कहना झूंठ होगा अगर एसा होता तो शहर अपनी बदहाली पर हर बार तो नहीं रोता हां भोली-भाली आवाम हर बार ठगी जाती है जिनके पास सिर्फ एक रोटी ही ओप्शन हो उन्हें संचारी रोग,मच्छर,मलेरिया डेंगू, रहती है तो खर्चे तो बढ़ ही जाते हैं और आमदनी वही है पर जीने के लिए पहले दवा की जरूरत है जिंदा रहे तो रोटी–और आंखे पतीले को-फिर कौन ठगी का शिकार यह कहना भी अब मुहावरे की तौहीन में होगा कि,ये पब्लिक है सब जानती है नहीं साहिब आए दिन महफिलें लगती हैं शहर में पर विकास के चर्चों के लिए नहीं जातीय चर्चों के वर्चस्व की धूम मचाने के लिए आज हालात बद से बत्तर होते जा रहे हैं शहर और भोली भाली आवाम कराहने लगी सुबह से शाम की रोटियां कमाने के लिए घर परिवार से दूर कमाने जाना पड़ता है- बच्चे अच्छे भविष्य के लिए देश विदेशों में बाहर जाते हैं अच्छी शिक्षा के लिए अपने अपने माता-पिता और परिवार से दूर बच्चे शिक्षा से दूर होते हैं फिर हमेशा की लाइफ के लिए माता पिता परिवार से दूर हो जाते हैं क्योंकि जब शिक्षा पूर्ण होती है तो रोजी-रोटी कमाने बाहर जाना पड़ता है आखिर कौन सा सुख उन परवरिश करने बालों के नशीव में छोड़ा हुआ होता है जिसकी उम्मीद में हर एक पीढ़ी दांव पर लगती रहती है-
कभी सोचा है भविष्य क्या है हमारे और हमारी पीढ़ियों का आज हमारी दिमागी प्रोग्रेस ने जमीन से आसमान तक पहुंच बना ली पर हमारे इस छोटे से शहर ने खुद में ही घर और मरघट बना लिया इसमें दोष किसका है हम बिल्कुल भी अकेली सरकार को दोषी नहीं मानते हैं जब एक बाप का कत्ल दो बेटे इस लिए करते हैं कि उसकी प्रोपर्टी का–तो हम अपने और अपने शहर के खुद दोषी है हमें चीखना चाहिए था अपने अधिकारों के लिए लेकिन हम वहां नहीं चीखे,चीखे तो हम जरूर पर सिर्फ नये नये चेहरों के लिए, जब हमने हवन कराने और फीता काटने के लिए चुनाव किया हो उस शहर का यही हाल होगा-जो आज और पूर्व से होता आया है काम की वैल्यू यहां कभी नहीं हुई अगर होती तो हम गर्व से ओरों की तरह उद्योग, मनोरंजन, शिक्षा,और पांव तले साफ जमीन कमा लेते-पर खास सवाल जो हर बार दिल का दिल में रह जाता है कि आखिर जिम्मेदार कौन है इस लापरवाही का हमारा साशन से सीधा सवाल है अपने और जनहित के मुद्दे को लेकर कि हर कार्य पालिका के ऊपर एक कार्य पालिका मौजूद हैं फिर यह सब क्यों होता रहता है एक दूसरे की नाक के नीचे–
बच्चे की भूंख के सामने दूध की बोतल भर कर रख दी जाए तो बच्चे की भूंख तो शांति नहीं हो सकती है- पर बच्चे की तड़प जरूर और बढ़ जाएगी उस दूर रखी दूध की बोतल देख कर-जैसे वायदों के साथ पड़े सालों से ये नमूने पब्लिक को आखिर कब-तक वहलाते रहेंगे कोई तो समय सीमा होती है हर कार्य की।
लेखिका-पत्रकार-दीप्ति-चौहान।✍️