9 महीने तक अकेले रहना… न कोई अपना, न कोई आवाज़, बस धैर्य की परीक्षा!

कल्पना कीजिए—एक असीम सूनापन, जहाँ चारों ओर बस अंधकार और अनिश्चितता है। हर दिन सूरज उगता और ढलता है, लेकिन वहाँ, अंतरिक्ष में, समय जैसे थम गया हो। 9 महीने तक अकेले रहना… न कोई अपना, न कोई आवाज़, बस धैर्य की परीक्षा!

लेकिन हौसला अटूट था!

यह वही जज़्बा था, जो एक माँ अपने गर्भ में पल रहे शिशु के लिए रखती है—हर दर्द सहकर भी, हर मुश्किल झेलकर भी, बस आगे बढ़ते रहने का विश्वास।

सुनीता विलियम्स के लिए ये 9 महीने सिर्फ समय नहीं थे, बल्कि हर पल अपने इरादों को और मजबूत करने की घड़ी थी। जब तकनीकी खराबी ने उनकी धरती पर वापसी की राह कठिन बना दी, तब भी उन्होंने हार नहीं मानी। हर दिन, अपने अंदर के डर को हराकर, खुद को संभाला, रिसर्च जारी रखी और मन में भरोसा बनाए रखा—”मैं लौटूंगी!”

धरती पर लोग उनकी बहादुरी की कहानियाँ सुन रहे थे, उनके साहस की मिसालें दी जा रही थीं। बच्चे, महिलाएँ, युवा—हर कोई उनसे प्रेरणा ले रहा था कि मुश्किलें आएंगी, लेकिन आत्मविश्वास के आगे कोई भी बाधा टिक नहीं सकती।

और फिर वह दिन आया! अंतरिक्ष यान से बाहर कदम रखते ही, उनकी आँखों में खुशी के आंसू थे। लेकिन चेहरे पर वही आत्मविश्वास था, जो उन्होंने हर कठिन घड़ी में बनाए रखा था।

उन्होंने दुनिया को सिखाया कि धैर्य, साहस और आत्मविश्वास के आगे कोई भी कठिनाई टिक नहीं सकती।

जब मन में दृढ़ निश्चय हो, तो कोई भी चुनौती असंभव नहीं!

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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