हिंदू राष्ट्र में प्रतिबंधित है मृतक का शोक(आलेख : अपूर्वानंद)

हिंदू राष्ट्र में प्रतिबंधित है मृतक का शोक
(आलेख : अपूर्वानंद)

दिल्ली के रेलवे प्लेटफॉर्म पर भीड़ के कारण हुई भगदड़ के चलते कम से कम 15 लोग मारे गए। इस वाक्य को वास्तव में ऐसे लिखा जाना चाहिए : भारत की राजधानी दिल्ली के रेलवे प्लेटफॉर्म पर सरकार की बदइंतज़ामी और लापरवाही के चलते उमड़ी भीड़ के बीच हुई भगदड़ में 15 लोग मारे गए।

लेकिन अब भारत में गद्य लिखना लोग भूल गए हैं। जैसा राल्फ फॉक्स ने कहा था, गद्य चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारने की कला है। इंसान ने सत्य को उजागर करने के लिए भाषा ईजाद की, फिर उसे सत्य पर पर्दे की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा। भारत में पिछले 10 सालों से भाषा का प्रयोग सच बताने के लिए नहीं, उसे छिपाने के लिए किया जाने लगा है।

अफ़वाह को सच और सच को अफ़वाह बतलाया जाता है। जैसे भारतीय रेल के प्रवक्ता ने प्लेटफॉर्म पर हुई भगदड़ की खबर को अफ़वाह बतलाया और देश की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी ने उसे पूरी दुनिया में प्रसारित किया, लेकिन सिर्फ़ वे ऐसा नहीं कर रहे थे।

एक दुकानदार को सुना, जो कह रहा था कि सारा इंतज़ाम एकदम ठीक था, प्लेटफॉर्म ख़ाली पड़ा था, पुल पर लोग एक दूसरे को धक्का देने लगे, इस वजह से भगदड़ हो गई। अब हम अपने लिए अप्रिय सत्य को देखना भी नहीं चाहते, उसे बतलाने की बात तो दूर।

किसी ने नहीं पूछा कि यह भीड़ क्या सचमुच अचानक उमड़ पड़ी थी? क्या टिकटों की असामान्य बिक्री से इसका अंदाज़ नहीं किया जा सकता था कि प्लेटफॉर्म पर भीड़ उनकी सीमा के बाहर बढ़ सकती है? क्यों टिकट खिड़की से सामान्य श्रेणी के टिकट लगातार जारी किए जाते रहे? क्यों गाड़ियों की संख्या और टिकटों की बिक्री के संबंध का ख़्याल नहीं रखा गया? भारत सरकार जो किसानों को दिल्ली आने से रोकने के लिए सड़क खोद देती है और उस पर कीलें ठोंक देती है, वह प्लेटफॉर्म पर भीड़ जमा होने से रोक नहीं पाई?

मेरे मित्र को एक सेमिनार में भाग लेने बनारस जाना था। मेट्रो से जब वे नई दिल्ली पहुंचे, तब उन्होंने लोगों का रेला अपने आगे देखा। मेट्रो का निकास द्वार टूट गया। लोगों ने नारा लगाया, ‘गंगा मैया की जय’ और एक दूसरे को धक्का देते बाहर निकलने लगे। मेरे मित्र यह दृश्य देखकर कांप गए और बनारस जाने का इरादा रद्द करके वापस अपने ठिकाने लौट गए।

जब यह दृश्य मेट्रो स्टेशन का था, तो आगे रेलवे प्लेटफॉर्म पर क्या होगा, इसका अंदाज़ क्या प्रशासन नहीं कर सकता था?

यह भीड़ ख़ुद-ब-ख़ुद नहीं इकट्ठा हो गई थी। कुंभ जाने का आह्वान प्रधानमंत्री, कई मुख्यमंत्री और कई सरकारें कर रही थीं। हर सरकारी इमारत की दीवारों पर कुंभ का निमंत्रण देते हुए बड़े-बड़े पोस्टर और होर्डिंग महीनों से लगे हैं। मोहल्लों में लोगों को कुंभ जाने के लिए कहा जा रहा था। कुंभ जाकर ही आप अपना हिंदूपन साबित कर सकते थे। पिछले कई दिनों से इलाहाबाद को जाने वाली सारी सड़कें जाम हो गई थीं। फिर दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर भीड़ का अनुमान क्यों नहीं किया जा सकता था?

रेल विभाग के प्रवक्ता ने पहले इस भगदड़ को अफ़वाह बतलाया। फिर कहा गया कि कुछ अफ़रातफ़री तो हुई है, लेकिन हालात क़ाबू में हैं। रेल मंत्री ने भी सच्चाई छिपाने की कोशिश की और भ्रामक बयान दिया। बाद में इन सबको स्वीकार करना पड़ा कि भगदड़ हुई है और मौतें हुई हैं। लेकिन अब इसके लिए लोगों की बेचैनी को ही ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। कहा जा रहा है कि लोग क्यों एक साथ निकल पड़ते हैं। और सरकार को बरी करने की कोशिश साथ-साथ की जा रही है : आख़िर वह इस तरह की भीड़ को कैसे संभाल सकती है!

अगर आप भूल न गए हों, तो 5 साल पहले हमने कुछ इसी तरह का दृश्य भारत की सड़कों पर देखा था।

कोविड संक्रमण के शुरुआती दिन थे। प्रधानमंत्री ने अचानक तालाबंदी का ऐलान किया। उसके आगे के लिए कोई तैयारी नहीं की गई। अगली सुबह से दिल्ली और दूसरे महानगरों से मज़दूर अपने-अपने घर जाने निकल पड़े। उस वक्त भी सरकार ने कह दिया था कि इन्हें घर पहुंचाना हमारी ज़िम्मेदारी नहीं। मजदूरों को ग़ैर-ज़िम्मेदार बतलाया गया था। भाजपा के एक सांसद ने तो यह कहा था कि ये सब तफ़रीह करने निकल पड़े हैं।

यह न पूछा गया कि आख़िर सरकार यह अनुमान क्यों नहीं कर पाई कि इतने दिहाड़ी मज़दूर अचानक तालाबंदी से रोज़ी रोटी खो बैठेंगे और उनके भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। फिर वे अपने गांव की पनाह लेने के अलावा और कर ही क्या सकते थे? लेकिन सरकार ने कह दिया कि वह तालाबंदी तो कर सकती थी, लेकिन उसके नतीजे के लिए उसे ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। लाखों लोग हज़ारों किलोमीटर पैदल चले, लेकिन सरकार चुपचाप देखती रही।

सर्वोच्च न्यायालय में एक अर्ज़ी दायर की गई कि वह सरकार को आदेश दे कि वह मज़दूरों को राहत मुहैया करवाए। वहां सरकार ने झूठ बोल दिया कि सड़क पर कोई मज़दूर नहीं है। हम टी वी पर देख रहे थे कि किस तरह हज़ारों की संख्या में मज़दूर पैदल चले जा रहे हैं, लेकिन अदालत ने वही देखा, जो सरकार ने उसे कहा।

यही सरकार ने नोटबंदी के वक्त किया था। बैंकों के सामने उस वक्त लगी क़तारों की तस्वीर हमें याद है। उस वक्त भी सरकार ने लोगों को हुई तकलीफ़ का ज़िम्मा लेने से इंकार कर दिया था।

कुंभ में भगदड़ हुई। कितनी मौतें हुईं, अब तक हमें नहीं मालूम। कोविड के चलते कितनी मौतें हुईं, हमें नहीं मालूम। सरकार का कहना है कि इतने लोग ज़िंदा बच गए, उसके लिए हमें सरकार का शुक्रिया अदा करना चाहिए।

सरकार जो कहे, ज़्यादा अफ़सोस यह देखकर होता है कि हमारा समाज भी इसे अपनी नियति मानकर सिर झुका लेता है। यह कहना पड़ेगा कि यह प्रायः हिंदू समाज है। क्या यह इसलिए है कि हिंदुओं की बड़ी आबादी यह मान बैठी है कि सदियों के बाद भारत में हिंदुओं का राज आया है? अगर कुछ ऊंच-नीच हो, तो हमें बर्दाश्त कर लेना चाहिए, क्योंकि अभी एक ज़्यादा बड़ा उद्देश्य पूरा करने का समय है।

और वह उद्देश्य है हिंदू राष्ट्र की स्थापना। क्या इस वजह से हिंदुओं ने नागरिक के सारे अधिकारों का विसर्जन करके ख़ुद को प्रजा में तब्दील कर दिया है, जिसके साथ राजा जैसे चाहे, पेश आए?

अब हमें एक क़ानून के लिए तैयार हो जाना चाहिए, जिसके मुताबिक़ मारे गए लोगों के लिए शोक मनाना जीवित लोगों के विरुद्ध अपराध माना जाएगा।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।)

About The Author

निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

Learn More →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

× अब ई पेपर यहाँ भी उपलब्ध है
अपडेट खबर के लिए इनेबल करें OK No thanks