मुफ़्त व नि:शुल्क का फ़र्क़ और कल्याणकारी राज्य का दायित्व
(आलेख : मुकुल सरल)
देश में जब भी कोई चुनाव होते हैं, ‘मुफ़्त की रेवड़ी’ की चर्चा तेज़ हो जाती है। अब दिल्ली चुनाव के संदर्भ में यह बहस इतनी तेज़ है कि मुफ़्त और नि:शुल्क का फ़र्क़ ही मिट गया है, मुफ़्त और लोक कल्याणकारी योजनाओं का फ़र्क़ मिट गया है, राज्य के अनुग्रह और दायित्व का फ़र्क़ मिट गया है, या सच कहूं तो मिटा दिया गया है। यह काम राजनीतिक दलों और कॉरपोरेट मीडिया द्वारा इतनी चालाकी से किया जा रहा है कि आपको अपना अधिकार भी सरकार की कृपा लगने लगता है।
‘फ्री’ की घोषणाओं में सभी दल एक दूसरे से होड़ ले रहे हैं। लेकिन इनमें सबसे आगे है भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), जो केंद्र के साथ कई राज्यों में सत्तारूढ़ है। बीजेपी का प्रोपेगैंडा इतना तेज़ है कि वह दूसरे दलों और विपक्षी दलों की सरकारों की घोषणाओं और योजनाओं को ‘वोट की सियासत’ बताती है, फ्री की रेवड़ी बताती है, मुफ़्तख़ोरी को बढ़ावा देने वाली और टैक्स पेयर के पैसे की बर्बादी के तौर पर पेश करती है और अपनी घोषणाओं और योजनाओं को ज़रूरी और जन कल्याणकारी नीति बताती है। और ‘मोदी है तो मुमकिन है’ टाइप नारों के साथ यह भी प्रचारित करती है कि यह सब मोदी जी की कृपा है, एहसान है।
तो इस आलेख में हम इसी पर विचार करेंगे कि कौन सी चीज़ें वास्तव में मुफ़्त की श्रेणी में कही जा सकती हैं और कौन सी नि:शुल्क, और इनमें क्या फ़र्क़ है? सरकार की कृपा या अनुग्रह क्या है और वास्तव में क्या है उसका कर्तव्य, उसकी ज़िम्मेदारी। क्या है वोट की सियासत और कौन सी हैं लोक और जन कल्याणकारी योजनाएं।
कुछ उदाहरणों के साथ बात करते हैं :
- लाडली बहन योजना, लाड़की बहना योजना, मंईयां सम्मान योजना, महिला सम्मान योजना, किसान सम्मान निधि जैसी योजनाएं मुफ़्त या फ्री की श्रेणी में रखी जा सकती हैं।
- बस या मेट्रो में फ्री यात्रा, मुफ़्त इलाज की सुविधा, मुफ़्त वैक्सीन, फ्री बिजली-पानी, मुफ़्त शिक्षा ये वास्तव में फ्री नहीं हैं, बल्कि निःशुल्क कही जानी चाहिए, जनहित में कही जानी चाहिए और यह राज्य का दायित्व है।
- इसी तरह स्वास्थ्य बीमा योजना, फ़सल बीमा योजना अगर फ्री हों, तो उन्हें फ्री नहीं बल्कि नि:शुल्क कहा जाना चाहिए।
- बेरोज़गारी भत्ता, पेंशन आदि राज्य की कृपा या अनुग्रह नहीं, बल्कि राज्य का दायित्व है।
- पांच किलो मुफ़्त अनाज को मुफ़्त नहीं, बल्कि आपके भोजन के अधिकार के तौर पर देखा जाना चाहिए।
लेकिन सरकार चालाकी करती है। अपनी ज़िम्मेदारी को भी अपनी कृपा के तौर पर प्रचारित करती है।
जैसे : किसान को फ़सलों का उचित दाम न देकर, एमएसपी न देकर, किसान सम्मान निधि के नाम पर सालाना 6 हज़ार रुपये देकर सरकार न केवल अपनी ज़िम्मेदारी से बचती है, बल्कि ख़ुद को किसानों का हितैषी बताने की कोशिश करती है। जबकि किसानों का साफ़ कहना है कि आप अपने 6 हज़ार रख लीजिए, हमें हमारी फ़सलों का एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य दे दीजिए।
जैसे : लोगों को रोज़गार न मुहैया कराकर डायरेक्ट कैश ट्रांसफर करके सरकार लोगों में यह भाव जगाए रखना चाहती है कि सरकार उनके ऊपर कोई दया या एहसान कर रही है।
जबकि सरकारी और अर्ध-सरकारी नौकरियां उपलब्ध कराके, मनरेगा में काम के दिन बढ़ाकर और मनरेगा जैसी ही शहरी रोज़गार योजना लागू करके, लघु-कुटीर और मझोले धंधों को बढ़ावा देकर सरकार महिला हो या पुरुष, सबके लिए सम्मानजनक जीविका का रास्ता खोल सकती है।
न्यूनतम मज़दूरी या वेतन का नियम तो है, लेकिन सरकार इसे लागू नहीं करती, न कराती है। आशा और आंगनबाड़ी कर्मचारी आज तक इसी के लिए लड़ रही हैं। यही नहीं, असंगठित क्षेत्र में एक ही काम के लिए महिला और पुरुष कामगार की मज़दूरी में भी फ़र्क़ है। इसे भी बराबर करके महिलाओं के लिए बराबरी और सम्मान का रास्ता खोला जा सकता है, लेकिन इसके लिए कोई नीति नहीं है।
पहले जो सरकारी सस्ते गल्ले यानी राशन की दुकान थी, जहां निम्न और मध्यम आय वर्ग के लगभग सभी लोगों को रुपये-दो रुपये किलो में तेल, चीनी, नमक, गेहूं, चावल मिल जाता था, उसे लगभग ख़त्म कर दिया गया है और कोविड के समय में शुरू किए गए पांच किलो राशन को मुफ़्त के नाम से प्रचारित करके सरकार के दायित्व को कृपा में बदल दिया गया है।
जबकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 में बना दिया गया था, जिसे हम भोजन के अधिकार के तौर पर जानते हैं, जिसका उद्देश्य देश की दो-तिहाई आबादी को सब्सिडी वाले खाद्यान्न उपलब्ध कराना है। लेकिन मोदी जी–योगी जी सबने अपने नाम के थैले छपवा कर उसमें यह राशन बांटकर इसे अपनी कृपा के तौर पर प्रचारित कर दिया है।
यहां हमें स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि मुफ़्त कुछ भी नहीं है। सरकार जो कुछ हमें मुफ़्त भी दे रही है, वो भी मुफ़्त नहीं है। मोदी हों या केजरीवाल, कुछ भी अपनी जेब से या पार्टी फंड से नहीं दे रहे हैं। वो सब सरकार के पैसे से ही दे रहे हैं और सरकार का पैसा जनता के टैक्स का ही पैसा है।
टैक्स के पैसे को भी हमें स्पष्ट समझना चाहिए। बड़ी चालाकी से मिडिल क्लास में यह धारणा फैलाई गई है कि यह जितनी भी योजनाएं हैं या देश में विकास का काम हो रहा है, वो उसके इनकम टैक्स के पैसे से ही हो रहा है। जबकि हक़ीक़त यह है कि देश की 1.40 अरब की आबादी में महज़ 6–7 फ़ीसद लोग ही हैं, जो डायरेक्ट टैक्स यानी इनकम टैक्स देते हैं ; जबकि सौ की सौ फ़ीसदी जनता प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी न किसी रूप में, हर रोज़ टैक्स अदा करती है।
अगर आप बाज़ार से एक साबुन की बट्टी, एक टूथपेस्ट भी ख़रीदते हैं तो सरकार को टैक्स दे रहे हैं। इसलिए किसी को भी यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि सिर्फ़ वही टैक्स दे रहा और न यह भ्रम फैलाना चाहिए कि सरकार कुछ मुफ़्त दे रही है। बल्कि सच तो यह है कि आप अपने पैसे से सांसद-विधायक, मंत्री-प्रधानमंत्री के लिए ऐशो-आराम जुटा रहे हैं।
और अपनी जनता को जीने के सभी साधन मुहैया कराना ही सरकार की ज़िम्मेदारी है, ड्यूटी है, वरना उसका कोई काम नहीं।
और सरकार की ही तरह कॉरपोरेट भी आपके ऊपर कोई एहसान नहीं करता है। बल्कि आप कामगार के रूप में उसे अपना श्रम देते हैं और उपभोक्ता के तौर पर उसके माल के ख़रीददार बनते हैं।
इसलिए याद रखिएगा कि मुफ़्त कुछ भी नहीं है। आपसे हर चीज़ की क़ीमत वसूल ली जाती है। और ज़्यादातर मामलों में तो दो से चार गुनी तक।
ओम प्रकाश नदीम के शे’र को कुछ बदलकर कहूं तो :
मुफ़्त में राहत नहीं देगी, हवा चालाक है/ लूट कर ले जाएगी मेरे पसीने का नमक!
(लेखक पत्रकार और साहित्यकर्मी हैं।)