आर्थिक असमानता : क्या भारत सरकार पिकेटी के ‘कराधान’ प्रस्ताव को मानेगी?
(आलेख : शुभम शर्मा, सुमित दहिया ; अनुवाद : संजय पराते)
फ्रांसीसी अर्थशास्त्री और मशहूर किताब ‘कैपिटल इन द ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ के लेखक थॉमस पिकेटी हाल ही में भारत आए थे। उन्होंने वैश्विक स्तर पर और भारत में असमानता की स्थिति पर व्याख्यान दिया। उनके व्याख्यान का मुख्य बिंदु था : विकसित दुनिया (ग्लोबल नॉर्थ और जापान) की तुलना में भारत में आय असमानता बहुत अधिक है और दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देशों की तुलना में असमानता कम है। चीन की तुलना में भी भारत की स्थिति अच्छी नहीं है। आय हिस्सेदारी के मामले में, भारत में शीर्ष 10% लोगों के पास आय हिस्सेदारी का 42% हिस्सा है, जबकि चीन के लिए यह हिस्सा 31% है। नैन्सी कियान के साथ संयुक्त रूप से लिखे गए एक पेपर में, पिकेटी ने दिखाया है कि 1986 और 2003 के बीच चीन में शीर्ष 1% की आय हिस्सेदारी में 120% से अधिक की वृद्धि हुई है, जबकि भारत में 50%। फिर दीर्घावधि में चीन के मुकाबले भारत में आय असमानता क्यों बढ़ी है? सबसे पहले, चीन में आयकर एक ‘मास टैक्स’ बन गया है, जबकि भारत में आयकर एक ‘कुलीन कर’ बना हुआ है। दूसरे, चीन में कॉरपोरेट्स को राजनीतिक वर्ग द्वारा कड़े नियंत्रण में रखा जाता है। भारत में, इसका उल्टा सच है और राजनीतिक वर्ग पर कॉरपोरेट्स का नियंत्रण है। 1991 से भारतीय निगमों को सार्वजनिक उपयोगिताओं और प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व के रूप में कर कटौती और भारी उपहार मिले हैं। यूपीए-2 शासन तक कॉर्पोरेट करों का कुल प्रत्यक्ष करों में दो-तिहाई हिस्सा था। वर्तमान में, कॉर्पोरेट करों का हिस्सा आधे से भी कम है। 2017-18 में 34.6% की वैधानिक कर दर के मुकाबले, सभी कंपनियों के लिए प्रभावी कर दर 29.5% थी। 2018-19 में यह मामूली रूप से और घटकर 27.8% रह गई। लेकिन 2019 से पहले के इन दो वर्षों में भी, सबसे कम प्रभावी कर दर सबसे अमीर कंपनियों के लिए थी, जो 2017-18 में 26.3% और 2018-19 में 25.9% थी।
इन सबके बावजूद निवेश में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई है। 2007-08 में जीडीपी के 27% के उच्च स्तर से यह 2020-21 में घटकर 19.6% रह गया। अर्थशास्त्रियों के पास इसकी अलग-अलग व्याख्याएँ हैं। कुछ का कहना है कि उपभोक्ताओं के हाथ में पैसे की कमी के कारण निजी निवेश चरम पर नहीं पहुँचा, जबकि कुछ का कहना है कि भारतीय व्यवसायियों को अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के तौर-तरीके पर भरोसा नहीं है। उनकी मुख्य शिकायतें आगे के सुधारों की कमी और अन्य के अलावा भूमि अभिलेखों के डिजिटलीकरण की कमी से संबंधित हैं। भारतीय राजनीतिक वर्ग ने कभी भी निजी पूंजी को अर्थव्यवस्था में निवेश करने के लिए मजबूर करने के लिए कानून बनाने की इच्छा नहीं रखी। 2003 से 2012 के बीच, भारतीय कॉरपोरेट्स ने भारत के लिए चीन जैसी विकासात्मक कहानी की कल्पना करते हुए सस्ते ब्याज दरों पर सार्वजनिक बैंकों से बेतहाशा पैसा उधार लिया। प्रसेनजित बोस व अन्य ने गणना की है कि 1980 से 1990 तक सकल पूंजी निर्माण में सार्वजनिक क्षेत्र का योगदान 11.1% था, जबकि 2012-13 में निजी क्षेत्र का योगदान 9.2% था। कथित विकास की इस अवधि में भारी मात्रा में गैर-निष्पादित आस्तियाँ (एनपीए) जमा हुई। नकदी की कमी से जूझ रहे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पुनर्जीवित करने के लिए 2015 में ‘इंद्रधनुष कार्यक्रम’ के बाद ‘ऋण पुनर्गठन कार्यक्रम’ शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम के माध्यम से, सरकार का लक्ष्य सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और उन बैंकों में 70,000 करोड़ रुपये डालना था, जिन्हें मदद की आवश्यकता थी। सीधे शब्दों में कहें तो, कॉरपोरेट्स द्वारा बैंकों से पैसे की चोरी की कीमत जनता को अपने पैसे से चुकानी पड़ी। यहां तक कि दूसरी नरसिम्हन समिति की रिपोर्ट, जिसने बैंकों के सरकारी स्वामित्व के खिलाफ तर्क दिया था, ने सरकार के राजकोषीय लागतों के लिए इस तरह के पूंजी प्रवाह संचालन का विरोध किया था।
पिकेटी के अनुसार (जैसा कि उनकी पुस्तक ‘ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ इक्वालिटी’ में तर्क दिया गया है) भारतीय राज्य महत्वाकांक्षी और सार्वभौमिक लक्ष्य वाली सामाजिक नीतियों को अपनाने में बुरी तरह विफल रहा है। वे लिखते हैं, ”यदि भारतीय कोटा (पिछड़े और हाशिए के समुदायों के लिए सकारात्मक कार्रवाई) पर बैलेंस शीट कुल मिलाकर सकारात्मक है, तो यह प्रयोग ऐसी नीति की सीमाओं को भी दर्शाता है। असमानता को खत्म करने के लिए इस तरह की व्यवस्था पर्याप्त नहीं है ; इसके साथ ऐसी सामाजिक नीतियाँ भी होनी चाहिए, जो अधिक महत्वाकांक्षी हों और सार्वभौमिक लक्ष्य वाली हों। अपनी संरचना में, विश्वविद्यालय, निर्वाचित विधानसभा और सार्वजनिक कार्यालय सामाजिक रूप से वंचित वर्गों के केवल एक छोटे से अल्पसंख्यक के लिए ही चिंतित होते हैं। भारतीय संदर्भ में, कोटा का उपयोग अक्सर अभिजात वर्ग द्वारा बुनियादी ढांचे, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल में निवेश को वित्तपोषित करने के लिए आवश्यक करों का भुगतान न करने के बहाने के रूप में किया जाता था, जो वास्तव में भारत में सामाजिक असमानताओं को कम करने और सभी वंचित वर्गों (और केवल उनके अंदर के अल्पसंख्यकों के लिए ही नहीं) के लिए समानता बढ़ाने के लिए आवश्यक थे। पर्याप्त रूप से वित्तपोषित कल्याणकारी राज्य की अनुपस्थिति में, स्वतंत्रता के बाद के पहले दशकों में इसमें कमी आने के बावजूद, 1980 के बाद वास्तव में असमानताएं फिर से तेजी से बढ़ने लगीं।”
पिकेटी की इस टिप्पणी की प्रासंगिकता राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (एनएफएचएस-5) की रिपोर्ट में परिलक्षित होती है। भारत की वर्तमान जनसांख्यिकी में 15-49 वर्ष के आयु वर्ग में केवल 41% महिलाओं और 50.2% पुरुषों के पास 10 वर्ष से अधिक की स्कूली शिक्षा है। 57% महिलाएं और 25% पुरुष एनीमिया से पीड़ित हैं। 18.7% महिलाओं और 16.2% पुरुषों का बॉडी मास इंडेक्स सामान्य से कम है। 6-23 महीने के आयु वर्ग के केवल 11.3% बच्चों को न्यूनतम पर्याप्त आहार मिलता है। वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट के अनुसार, 14 से 18 वर्ष की आयु के 25% किशोरों को कक्षा-2 की पाठ्यपुस्तकें पढ़ने में कठिनाई होती है और केवल 35% ही भाग दे सकते हैं।
भारत में नव-उदारवाद की ओर संक्रमण की शुरुआत, आर्थिक कल्याण की मांग करने वाली सामाजिक-राजनीतिक लामबंदी में जड़ता आने से हुई। मंडल रिपोर्ट, जो एक समावेशी कदम था, न कि समतावादी उपाय, के क्रियान्वयन को छोड़कर, ऐसा कुछ भी नहीं था, जो भारत के राजनीतिक वर्ग को सार्वभौमिक गरीब-हितैषी नीतियों को अपनाने के लिए मजबूर करता। यूरोप में, 1914 और 1980 के बीच तीन घटनाओं के कारण संसाधनों का एक बड़ा पुनर्वितरण हुआ। सबसे पहले, कल्याणकारी राज्य का उदय, जो काफी हद तक उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में वर्ग संघर्षों का परिणाम था, जिसे 1929 की महामंदी और दो विश्व युद्धों के सर्वनाशी विनाश ने गति दी ; दूसरा, आय और विरासत पर प्रगतिशील कर का उदय ; तीसरा, उपनिवेशों में निजी विदेशी संपत्तियों का परिसमापन और उसके बाद सार्वजनिक ऋण। तीसरी स्थिति भारत के लिए प्रासंगिक नहीं है, लेकिन पहली दो प्रासंगिक हैं। एक विशाल गैर-संगठित अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और औपचारिक क्षेत्र की सापेक्ष समृद्धि ने मजदूर एकता को हासिल करना मुश्किल बना दिया है। पिकेटी ने 100 मिलियन (10 करोड़) रुपये से अधिक की संपत्ति पर 2% संपत्ति कर और इतनी ही कीमत की संपत्ति पर 33% विरासत कर का प्रस्ताव भी रखा था। मंच पर भारत सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाली शमिका रवि ने इस बात का खंडन किया और कहा कि अमीरों पर कर लगाने से श्रम उत्पादकता किस तरह बढ़ेगी? सभी अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि चीनी श्रम की उत्पादकता माओवादी युग के दौरान स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश का परिणाम थी। भले ही हम चीनी मामले को दरकिनार कर दें, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान ने लगभग सब कुछ खो दिया था, उसके बाद इस देश में बड़ा और महत्वपूर्ण बदलाव अनिवार्य और मुफ्त प्राथमिक शिक्षा के कारण संभव हुआ, जिसे जापान में 1876 से लागू किया गया था।
पिकेटी के उदारवादी प्रस्ताव पर कोई भी कार्रवाई असंभव नहीं, तो मुश्किल जरूर लगती है। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों के पास ऐतिहासिक रूप से लोकसभा में अच्छी संख्या में व्यवसायी हैं। 14वीं और 15वीं लोकसभा में कांग्रेस के पास 19.28% और 21.60% व्यवसायी सांसद थे। 16वीं लोकसभा (2014) में भाजपा के 26.33% सांसद व्यवसायी थे। 17वीं लोकसभा में सभी सांसदों में से 23% सांसद व्यवसायी थे।
(शुभम शर्मा कनेक्टिकट विश्वविद्यालय, अमेरिका में शोध अध्येता हैं। सुमित दहिया गवर्नमेंट गर्ल्स कॉलेज, गुरुग्राम, हरियाणा में सहायक प्रोफेसर हैं। अनुवादक संजय पराते अ. भा. किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)
Piketty Comes to India
(Article by Shubham Sharma and Sumit Dahiya)
Thomas Piketty, the French economist and author of the famous book Capital in the Twenty First Century was recently in India. He delivered a lecture on the state of inequality globally as well as in India. The main highlight of his lecture was: income inequality in India is very high when compared to the developed world (Global North and Japan) and low when compared to countries like South Africa and Brazil. In comparison to China, India does not do well either. As in terms of income shares, the top 10% hold 42% of the income share in India whereas the corresponding number for China stands at 31%. In a jointly written paper with Nancy Qian, Piketty showed that between 1986 and 2003 the income share of the top 1% increased by more than 120% in China whereas 50% in India. Why then has income inequality increased in India vis-à-vis China in the long run? First, the income tax in China has become a ‘mass tax’ while income tax in India has remained an ‘elite tax’. Secondly, corporates in China are held on a tighter leash by the political class. In India, the obverse is true. Since 1991 Indian corporations have got tax cuts and bonanzas in the shape of ownership of public utilities and natural resources. Up till the UPA 2 regime corporate taxes accounted for two-thirds of total direct taxes. Currently, corporate taxes account for less than half. As against the statutory tax rate of 34.6% in 2017-18, the effective tax rate for all companies was 29.5%. In 2018-19, it declined marginally to 27.8%. But even in these two pre-2019 years, the lowest effective tax rate was for the richest companies, at 26.3% in 2017-18 and 25.9% in 2018-19.
All this has not resulted in the desired uptick in investments. From a high of 27% of GDP in 2007-08 it dropped to 19.6% in 2020-21. Economists have different explanations for this. Some say that private investment did not peak because of the lack of money in the hands of the consumers. Whilst some say that Indian businesses do not have confidence in the way the economy is being managed. Their main complaints pertain to a lack of further reforms, and a lack of digitization of land records among others. The Indian political class has never desired to have legislation to force private capital into investing in the economy. Between 2003 and 2012, Indian corporates borrowed frantically from public banks at cheap interest rates envisaging a China-like developmental story for India. Even during this period, the private sector’s gross capital formation as a share of GDP remained below that of the public sector in the pre-reform era. Prasenjit Bose et.al., have calculated that from 1980 to 1990 the public sector accounted for 11.1% of gross capital formation whereas in 2012-13 the private sector accounted for 9.2%. The growth period was marked by a heavy accumulation of Non-Performing Assets (NPAs). The debt restructuring program was initiated followed by the ‘Indradhanush Programme’ in 2015 to revamp the cash-starved public sector banks. Through this programme, the government aimed to inject 70,000 crores into the public sector banks and those banks that required support. Simply put, the purloinment of money at the hands of the corporates had to be paid for by public money. Even the second Narasimhan Committee report that argued against government ownership of banks, was opposed to such capital infusion operations for its fiscal costs to the government.
According to Piketty (as argued in his book Brief History of Equality) the Indian state has dismally failed to adopt social policies that are ambitious and have universalist goals. He writes, ‘‘If the balance sheet on Indian quotas (affirmative action for backward and marginalized communities) is on the whole positive this experiment also illustrates the limits of such a policy. This kind of system is not sufficient for eliminating inequality; it must be accompanied by social policies that are more ambitious and have universalist goals. By construction, the places in universities, elected assemblies and public offices can concern only a small minority of the socially disadvantaged classes. In the Indian context, quotas were often used by the elites as an excuse for not paying the taxes necessary to finance investments in infrastructure, education, and health care that would have been necessary to really reduce social inequalities in India and increase equality for all the disadvantaged classes (and not only a minority within them). In the absence of a sufficiently well-financed welfare state, inequalities did in fact begin to increase quickly again after 1980, despite their decrease over the first decades following independence.’’
Piketty’s jottings are reflected in the National Family and Health Survey (NFHS) 5 survey report. Among India’s present demographic dividend (15-49 years) only 41% of women and 50.2% of men have 10 years plus of schooling. 57% of women and 25% of men are anaemic. 18.7% of women and 16.2% of men have a body mass index below normal. Only 11.3% of children aged 6-23 months received a minimally adequate diet. According to the Annual Status of Education Report 25% of teens between the ages of 14 and 18 struggle to read Grade-2 textbooks and only 35% could divide.
India’s transition to neo-liberalism was marked by an inertia in socio-political mobilization demanding economic welfare. Barring the implementation of the Mandal Report which was an inclusivist and not an egalitarian step, there was nothing that would force the political class to adopt universalist pro-poor policies. In Europe, between 1914 and 1980 a great redistribution took place on the back of three events. First, the rise of the welfare state which was in large measure the result of class struggles in the second half of the nineteenth century which was accelerated by the 1929 Great Depression and the wanton destruction of the two World Wars; secondly, the rise of progressive tax on income and inheritance; thirdly, the liquidation of private foreign assets in the colonies and subsequently the public debt. The last condition is not relevant for India but the first two are. A massive non-unionized informal economy and relative prosperity of the formal sector have made labour unity difficult to achieve. Piketty also proposed a 2% wealth tax on assets above 100 million rupees and a 33% inheritance tax on property valued that much. Shamika Ravi, representing the Government of India on the dais contradicted that in what way would tax on the rich increase labour productivity? All economists agree that the productivity of Chinese labour was the result of investment in health and education during the Maoist era. Even if we skirt the Chinese case, the great turnaround of Japan after the country had lost almost everything during the Second World War was possible because of compulsory and free primary education, which had been enforced in Japan since 1876.
Any action on Piketty’s moderate proposal seems difficult if not impossible. Both the Congress and the Bhartiya Janata Party have historically had good numbers of businessmen in Lok Sabha. In the 14th and 15th Lok Sabha Congress had 19.28 and 21.60% of businessman MPs in Loksabha. In the 16th Loksabha (2014) 26.33% of BJP MPs were businessman. In the 17th Loksabha 23% of all the MPs were businessman.
(Shubham Sharma, PhD Candidate, Dept of Political Science, University of Connecticut, USA. Sumit Dahiya, Assistant Professor, Government Girls College, Gurugram, Haryana.)