मैं अपना शहर लिख रहा हूं–

मैं अपना शहर लिख रही हूं–
मैं इसके दर्द का हिसाब लिख रही हूं–
मैं अपना शहर लिख रही हूं–
इसके घायल सीने का–
मैं सड़कों का हिसाब लिख रही हूं–
मैं अपना शहर लिख रही हूं–
इसके चेहरे पर कीचड़ का–
मैं बो दाग लिख रही हूं–
मैं अपना शहर लिख रही हूं–
इसके सर्द चेहरे पर रखे श्रंगार का–
मै बो हिसाब लिख रही हूं–
मैं अपना शहर लिख रही हूं–
इस बदरंग बाप के चार बेटों का–
मैं हिसाब लिख रही हूं–
मैं अपना शहर लिख रही हूं–
बो कौन थे जो देश को आजाद कर गये–
मैं इस आजाद कैद का हिसाब लिख रही हूं–
मैं अपना शहर लिख रही हूं–
ये घर बदलते परदेशी आए और चले गए–
मैं इनके आने जाने का हिसाब लिख रही हूं–
मैं अपना शहर लिख रही हूं–
ये कैसा इश्क है कुर्सी का–
शहर तवायफ सा जिस्म हो गया–
मैं अपना शहर लिख रही हूं–
किसमें संवरा है इसका चेहरा–
मैं बो आईना लिख रही हूं–
मैं अपना शहर लिख रही हूं–

कैसे कहदें कि विकास नहीं हुआ है देश मे नाइंसाफी होगी—
एटा-पर इस शहर का विकास अभी जुवां से जमीन पर नहीं उतरा जहां जहां नजर गई तबाही दिखी बात मैन शहर की सड़कों की हो या कालोनियों की बात साफ-सफाई की हो या इस पब्लिक के लायक साधन की यूं तो शहर में कई पार्क है पर बो नशेड़ियों के अड्डे ज्यादा है मनोरंजन या बेटियों बच्चों के बैठने लायक नहीं कम-से-कम एक पार्क तो एसा होना चाहिए कि इंसान इस भागम्भाग लायफ में कुछ पल फुर्सत के अपने चाहत के अनुसार गुजार सकें बच्चों और बड़ों के लिए फर्नीचर झूले स्विमिंग पूल लिखने पढ़ने वालों के लिए किताबों की व्यवस्था एक सुरक्षा और शांति के साथ सुकून के कुछ पल– समटे सके,और भी सर्मनाक कभी इस शहर में तीन तीन सिनेमा होल हुआ करते थे और आज एक भी उपलब्ध नहीं है जब सुनते हैं कि इस फिल्म ने रिकॉर्ड तोड़ दिया उस फिल्म ने रिकॉर्ड तोड़ दिया यह नया आ रहा है बो नया आ रहा है ना चाहते हुए भी बच्चों की जिद के लिए बड़ों को बाहर जाना पड़ता है यह रिकॉर्ड देखने के लिए लेकिन सोचने वाली बात है कि बाहर जाकर इन्हें देखने के लिए कोई आम आदमी नहीं जा सकता है टिकट का खर्चा गाड़ियों का खर्चा समय के अभाव में समय निकालना पूरा दिन खराब होता हैं पढ़ी-लिखी पब्लिक के लायक यहां ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जहां कुछ वक्त गुजार सके या प्राउड फील हो उन सरकारों के ऊपर कि पढ़ी लिखी पब्लिक के जीने लायक कुछ है पुराने लोग जो घर बनाकर बैठे हैं उन्हें उन घरों से बहुत प्रेम है की परदेस नहीं जाना चाहते हैं इस उजड़े शहर में भी रहकर अपने घर में रहना चाहते हैं पर युवा पीढ़ी उन्हें जाने के लिए मजबूर करती है आज अच्छी-अच्छी हस्तियां इस शहर से पलायन कर गई इन्हीं असुविधाओं के अभाव में जाने कितनी सरकारी आई और चली गई लेकिन यह शहर कभी पढ़े-लिखी पब्लिक के लायक नहीं बन सका– आज हर तरफ परिवर्तन की आंधी है पर यहां तो झोंका भी नहीं आया–इसमें युवाओं का कोई दोष भी नहीं कि बो अपने अच्छे भविष्य का चुनाव करने के लिए घर बदल रहे हैं, उद्योगों की तो बात ही क्या की जाए यदा कदा की भूमि भी विवादों में आ गई जुबानी भाषण के इंतजार में पीढ़ियां गुजर जाती है रोटियों की जगह यहां हथियार और शराब खानो की फैक्ट्री–उतनी रोटियां नहीं मिली इस इलाके में और यहां की धैर्यवान पब्लिक में कभी अपने अधिकारों की मांग ही नहीं की हमारा फर्ज है कि हम सरकारों से अपने लायक अपने अधिकार मांगे यह सरकारों का काम है जनता के लिए सुविधा देना और कलमकारों का काम है सरकारों तक असुविधाओं को पहुंचाना पर अफसोस कि इस धेर्य और खामोशी पर चंद लोग तो आवाद हो गये पर बस्तियां बरवाद हो गईं।
लेखिका-पत्रकार-दीप्ति चौहान।✍️

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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