रोज रोज जो नित उगते सूरज,राजनीति के मंडप में, ढूंढो उनको देखो शायद, धूप वही पर ठहरी होगी

समसामयिक सवालिया बिम्ब पर एक हिंदी गजल– #आजादी_का_सूरज_कब_तक..! उस फुटपाथी जीवन की ,कब तक भोर सुनहरी होगी। दर्दों की सुनवाई पर कब तक कोर्ट कचहरी होगी। छत आकाशी बिस्तर धरती, जिनके हिस्से घोर अंधेरे, उन गलियों में कब तक, उजली, कोई दुपहरी होगी। रोज रोज जो नित उगते सूरज,राजनीति के मंडप में, ढूंढो उनको देखो शायद, धूप वही पर ठहरी होगी। सर्दी गर्मी फटते बादल, हर आफत संग जीना मरना, विषधर दंश चुभे तो लगता,शायद कोई गिलहरी होगी। आजादी का सूरज कब तक ,चमकेगा दूर अंधेरों तक, छप्पर बाले उस घर में कब तक, कोई मसहरी होगी। पीड़ाओ के दरबार सजे,तो सत्य क्यूं क्रंदन करता है, दर्द न जाने जो मजलूमों का,वो सत्ता गूंगी बहरी होगी। कर्ण भेदिनी गूंजो के संग,कर्कश शोर मचा है कैसा, अपशकुनी आभास कराती,बोली कोई टिटहरी होगी। कच्चे घर की छत गिरी, तो वो आंखे फफक कर रोई, मौसम से मिट जाने की,वो पीड़ा कितनी गहरी होगी। #राजू_उपाध्याय(स्वरचित)

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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