पूर्णतः वैज्ञानिक है भारतीय काल गणना

पूर्णतः वैज्ञानिक है भारतीय काल गणना
9 अप्रैल मंगलवार को भारतीय नववर्ष का आरम्भ हो रहा है। इस दिवस हमारी सृष्टि अपने 1955885125 वर्ष बिता चुकी होगी। भगवान राम-रावण के
मध्य हुए युद्ध को 880166 वर्ष, कृष्ण का अवतार को हुए 5250, महाभारत युद्ध को 5162 तथा कलियुग को भी व्यतीत हुए 5125 वर्ष व्यतीत हो चुके होंगे।
सम्राट विक्रमादित्य द्वारा शक्-विजय की स्मृति में आरम्भ संवत अपने 2080
वर्ष व्यतीत कर 2081वें वर्ष में प्रवेश करेगा।

प्रायः आधुनिक कहलानेवाले अंगरेजीदां लोगों के मध्य यह प्रश्न उठता है कि हमारी भारतीय गणना कितनी सटीक, सही व वैज्ञानिक है? यह प्रश्न जानकारों की जगह उन अधपढ़ों द्वारा अधिक उठाया जाता है जिनके मानस पर ईसवी सन् भारतीय संवत् से अधिक वैज्ञानिक है।

जबकि सच यह है कि अंगरेजी शासन के चलते आज विश्व में मानक बनी ईसवी कालगणना न तो वैज्ञानिक है, न ही काल के वास्तविक समय से मेल खानेवाली। इसका प्रकृति से तो दूर का भी संबंध नहीं है।

इस कालगणना का एक मात्र
आधार पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा में लगनेवाला समय है। किन्तु यह भी इतना अपूर्ण है कि विश्व को प्रायः अपनी घड़ियां आगे-पीछे करते रहनी पड़ती हैं।

इसके विपरीत भारतीय कालगणना में सृष्टि के प्रारम्भ से अब तक 100वें भाग का भी अंतर नहीं आया है।

सामान्यतः गणनाकारों द्वारा कालगणना करते समय 1-पृथ्वी के अपनी धुरी पर संचरण की अवधि को दिवस, 2- चंद्रमा के पृथ्वी की परिक्रमा की अवधि को मास तथा 3- पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा करने की अवधि को वर्ष मान काल के मान निर्धारित किये हैं।

किन्तु यह मान काल अनुमान भले ही कर लें, काल का शुद्ध मान ज्ञात करने में सर्वथा असमर्थ हैं। कारण, पृथ्वी की सूर्य की परिक्रमा का काल 365.25
दिवस है। चन्द्रमा की पृथ्वी की परिक्रमा का काल भी 28 से 30 दिवस है। दूसरे पृथ्वी की संगति कर सूर्य की भी परिक्रमा कर रहे चंद्रमा का अपना परिपथ भी समरेखीय नहीं। यही कारण है कि गणनाकारों को इसके परिपथ का
विचारण करते समय तिथिवृद्धि या तिथिलोप करते रहना पड़ता है। इसके अलावा पृथ्वी के अपने अंश पर 27अंश झुके होने के कारण यहां भी सदैव दिन-रात
समान नहीं रहते।

ऐसे में काल का शुद्ध मान ज्ञात करने के लिए किसी एक पद्धति के स्थान पर भारतीय गणनाकार- सौरगणना, चन्द्रगणना, सप्तर्षि कालमान आदि अनेक पद्धतियों का सहारा ले काल का शुद्ध मान निकालते हैं।

यह दुरूह तो है, किन्तु है इतना सटीक कि आज तक इसमें निमिष भर का अंतर भी नहीं आया।

दूसरी ओर ईसवी कालगणना मूलतः उस जूलियन कलेंडर का परिवर्तित परिवर्धित रूप है जिसे रोमन सम्राट जूलियस सीजर ने लागू किया था। 45ई0पू0 से लागू
हुआ यह कलेंडर आरम्भ में 8 दिन के सप्ताहवाला था। इसमें एक वर्ष 304 दिन का 10 महीनोंवाला था। (चोंकानेवाला तथ्य यह भी कि इस दसमासी कलेंडर के 7वें माह का नाम सेप्टेंबर (सप्तअम्बर), आठवें का ओक्टोबर (अष्टअम्बर), नवें का नवम्बर (नवअम्बर)व दसवें का दिसम्बर(दसअम्बर) नाम था।)

जूलियस सीजर ने इसमें अपने नाम से जुलाई तथा सीजर अगस्ट्स के नाम से अगस्त माह से जोड़ इसे 360 दिन का बना दिया। इस कलेंडर की शुरूआत
25 मार्च से होती थी।

1532 में 13वें पोप ग्रेगरी ने इसमें पुनः संशोधन किया। इसके बाद इसका 25 मार्च के स्थान पर 1 जनवरी से आरम्भ किया जाना तथा पृथ्वी-सूर्य के मध्य के परिपथ के समय को पूरा करने के लिए फरवरी को 28 दिन का बना, इसमें प्रत्येक 4 वर्ष बाद 1 दिवस जोड़े जाने का विधान रखा गया।

1582 में कैथोलिक देशों का इस कलेंडर से परिचय होने के बाद अंततः 1739 में इंगलेंड ने स्वीकार किया और 1752 तक ब्रिटिश-अमेरिका आदि ब्रिटिश
उपनिवेश में इसे स्वीकारा गया।

अनेक विद्धान तो इसमें भी समय का 24 घंटा विभाजन भारतीय होराकाल (ढाई घड़ी का एक होरा माना जाता है) को ही इस कलेंडर में गृहीत हाॅवर/आॅवर मानते हैं।

इसके विपरीत भारतीय गणनाकार पृथ्वी-सूर्य के परिक्रमा पथ के साथ-साथ पृथ्वी पर सीधा प्रभाव डालनेवाले पृथ्वी-चंद्र परिपथ को दृष्टिगत रख, इसे
360अंश में बांट इसका 27 नक्षत्रों में पुनः विभाजन कर तथा उसमें भी पल-विपल की बारीकियों को ध्यान रखने काल की गणना करते हैं। इस कालगणना को अवैज्ञानिक बताया जाना कालगणना का नहीं विज्ञान का अपमान करने के तुल्य
है।

लोगों की गलत सोचों के विपरीत भारतीय कालगणना अचूक व अत्यन्त सूक्ष्म रूप से की गयी कालगणना है। इसमें त्रुटि से लेकर प्रलय तक की गणना संभव है।

भारतीय कालगणना के लिए प्रयुक्त ‘सूर्य सिद्धान्त’ में काल के दो रूप बताए गये हैं। पहला अमूर्तकाल (अर्थात वह सूक्ष्म काल जिसे न देखा जा सकता हो, न ही जिसकी सामान्य तरीके से गणना संभव हो) तथा दूसरा मूर्तकाल (अर्थात ऐसा समय जिसकी गणना संभव हो)। दोनों कालों की गणना सूर्य सिद्धान्त में वर्णित विभिन्न पद्धतियों द्वारा काल की मूल इकाई त्रुटि से की जाती है जिसका आधुनिक मान 0.324 सेकेंड है। इस गणना में 60त्रुटि का एक रेणु, 60 रेणु का लव, 60 लव का लेषक, 60लेषक का प्राण, 60प्राण से
विनाड़ी, 60 विनाड़ी से नाड़ी तथा 60 नाड़ी का एक अहोरात्र होता है। 7 अहोरात्र मिलकर एक सप्ताह बनाते हैं तथा 2 सप्ताह एक पक्ष। 2 पक्षों का माह बनता है तथा 2 माह की एक ऋतु। 6 माह का एक अयन होता है, जबकि 2 अयन अर्थात 12 माह का एक वर्ष।

जानते हैं जिस सूर्य सिद्धान्त में गणना का यह सूक्ष्म रूप दिया गया है वह कितना पुराना है?

सूर्यसिद्धान्त के अनुसार इसकी आयु 2200000वर्ष प्राचीन है। हालांकि इसमें समय-समय पर परिवर्तन, परिवर्धन होते रहे हैं।

वर्तमान में प्रचलित सूर्यसिद्धान्त आचार्य वराहमिहिर व आचार्य
भास्कराचार्य द्वितीय द्वारा परिवर्धित स्वरूप है।

सूर्य सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी द्वारा सूर्य की की जानेवाली परिक्रमा की अवधि 365 दिन 15 घटी 31 पल 31 विपल व 24 प्रतिविपल है। इसे 365.258756484 दिन भी कह सकते हैं। इस परिपथ का विभाजन 27 नक्षत्र, 108
पाद में किया गया है। 9-9 पाद मिलकर 12 राशियां बनाते हैं। इसमें जिस कालखंड में सूर्य जिस राशि में रहता है वहीं उस समय का सौरमास होता है।

भारतीय कालगणना केवल सौर परिपथ की गणना कर ही संतुष्ट नहीं होती। वह चंद्रमा के पृथ्वी की परिक्रमा में लगनेवाले समय की भी गणना करता है। यह
गणना भी सौरगणना की भांति 27 नक्षत्र, 108 पाद व 12 राशिचक्र में होती है। चंद्रवर्ष सौरवर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा होता है।

सौर गणना तथा चंद्र गणना में सामंजय बनाने के लिए 32 माह 16 दिन 4 घटी बाद एक चंद्रमास की वृद्धि की जाती है। यह अधिक मास कहलाता है। कालगणना में यह वृद्धि अकारण या सौरगणना से संगति बिठाने हेतु यूं ही नहीं की जातीं। वरन यह भी नक्षत्र संचरण के अनुसार होती हैं।

इसके अलावा एक तीसरी गणना “सप्तर्षि संवत्” नाम से भी प्रचलित है। इसमें सप्तर्षि कहे जानेवाले नक्षत्रों के परिभ्रमण पथ के आधार पर गणना की जाती
है। इसके अनुसार 27 नक्षत्रों के परिभ्रमण पथ पर सप्तर्षि प्रत्येक
नक्षत्र पर 100-100 वर्ष रहकर 2700 सौरवर्ष (2718 चंद्रवर्ष) में एक परिभ्रमण चक्र पूरा करते हैं।

भारतीय पंचाग- तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण इन पांच अंगों का विवेचन करने के कारण कालगणना की इस विधा को पंचांग कहा जाता है। इनमें सूर्य व
चन्द्र के मध्य का परिक्रमा मार्ग को 360 अंशों में विभाजित कर इसमें अमावस्या के अन्त पर सूर्य व चन्द्र को एक समान राशि अंश पर होने पर शीघ्र गतिमान चन्द्र से सूर्य का 12 अंशों का क्रमिक अंतर होने पर प्रतिपदा, 12 से 24 अंश के अंतर पर द्वितीया, 24-36 अंश के अंतर पर तृतीया…होते-होते 168 से 180 अंशान्तर पर पूर्णिमा को माना जाता है।

पूर्णिमा के पश्चात गणना उलट जाती है। तब 180 से 168 अंश पर प्रतिपदा, 168-156 अंश के मध्य द्वितीया… आदि के बाद 12 से 0 अंशांतर पर अमावस्या
होती है।

दूसरे, 12 बजे आधी रात को होनेवाले अंगरेजी तिथि परिवर्तन के विपरीत भारतीय पद्वति में सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के मध्य का काल एक तिथि काल (पंचांग की भाषा में वार) माना जाता है। (पीएन ओक सरीखे विद्वान तो
अंगरेजों की आधी रात को तिथि परिवर्तन करने की परिपाटी को भी भारतीय गणना पद्वति का अनुकरण मानते हैं। कारण जिस समय इंलेण्ड अपनी तिथियों को बदलता है, भारत में उस समय सूर्योदय काल होता है। उनके अनुसार यदि भारत ने अंगरेजों का पूरा अंधानुकरण किया होता और ठीक उसी समय अपना तिथि परिवर्तन किया होता, जिस समय इंगलेंड में होता है तो भी भारत में मध्यरात्रि नहीं सूर्योदय के समय तिथि बदली जाती।)

आकाश को 360 अंशों में मान, भचक्र को 27 भागों में बांट, 13 अंश 20 कला अर्थात 800 कला का एक क्षेत्र एक नक्षत्र का क्षेत्र माना जाता है।

आश्वनि से रेवती नक्षत्र तक 27 नक्षत्रों में बांटे गये इस चक्र में
चंद्र जब जिस दिन व समय को जिस भाग में गति कर रहा होता है, वह उस नक्षत्र का काल होता है। गणना की बारीकी के लिए नक्षत्र को भी 4 चरणों में विभाजित किया गया है। एक चरण 3 अंश 20 कला का माना जाता है।

योग सूर्य व चंद्र गति में 13 अंश 20 कला का अंतर होने की स्थिति का नाम है। इसे कलांश भी कहा जाता है। यह भी नक्षत्र की भांति 27 हैं। जबकि तिथि
का आधा भाग करण कहा जाता है। इन पांचों की गणना के उपरान्त आप स्वयं ही विचार कर सकते हैं कि भारतीय गणना कितनी वैज्ञानिक है। हां, विशुद्ध गणना करने के कारण थोड़ा जटिल अवश्य है। और संभवतः यही कारण है कि हम काल की
जटिलता में पड़े बिना एक सरल पद्धति का सहारा लिए हुए हैं। भले ही वह कितनी ही अवैज्ञनिक, कितनी ही अमानक क्यों न हो।

वैसे हमारे ऋषियों ने प्रत्येक भारतीय को इस गणना की पहचान कराने के लिए ‘संकल्प मंत्र’ के रूप में जो अभिनव प्रयोग किया है, अगर उसके अर्थ जानें
तो हम सभी को अपनी गणना सुगम प्रतीत होने लगेगी।

यह संकल्प मंत्र है- “ओ3म अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य
ब्राह्मणां द्वतीये परार्धे ( अर्थात महाविष्णु द्वारा प्रवर्तित अनंत
कालचक्र में वर्तमान ब्रहमा की आयु का द्वितीय परार्ध- वर्तमान ब्रहमा की आयु के 50 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। यह 51 वें वर्ष का प्रथम दिन है। इस दिन अर्थात) श्री श्वेतवराह कल्पे, वैवस्वत मन्वन्तरे (ब्रहम के दिन में 14 मन्वन्तर होते हैं, उसमें वर्तमान में सातवां वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है) अष्टाविंशतितमे कलियुगे (एक मन्वन्तर में 71 चतुर्युगी मानी जाती हैं। यह उनमें से 28वीं है) कल्प प्रथमचरणे (अर्थात कलियुग का प्रारम्भिक समय है) कलिसंवते/ युगाब्दे… ।
इसके बाद संकल्प मंत्र देश, काल व स्थान का भी बोध कराता है। मंत्र के अनुसार- जम्बू द्वीपे, ब्रहमावर्ते देशे, भरतखंडे, … स्थाने, …संवत्सरे, अयने,….आदि।

भारतीय कालगणना तो पूर्ण व वैज्ञानिक है। किन्तु इसे समझने के लिए हमारी दृष्टि कितनी वैज्ञानिक है- इसे समझने की जरूरत है। चंद्रमा के प्रभाव से
समुद्र में होनेवाले ज्वार व भाटा के परिवर्तन, इसके फसल चक्र पर पड़नेवाले प्रभाव, प्रकृति से इसका तादात्म्य व दैनिक जीवन में इसका वैज्ञानिक उपयोग होने के बाद भी हमारी मानसिकता अगर ग्रेगरियन कालगणना को
ही सटीक मानते रहें तो इसके लिए खेद ही व्यक्त किया जा सकता है।

इस सृष्टि का प्रारम्भ भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को हुआ माना जाता है। दूसरे शब्दों में कहें कि गणनाकारों ने सृष्टि के आरम्भ की तिथि का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा रविवार से मान अपनी गणना की है। इस दिवस के प्रथम
होरा का नामकरण राशिस्वामी सूर्य के नाम पर जबकि द्वितीय होरा का नामकरण राशि स्वामी चन्द्र के नाम पर कर दिवसों के नामकरण किये गये हैं। यही
दिवसों के अन्य नामकरण (यथा- मंगल, बुध, गुरू, शुक्र व शनि) का भी आधार हैं।

ईसवी सन् के दिवसों के सन्डे, मण्डे.. आदि नाम अथवा विश्व के अन्य कलेंडरों में दिवसों के नाम भी भारतीय नामों की नकल/ अनुकरण मात्र हैं।

-कृष्णप्रभाकर उपाध्याय

About The Author

निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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