खरी – अखरी

…………… फिर भी देशवासियों की नजर में लोकतंत्र को बचाये रखने की आखरी किरण हैं वर्तमान मी लाॅर्ड
माना कि न्यायपालिका का अपना एक दायरा है और उसे विधायिका तथा कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं देना चाहिए लेकिन जब घर के एक हिस्से में आग लगी हो तो वहां कई बार सीमायें लांघकर भी बचाव की कोशिश करनी पड़ती है। अक्सर देखा जा रहा है कि सभी तरह के नियमों व कानूनों को तोड़ने वाली राजनीतिक शक्तियां विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, स्वायत व संवैधानिक संस्थाओं पर इतना ज्यादा हावी हैं कि इन सभी का काम केवल सत्ता और सत्तारूढ़ दल की हां में हां मिलाना रह गया है। अब तो ऐसा कोई भी मंच नहीं रह गया है जहां लोकतंत्र का मजाक उड़ाने वाले तत्व धमाल न मचा रहे हों।
न्यायपालिका से जनता को न्याय पाने की बड़ी आशायें होती हैं मगर उनके पूरा न होने से लोकतंत्र एवं कानून के साथ दूसरा कोई बड़ा मजाक नहीं हो सकता और यह अक्सर होता रहता है। वर्तमान सीजेआई डीवाई चंद्रचूड को देश में लोकतंत्र व न्याय की दृष्टिकोण से आशा की अंतिम किरण के रूप में देखा जा रहा है।
संसद में न केवल महिला पहलवानों के उत्पीड़न के आरोपी शान से बैठे हुए हैं बल्कि सत्ताधारी दल के एक सदस्य अल्पसंख्यक विपक्षी सदस्य को संप्रदाय से जुड़ी भद्दी व असंसदीय गालियां देते हैं। उसी सदन में वह भी मंत्री बनकर बैठे हुए हैं जिनका पुत्र सरेराह अपने वाहन से आन्दोलन कर रहे किसानों को कुचल देता है। एक राज्य में कद्दावर नेता का बेटा एक अधिकारी को बीच सड़क बैट से जी भरकर पीटता है और कोई कार्रवाई नहीं होती। दंगों व बलात्कार के आरोपियों की सजा माफ कर दी जाती है तो वहीं बलात्कार – हत्या का सजायाफ्ता एक अपराधी जब चाहे तब पैरोल पर जेल से बाहर निकल आता है खासतौर पर चुनाव के समय। क्या यह सब लोकतंत्र की हत्या नहीं है ?
लोकतंत्र की हत्या का सिलसिला केवल चुनावों में धांधली या सत्ता हथियाने तक सीमित नहीं है। लोगों के अधिकारों को कई तरह से छीना जा रहा है। जमानत याचिकाओं की सुनवाई को लचर बहसों की आड़ में बार – बार टाला जा रहा है। हत्या – बलात्कार जैसे संगीन अपराधों के सजायाफ्ता व्यक्ति को लगातार पैरोल पर बाहर आने दिया जा रहा है। संसद से एक साथ डेढ़ सैकड़ा सांसदों को निलंबित कर दिया जा रहा है। क्या ऐ सारी हरकतें भी लोकतंत्र की हत्या के समान नहीं हैं ?
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड जिस बात पर हैरान – परेशान हैं विपक्ष समेत देश का एक बड़ा तबका भी लम्बे समय से इन्हीं बातों को लेकर हैरान – परेशान है। सुप्रीम कोर्ट ने जिसे लोकतंत्र की हत्या कहा है दरअसल में वह लोकतंत्र की हत्या की सुपारी देने जैसा गंभीर अपराध है। यह हत्या गैरइरादतन नहीं बल्कि रणनीति के तहत करवाई गई है। चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव में की गई धांधली के लिए भले ही अनिल मसीह को जेल भेजा जाय पर क्या इससे लोकतंत्र की हत्या करने का सिलसिला रुक जायेगा ? क्या इस कृत्य के लिए अकेले अनिल मसीह को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ? क्या सुप्रीम कोर्ट की नजर में वे लोग आ पायेंगे जिनके कहने पर अनिल मसीह जैसे अधिकारी कठपुतलियों की माफिक काम करते हैं ?
सवाल तो यह भी है कि जब अदने से चुनाव के लिए इतना दुस्साहस दिखाया गया है तो जहां लोकसभा में बकायदा आंकड़ों के साथ ऐलान हो रहा हो कि हम 400 सीटें लायेंगे और तीसरी बार सत्ता में आयेंगे तो वहां अभी और कितने खेल खेले जायेंगे ! ईवीएम को हैक कर जिस तरह से वोटों की हेराफेरी की जाती है उसको लेकर सुप्रीम कोर्ट के ही कुछ वकीलों ने ईवीएम के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है और निर्वाचन आयोग इस पर संज्ञान लेने के बजाय अंतिम ऐलान कर रहा है कि ईवीएम में कोई गड़बड़ी हो ही नहीं सकती ! जबकि अगर जनता के बीच निष्पक्ष चुनाव को लेकर कोई संदेह है तो उस संदेह को दूर करने के लिए क्या चुनाव आयोग को पहल नहीं करनी चाहिए ? सवाल यह भी है कि क्या इन ज्वलंत मुद्दों पर जो कहीं न कहीं लोकतंत्र को कुचलते हुए दिख रहे हैं उन पर देश की सर्वोच्च अदालत को स्वमेव संज्ञान नहीं लेना चाहिए ?
एक बात और चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव में हुई धांधली के आरोप को सुप्रीम कोर्ट ने तभी देखा जब याचिका दाखिल की गई, यदि याचिकाकर्ता हिम्मत हार गया होता तो क्या वह धांधली किसी की नजर में आ पाती ? चंडीगढ़ मामले के पहले बिलकिस बानो केस में भी सुप्रीम कोर्ट ने पीड़िता के पक्ष में फैसला सुनाते हुए दोषियों को वापस सलाखों के पीछे भेजने का आदेश दिया है। यहां भी यह सब तब हुआ जब बिलकिस तथा देश की कुछ जुझारू महिलाओं ने हिम्मत दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट के द्वारे दस्तक दी वरना दोषी तो आजाद ही घूम रहे होते।
ये केवल एक – दो मामले नहीं हैं जहां लोकतंत्र को कुचला गया हो । झारखंड, बिहार से पहले मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड आदि में भी यही सब कुछ होते हुए देश ने देखा है । अब तो विधायकों की खरीद फरोख्त आम हो गई है। इसीलिए विधायकों को बचाने के लिए रिसोर्ट पाॅलिटिक्स का नया चलन चल रहा है। जहां भी चुनाव होते हैं और वहां बहुमत के आंकड़ों में जरा सी भी ऊंच नीच की आशंका दिखी फौरन विधायकों की बाड़ेबंदी शुरू हो जाती है। इसे लोकतंत्र की हत्या करने की सुपारी लेने का ही परिणाम कहा जा सकता है। देश का सत्ताधारी दल राज्यों में अपने दल की सत्ता कायम रखने के लिए बकायदा आपरेशन लोटस चलाते हुए दिखाई देता है। यहां तक कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बैठे लोग खुलकर सत्तापक्ष के लिए काम करते नजर आते हैं।
क्या यह सब सुप्रीम कोर्ट को नजर नहीं आता होगा ? क्या उम्मीद की जा सकती है कि चंडीगढ़ से शुरु हुई यह कोशिश और आगे बढ़ेगी तथा लोकतंत्र के साथ सच्चा न्याय हो पायेगा।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार