प्राण प्रतिष्ठा ईवेंट : मास्टर स्ट्रोक या बूमरेंग?
(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

अब जबकि अयोध्या में राम मंदिर का कथित प्राण प्रतिष्ठा समारोह सिर्फ एक ही हफ्ते दूर रह गया है, इसमें शायद ही किसी संदेह की गुंजाइश रह गयी है कि संघ-भाजपा को वह मुद्दा मिल गया है, जिस पर वे आने वाले आम चुनाव में नरेंद्र मोदी के तीसरी कार्यकाल की वैतरणी पार करने के लिए दांव लगाने जा रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि अपनी तमाम शक्ति तथा संसाधनों को झोंककर, जिसमें जनबल ही नहीं, धनबल भी शामिल है और सबसे बढक़र मीडिया के विभिन्न रूपों पर लगभग पूर्ण नियंत्रण के जरिए, छवि तथा धारणा बनाने की सामर्थ्य शामिल है, उन्होंने अब तक काफी हद तक यह हवा भी बना दी है कि अब तो तमाम हिंदू उनके साथ और खासतौर पर नरेंद्र मोदी के पीछे हैं। अगले आम चुनाव में अब बस मोदी की विजय की औपचारिक घोषणा होना ही बाकी है!

ठीक इसी संदर्भ में शंकराचार्यों के और कुछ अन्य प्रमुख धार्मिक आचार्यों के विरोध के स्वरों ने उनके लिए अप्रत्याशित मुश्किल खड़ी कर दी है। बेशक, ऐसा नहीं है कि संघ-भाजपा के मंसूबों पर इन आलोचनाओं का कोई असर पड़ने जा रहा हो या इन आलोचनाओं को देखते हुए वे, ‘‘जो लाए हैं राम को’’ के अपने दावों से किसी तरह से पीछे हटने जा रहे हों या उनमें कोई कमी करने जा रहे हों। इस मुद्दे पर उनका राजनीतिक-चुनावी दांव इतना बड़ा है कि इससे अब वे किसी तरह पांव पीछे नहीं खींच सकते हैं। लेकिन, यह मुश्किल इतनी अप्रत्याशित है कि वे इसकी कोई उपयोगी काट तक नहीं खोज पा रहे हैं। संघ-भाजपा की ट्रोल सेना ने और मंझले स्तरों तक के उनके नेताओं ने भी, जिस तरह खासतौर पर पुरी तथा ज्योतिर्मठ के शंकराचार्यों के खिलाफ हमला बोल दिया है या जिस तरह मंदिर निर्माण की कमेटी के वाचाल प्रवक्ता, चंपतराय ने राम मंदिर को सिर्फ रामानंदी संप्रदाय का मामला बताकर, शैव संप्रदाय के शंकराचार्यों की उसके संबंध में हर तरह की राय को ही खारिज कर दिया है, उनकी बौखलाहट को ही दिखाता है।

उनके दुर्भाग्य से उनकी यह बौखलाहट, हिंदू धार्मिक परंपराओं के अंदर से आने वाली असहमति की आवाजों को दबाने में कामयाब होना तो दूर, वास्तव में कथित प्राण प्रतिष्ठा आयोजन की इस आशय की आलोचनाओं की ही पुष्टि कर रही है कि 22 जनवरी को अयोध्या में जो हो रहा है, धार्मिक आयोजन कम है और संघ-भाजपा का राजनीतिक और वास्तव में चुनावी आयोजन ही ज्यादा है। जाहिर है कि इस बढ़ते एहसास को, केंद्र सरकार और उससे भी बढक़र भाजपा की राज्य सरकारों को, धर्मनिरपेक्ष शासन के सभी तकाजों को भुलाकर, इस छद्म धार्मिक आयोजन में आधिकारिक रूप से झोंके जाने से नहीं रोका जा सकता है। इतना ही नहीं, ‘‘मंदिर’’ के प्राण प्रतिष्ठा अनुष्ठान में मुख्य यजमान बनने के लिए विशेष धार्मिक ‘‘वैधता’’ हासिल करने के लिए, प्रधानमंत्री द्वारा गा-बजाकर किया जा रहा ग्यारह दिन का विशेष धार्मिक तैयारी कर्म-कांड भी, संभावित नुकसान की बहुत भरपाई कर पाएगा, ऐसा नहीं लगता है।

बेशक, इसका ठीक-ठीक अर्थ यह भी नहीं है कि 22 जनवरी का अयोध्या का आयोजन किसी नजर आने वाले अर्थ में फ्लॉप हो जाने वाला है, फीका पड़ जाने वाला है। लेकिन, इसका एक अर्थ यह अवश्य है कि इससे, खुलेआम भाजपा-आरएसएस द्वारा नियंत्रित इस आयोजन से विपक्षी राजनीतिक ताकतों के दूरी बनाने को, एक अतिरिक्त वैधता मिलती है। दूसरे शब्दों में, तुरंत इसका नतीजा यह तो होने ही वाला है कि राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन का ‘बहिष्कार’ करने के लिए, संघ-भाजपा ने विपक्षी राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ जिस तरह की प्रचार मुहिम छेड़ी है तथा छेड़ने की योजना बना रखी है, उसकी धार काफी कुंद हो जाने वाली है।

याद रहे कि संघ-भाजपा ने इस आयोजन के लिए आमंत्रण के बहाने, विपक्षी पार्टियों के लिए बड़ी चतुराई से जाल बिछाया था। खेल विपक्ष के सामने ‘हां कहें तो मरें और ना करें तो मरें’ की दुविधा खड़ी कर देने का था। हालांकि, निमंत्रण देने की शुरूआत मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से की गयी, जिसके इस तरह के आयोजन से दूरी बनाने का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था, असली खेल मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस और सपा, आरजेडी, जदयू, शिव सेना, एनसीपी जैसी मुख्यधारा की क्षेत्रीय विपक्षी पार्टियों के लिए भी दुविधा खड़ी करने का था। अगर जाएं, तो संघ-भाजपा के राजनीतिक-चुनावी खेल का अनुमोदन करें और न जाएं, तो ‘‘राम मंदिर विरोधी’’ होने के उनके हमलों को अतिरिक्त वैधता दें। बहरहाल, खुद हिंदू धार्मिक परंपरा के ऊंचे पदों से इस आयोजन पर उठे सवालों ने, संघ-भाजपा के इन हमलों की धार्मिक वैधता पर सवाल खड़े कर, उनकी धार छीन ली है।

पहले कम्युनिस्ट, फिर कांग्रेस, फिर समाजवादी पार्टी, फिर बसपा, फिर अन्य अधिकांश विपक्षी पार्टियों के इस अयोध्या आयोजन से दूरी बनाने के पीछे, एक महत्वपूर्ण चिंता यह भी रही है कि क्या एक धर्मनिरपेक्ष देश में शासन को, इस तरह किसी एक धर्म के आयोजनों को अपने कंधों पर लेना चाहिए? धर्मनिरपेक्षता की कोई भी परिभाषा क्यों न की जाए, एक बहुधार्मिक देश में शासन, एक धार्मिक-परंपरा के साथ खड़ा दिखाई दे, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन, मोदी राज के करीब दस साल में भारत में शासन से धर्मनिरपेक्षता के तकाजों को इतना कमजोर कर दिया गया है और बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिकता को इस कदर हावी होने का मौका दिया गया है कि, विपक्षी धर्मनिरपेक्ष पार्टियां तक धर्मनिरपेक्षता के इन न्यूनतम तकाजों पर जोर देने में हिचकने लगी थीं। बहरहाल, अब जबकि एक धार्मिक आयोजन की जगह पर, खुल्लमखुल्ला राजनीतिक-चुनावी आयोजन के बैठाए जाने के खिलाफ, खुद उच्च धार्मिक हलकों से चिंताएं फूट पड़ी हैं, इसने बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की ताकतों के हमले का सामना करने के मुख्यधारा की विपक्षी पार्टियों के साहस को बल दिया है। इसी का नतीजा, विपक्षी इंडिया गठबंधन से भी व्यापक पैमाने पर, विपक्षी ताकतों के बलपूर्वक नहीं कहने के रूप में सामने आया है। ठीक इसी संदर्भ में संघ-भाजपा ने राम मंदिर उद्घाटन आयोजन को, धर्मनिरपेक्ष विपक्ष के खिलाफ जो ‘मास्टर स्ट्रोक’ बनाने की कोशिश की थी, साफ तौर पर विफल होती नजर आ रही है। यह मास्टर स्ट्रोक तो, जैसा हमने पीछे इशारा किया था, धर्म निरपेक्ष विपक्ष के खिलाफ हथियार के रूप में, फ्लॉप शो ही होता नजर आता है। उल्टे इस टक्कर में से विपक्ष ही विचारधारात्मक रूप से ज्यादा स्पष्ट और एकजुट होकर उभरता नजर आ रहा है।

राम मंदिर के नाम पर संघ-भाजपा द्वारा उठायी जा रही इस आंधी के सामने विपक्ष का धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के पक्ष में मजबूती से खड़ा होना, एक इस मुद्दे का ही सवाल नहीं है। यह बलपूर्वक इसका इशारा करना भी है कि सत्ताधारी संघ-भाजपा और विपक्ष के बीच आने वाले चुनाव में होने वाले विभाजन का, एक स्पष्ट विचारधारात्मक रूप होगा। जनतंत्र, संघवाद तथा आम जन के हित के साथ, इस विभाजन के केंद्र में धर्मनिरपेक्षता बनाम बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिकता का विभाजन होगा। लेकिन, जैसाकि सभी जानते हैं यह सिर्फ एक मुद्दे पर या एक विचार पर जोर दिए जाने का ही मामला नहीं है। बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिकता वह पर्दा है, जिसकी ओट में मौजूदा निजाम आम जनता के लिहाज से अपनी सारी नाकामियों और इजारेदार पूंजीपतियों तथा अन्य विशेषाधिकार-संपन्नों की अपनी सारी सेवाओं की सचाई को, अपने राज के असली चरित्र को छुपाता है। यह पर्दा जैसे-जैसे कमजोर होगा, यहां से, वहां से फटेगा/ हटेगा, वैसे-वैसे अपने हित के वास्तविक मुद्दों पर आम जनता और हरकत में आएगी। इंडिया गठबंधन ठीक इसी रास्ते पर बढ़ रहा है। याद रहे कि विपक्षी पार्टियों के साथ आने जितना ही महत्वपूर्ण है, इस पर्दे का हटना और आम जनता का अपने वास्तविक हितों के तकाजों को पहचानना। गोदी मीडिया के सारे प्रचार के विपरीत, राम मंदिर उद्घाटन का कथित मास्टर स्ट्रोक उल्टा पडक़र, बेरोजगारी, महंगाई आदि से लेकर जनतंत्र तक, जनता के हित के वास्तविक मुद्दों को ही उभारने जा रहा है। और यही काम राहुल गांधी की मणिपुर से शुरू हुई ‘‘न्याय एकता यात्रा’’ समेत इंडिया की विभिन्न एकजुट जन-कार्रवाइयां करने जा रही हैं। यह मीडिया के सारे दावों के विपरीत, आने वाले चुनावी मुकाबले को विपक्ष की पक्ष में और ज्यादा खोलने ही जा रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

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निशाकांत शर्मा (सहसंपादक)

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